जमा बीमा के अलावा | संपादकीय / November 18, 2019 | | | | |
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) का केंद्रीय बोर्ड जमा बीमा की राशि को 1 लाख रुपये से बढ़ाकर 5 लाख रुपये करने वाला है। इसका स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि बैंकों के अधिकांश खुदरा जमाकर्ता इसके दायरे में होंगे। जैसा कि इस समाचार पत्र ने प्रकाशित किया, एक नई योजना पर भी विचार किया जा रहा है जो 25 लाख रुपये तक की थोक जमा को कवर करेगी। इसके अलावा अनुमान यह भी है कि बोर्ड दो अन्य अहम प्रस्तावों पर विचार करेगा। पहला, वह बैंकों को इस बात की अनुमति दे सकता है कि वे व्यक्तिगत तथा संस्थागत जमाकर्ताओं के लिए बढ़ी सीमा पर जमा कवर हासिल करें। यदि इसका क्रियान्वयन हुआ तो यह भरोसा पैदा करने वाला कदम साबित होगा। खासतौर पर इससे निजी क्षेत्र के बैंकों में यकीन बढ़ेगा और वित्तीय स्थिरता को मजबूती देने में सहायता मिलेगी।
दूसरा, डिपॉजिट इंश्योरेंस ऐंड क्रेडिट गारंटी कॉर्पोरेशन (डीआईसीजीसी) धोखाधड़ी से प्रभावित जमाकर्ताओं के बचाव के लिए एक अलग कोष तैयार करेगा। मिसाल के तौर पर पंजाब ऐंड महाराष्ट्र को-ऑपरेटिव (पीएमसी) बैंक जैसे मामले। बहरहाल, जानकारी के मुताबिक जमा बीमा के लिए चुकाए जाने वाले प्रीमियम को मौजूदा 10 पैसे प्रति 100 रुपये से अधिक नहीं किया जाएगा। बैंकिंग नियामक को इस प्रस्ताव की सावधानीपूर्वक जांच-परख करनी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बीमा प्रणाली आर्थिक रूप से व्यवहार्य बनी रहे। यह बात आश्वस्त करने वाली है कि केंद्रीय बैंक जमाकर्ताओं के हितों की रक्षा की राह तलाश कर रहा है। बहरहाल, जमा बीमा से संबंधित अन्य मसलों को हल करना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। जमा बीमा के सबसे बड़े लाभार्थी सहकारी बैंक हैं जबकि 90 फीसदी से अधिक प्रीमियम वाणिज्यिक बैंकों द्वारा चुकाया जाता है। इसका अनिवार्य अर्थ यह हुआ कि वाणिज्यिक बैंक राज्य सरकारों द्वारा सहकारी बैंकों की उचित निगरानी न कर पाने की कीमत चुका रहे हैं। उदाहरण के लिए सन 2009-10 और 2018-19 के बीच सहकारी बैंकों के 400 से अधिक दावे निपटाए गए।
वाणिज्यिक बैंकों में यह आंकड़ा केवल एक रहा। अब जमा बीमा में इजाफे के बाद भुगतान में काफी इजाफा हो सकता है। यह भी संभव है कि जमाकर्ताओं का एक तबका उच्च ब्याज दर के कारण सहकारी बैंकों में अधिक धनराशि रखना चाहे। ऐसे में सहकारी बैंकों के नियामकीय ढांचे की समीक्षा करना अहम है। राज्य सरकारों और केंद्रीय बैंक द्वारा दोहरे नियमन की मौजूदा व्यवस्था कारगर साबित नहीं हो रही है। इतना ही नहीं इस बात का दोबारा आकलन करना भी उचित होगा कि देश की वित्तीय व्यवस्था को इतनी बड़ी तादाद में सहकारी बैंकों की आवश्यकता है भी या नहीं। अतीत में वे कारगर रहे हैं लेकिन अब शायद वे उतने प्रासंगिक नहीं रह गए हैं क्योंकि वाणिज्यिक बैंकों के नेटवर्क का पर्याप्त विस्तार हो चुका है और तकनीक भी काफी उन्नत हो चुकी है। हकीकत में विशेषज्ञता और पूंजी की कमी के साथ सहकारी बैंकों के लिए बदलते वित्तीय परिदृश्य में बने रहना और प्रतिस्पर्धा करना मुश्किल होता जा रहा है। ऐसे में सहकारी बैंकों की मौजूदगी का नए सिरे से आकलन होना चाहिए और उनमें व्यवस्थित तरीके से सुधार लाया जाना चाहिए।
बेहतर संचालन वाले कुछ सहकारी बैंकों का विलय कर उन्हें लघु वित्त या वाणिज्यिक बैंकों में बदला जा सकता है। केंद्रीय बैंक को अपनी नियामकीय और बैंकिंग निगरानी क्षमताओं का भी नए सिरे से आकलन करना होगा ताकि बैंकिंग क्षेत्र की कमियों को समय रहते दूर किया जा सके। उदाहरण के लिए पीएमसी बैंक में हुई धोखाधड़ी वर्षों तक पकड़ी नहीं जा सकी और उसका खुलासा तब हुआ जब प्रबंधन ने स्वयं नियामक को पत्र लिखा। ऐसे में जमाकर्ताओं के हितों की रक्षा के लिए सरकार और बैंकिंग नियामक को जमा बीमा की सीमा बढ़ाने के अलावा भी काफी कुछ करना होगा।
|