एनबीएफसी सुधार से जुड़ी ग्रामीण भारत की तकदीर | प्रांजल भंडारी / November 14, 2019 | | | | |
देश के गांवों की हालत में तब तक सुधार नहीं होगा जब तक कि गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों की स्थिति बेहतर नहीं होती है। इस विषय पर प्रकाश डालता प्रांजल भंडारी का लेख।
देश की अर्थव्यवस्था को तगड़ा झटका लगा है और आर्थिक वृद्घि दर एक वर्ष पहले के 8 फीसदी से गिरकर 5 फीसदी पर आ गई है। इसका असर खपत से लेकर विनिर्माण तक हर तरह की गतिविधि पर पड़ा है। परंतु यह मंदी इतनी जल्दी कैसे आ गई और इतनी व्यापक कैसे हो गई? हमारा मानना है कि इसके लिए काफी हद तक उन क्षेत्रों को दोष दिया जाना चाहिए जो प्रथम दृष्ट्या उससे असंबद्घ नजर आते हैं। हमारा विश्लेषण दर्शाता है कि विनिर्माण क्षेत्र की समस्याओं के चलते देश का मौजूदा ग्रामीण संकट बढ़ा है। हम जानते हैं कि विनिर्माण क्षेत्र की दिक्कतों में बैंकिंग क्षेत्र की समस्याओं का योगदान है। गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां पिछले दिनों तमाम गलत कारणों से सुर्खियों में रहीं। ऐसे तमाम क्षेत्र हैं जो देश की अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा हैं। विश्लेषण बताता है कि संकटग्रस्त एनबीएफसी क्षेत्र व्यापक तौर पर दिक्कतों की वजह बना हुआ है। देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था सन 2018 के आरंभ से ही केंद्र में रही है। यह वह दौर रहा जब ग्रामीण इलाकों में वेतन-भत्तों में कमी आने लगी, बेरोजगारी में इजाफा हुआ और इसके चलते ग्रामीण क्षेत्रों का व्यय बुरी तरह प्रभावित हुआ। ग्रामीण खपत के दो आम संकेतक हैं दोपहिया वाहनों की बिक्री और गैर टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन। इन दोनों में गिरावट देखने को मिली।
अधिकांश विश्लेषक मानते हैं कि घटती खाद्यान्न कीमतों के कारण किसानों की स्थिति बिगड़ी। परंतु उनकी आय में कमी आने की यह इकलौती वजह नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले भारतीयों ने बहुत बड़ी तादाद में कृषि कार्य से दूरी बनाई है और वे विनिर्माण क्षेत्रों, खासतौर पर शहरी क्षेत्रों में होने वाले निर्माण कार्यों में संलग्र हुए हैं। इस बात ने भी ग्रामीण क्षेत्रों के संकट में इजाफा किया है। ग्रामीण भारत के रोजगार की स्थिति का गहराई से आकलन करने पर पता चलता है कि ग्रामीण क्षेत्रों के कुल रोजगार में कृषि आधारित रोजगार में पुरुषों की हिस्सेदारी जो वित्त वर्ष 2000 में 71.4 फीसदी थी वह 2018 में घटकर 55 फीसदी रह गई। समान अवधि में विनिर्माण आधारित रोजगारों पर निर्भरता में तेजी से इजाफा हुआ और वे 4.5 फीसदी से बढ़कर 14.5 फीसदी हो गए।
शुरुआत में ग्रामीण कामगार शहरी विनिर्माण परियोजनाओं की ओर इसलिए आकर्षित हुए क्योंकि यहां मेहनताना बेहतर था। परंतु जब शहरों में विनिर्माण गतिविधियों में ठहराव आया तो ये श्रमिक वापस अपने गांव लौटने लगे। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में दिए जाने वाले मेहनताने पर और अधिक दबाव बना। लेकिन शहरों में निर्माण गतिविधियों में ठहराव क्यों आया? विनिर्माण गतिविधियां इसलिए प्रभावित हुईं क्योंकि इस पर फिलहाल संकट से जूझ रहे अचल संपत्ति क्षेत्र का दबदबा है। मोटे तौर पर बात की जाए तो 70 फीसदी विनिर्माण गतिविधियां आवासीय और वाणिज्यिक अचल संपत्ति से ताल्लुक रखती हैं। शेष 30 फीसदी का संबंध बुनियादी ढांचे से है।
अचल संपत्ति क्षेत्र की बात करें तो गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों यानी एनबीएफसी तथा आवास वित्त कंपनियों पर निर्भरता के चलते उसकी हालत बेहद खराब हो चली है। अचल संपत्ति डेवलपरों के नजरिये से देखें तो एनबीएफसी की फंडिंग पर निर्भरता बीते कुछ वर्षों में नाटकीय तेजी से बढ़ी है। वित्त वर्ष 2018 अचल संपत्ति डेवलपरों के ऋण में हुई 100 फीसदी वृद्धि एनबीएफसी से आई जबकि पांच वर्ष पहले यह 50 फीसदी था। गत वर्ष भारी डिफॉल्ट के बाद जब एनबीएफसी उद्योग हिल उठा और अचल संपत्ति क्षेत्र के ऋण का स्रोत बंद हो गया तो जाहिर है इस क्षेत्र पर भी गहरा असर हुआ। इसका प्रभाव विनिर्माण क्षेत्र पर पडऩा तय था लेकिन साथ ही साथ इसने ग्रामीण क्षेत्र के रोजगार और आय को भी प्रभावित किया।
क्या भारत के प्रमुख बैंक इसके बचाव के लिए आगे आएंगे? सैद्धांतिक रूप से तो हां लेकिन व्यवहार में यह इतना आसान नहीं है। बैंक तगड़ी नियामकीय सीमाओं के अधीन काम करते हैं। इसके अधीन वे अचल संपत्ति क्षेत्र को दिए जाने वाले ऋण में तेजी से विस्तार नहीं कर सकते। जून 2019 में समाप्त तिमाही में अचल संपत्ति डेवलपरों का कुल ऋण घट गया क्योंकि बैंक ऋण एनबीएफसी के ऋण में आई कमी की भरपाई नहीं कर सका। यदि एनबीएफसी में नकदी की किल्लत बनी रही तो अचल संपत्ति डेवलपरों को होने वाली फंडिंग अनिश्चित बनी रहेगी और विनिर्माण क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय सुधार देखने को नहीं मिलेगा। इन तमाम संबंधों को समझते हुए आश्चर्य नहीं कि एनबीएफसी और अचल संपत्ति क्षेत्र में गिरावट के बाद 2018 के अंत में ग्रामीण क्षेत्रों में मेहनतानों में भी गिरावट आई। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि जब तक एनबीएफसी द्वारा ऋण प्रदान करने की शुरुआत नहीं होती है तब तक विनिर्माण जोर नहीं पकड़ेगा और ग्रामीण मेहनताना भी शायद तेजी से नहीं सुधरे।
यहां पर यह सवाल पूछना लाजिमी हो जाता है कि आखिर सरकार इस मंदी का आगे प्रसार रोकने के लिए क्या कर सकती है? सरकार ने लंबित पड़ी आवासीय परियोजनाओं को दोबारा शुरू करने के लिए एक प्रोत्साहन पैकेज की घोषणा की है जो अहम कदम है। इससे अचल संपत्ति क्षेत्र का नकदी संकट कुछ हद तक कम हो सकता है। कम से कम उन परियोजनाओं में ऐसा हो सकता है जो अन्यथा मजबूत हैं लेकिन फिलहाल फंड की कमी से जूझ रही हैं। इसके अतिरिक्त दूसरे कदम की भी आवश्यकता पड़ सकती है। शेष अर्थव्यवस्था से गहरे अंतर्संबंधों के चलते कुछ एनबीएफसी और अचल संपत्ति डेवलपरों को प्रत्यक्ष बचाव की आवश्यकता पड़ सकती है। उदाहरण के लिए सरकार या भारतीय रिजर्व बैंक व्यवस्थागत दृष्टि से अहम फर्म की पहचान कर सकते हैं और उनपर करीबी निगरानी रख सकते हैं, उनके लिए खरीदार तलाश कर सकते हैं अथवा मालिकों की मदद से उनका पुनर्पूंजीकरण कर सकते हैं। इसके साथ-साथ यह भी सुनिश्चित किया जा सकता है कि निजी अंशधारक नुकसान को बांटें। ऐसा करने से उन स्थितियों में ऋणशोधन की समस्या से निजात पाने में मदद मिलेगी जहां कंपनियों के शुद्घ मूल्य पर सवालिया निशान हों। चाहे जो भी हो लेकिन हम मानते हैं कि मौजूदा मंदी को थामने के लिए भारत को विभिन्न क्षेत्रों के बीच के उन अंतर्संबंधों का अध्ययन करना चाहिए जिनकी प्राय: अनदेखी कर दी जाती है। अध्ययन के साथ-साथ सरकार को पूरी ताकत से हस्तक्षेप भी करना चाहिए।
लेखिका एचएसबीसी सिक्योरिटीज ऐंड कैपिटल मार्केट्स (इंडिया) में मुख्य भारत अर्थशास्त्री हैं।
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