अयोध्या और राम मंदिर चुनाव के लिहाज से अजीब हैं। वर्ष 1989 और 1991 के आम चुनावों में मंदिर आंदोलन की व्यापक सफलता के बाद भारतीय जनता पार्टी (भाजपा)- बाबरी मस्जिद की जगह मंदिर निर्माण के लिए वोट बैंक बनाने वाली मुख्य पार्टी- कभी उन ऊंचाइयों तक नहीं गई। हां, अपने राजनीतिक एजेंडे में मंदिर को मुख्य स्थान देते हुए भाजपा एक विकट स्थिति में पहुंच गई थी कि रामलला वहां विराजमान थे लेकिन वे लोगों के लिए नहीं थे। ऐसे में मंदिर मुद्दे को आगे बढ़ाना उसके लिए कठिन था तो पीछे हटना लगभग असंभव दिख रहा था।
इसलिए पारंपरिक राजनीतिक ज्ञान से पता चलता है कि राम के जन्म स्थान पर एक भव्य मंदिर के निर्माण से आगामी चुनावों में भाजपा को एक बड़ा वोट बैंक मिल सकता है। उसके नेता भलीभांति जानते हैं कि उन्हें अपनी रणनीति में मंदिर को अलग-थलग नहीं रखना चाहिए। इसलिए यह जरूरी नहीं है कि राम और कुछ अन्य मुद्दे केवल विश्वास पर ही टिके हों।
दिसंबर 1993 में मंदिर-मस्जिद आंदोलन की गर्माहट उत्तर प्रदेश में एक तूफान बन गई। उस साल होने वाले विधान सभा चुनाव को बाबरी मस्जिद को ढहाने के लिए एक जनमत संग्रह के तौर पर पेश किया गया जबकि बाबरी मस्जिद को एक साल पहले ही ढहा दिया गया था। भाजपा ने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को इस नारे के साथ मैदान में उतारा कि 'जो कहा सो किया'। लेकिन स्थिति उस समय खराब हो गई जब सिंह के नेतृत्व में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से ताल्लुख रखने वाले भाजपा का ही एक वर्ग टिकट बंटवारे में अधिक हिस्सेदारी की मांग की। वह अगड़ी जातियों से काफी रोष में था क्योंकि वे मंदिर पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानती थीं। इस बीच ओबीसी, दलित और मुसलमान समुदायों से ताल्लुक रखने बड़ी तादाद में लोग समाजवादी पार्टी-बहुजन समाजवादी पार्टी (सपा-बसपा) गठबंधन की ओर खिसक गए और भाजपा को सरकार बनाने से रोक दिया। इस प्रकार जाति ने विश्वास को ध्वस्त कर दिया।
उसके बाद कई चुनाव हुए लेकिन राम मंदिर को अधिक महत्त्व नहीं दिया गया। वर्ष 1957 के बाद हुए लोक सभा चुनावों में भाजपा (और अपने पूर्ववर्ती जन संघ) को पांच बार फैजाबाद (अयोध्या) सीट पर जीत मिली लेकिन ऐसा नहीं था कि हर बार राम के नाम पर ही वोट मिला हो। अयोध्या विधान सभा सीट भी कई बार भाजपा की झोली में गई लेकिन 2017 के विधान सभा चुनाव में उसकी जीत अचंभित करने वाली थी। अयोध्या विधान सभा सीट पर विजयी रहे उम्मीदवार वेद प्रकाश गुप्ता बसपा के दलबदलू थे जिन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 'करिश्मे' के सहारे जीत मिली।
यही कारण है कि अपने आध्यात्मिक गुरु स्वर्गीय अवेद्यनाथ के जरिये राम मंदिर आंदोलन से अटूट संबंध रखने वाले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जब 18 अक्टूबर 2017 को दीवाली उत्सव की अध्यक्षता करने अयोध्या गए तो उन्होंने उसके धार्मिक महत्त्व को विकास के जरिये से देखा।
भाजपा 2009 में जब लोक सभा चुनाव हार गई तो कामेश्वर चौपाल ने पार्टी नेतृत्व से बात की थी। बिहार के सुपौल में रहने वाले दलित व्यक्ति चौपाल को विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के मुखिया अशोक सिंघल अयोध्या लाए थे और 1989 के शिलान्यास कार्यक्रम में उन्हीं से पहली ईंट रखवाई थी। इसका उद्देश्य हिंदुत्व को एक समावेशी धर्म के तौर पर दिखाना था और 1981 में तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम में बड़े पैमाने पर हिंदुओं द्वारा धर्म परिवर्तन कर इस्लाम ग्रहण करने के बाद यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के लिए एक महत्त्वपूर्ण विचार बन गया था। करीब 20 साल बाद चौपाल ने कहा कि अयोध्या अपना चुनावी महत्त्व खो चुका है और उन्होंने भाजपा को राम के साथ 'रोटी' (आजीविका) को भी जोडऩे की सलाह दी थी।
संघ 'परिवार' के दूरदर्शी चिंतकों और रणनीतिकारों को भलीभांति पता है कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद राम मंदिर के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ सकता है लेकिन उसके निर्माण पर भाजपा के भविष्य को लटकाना व्यावहारिक नहीं था।
केंद्र सरकार/भाजपा के नजरिये से देखा जाए तो मंदिर निर्माण की देखभाल के लिए एक ट्रस्ट गठित करने संबंधी सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश काफी मायने रखता है। यह आदेश एक मिशाल है। वर्ष 1947 में जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल में वरिष्ठ मंत्री के तौर पर शामिल सरदार वल्लभभाई पटेल और केएम मुंशी ने गुजरात में सोमनाथ मंदिर के पुननिर्माण के लिए कहा था। मुंशी ने उसे असहिष्णुता और मूर्ति भंजन का प्रतीक कहा था। महमूद गज़नवी ने 1026 में सोमनाथ के मंदिर पर पहला आक्रमण किया था। तत्कालीन सरकार उस ट्रस्ट की संरक्षक बनी थी और मंदिर निर्माण के लिए लोगों से चंदा जुटाया था।
यदि राम मंदिर का निर्माण विहिप द्वारा समर्थित रामजन्मभूमि न्यास (ट्रस्ट) पर छोड़ दिया जाता तो आरएसएस/विहिप/भाजपा और मजबूत हिंदू संत समाज के बीच स्वामित्व और नियंत्रण को लेकर विवाद हो सकता था। अयोध्या फैसले का चुनावी प्रभाव सबसे पहले झारखंड विधान सभा चुनावों में दिखेगा। भाजपा को वहां झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो), कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के गठबंध से मुकाबला करना है। लेकिन वहां झारखंड विकास मोर्चा (प्रजातांत्रित) विपक्षी गठबंधन में शामिल नहीं है और झामुमो के आदिवासी वोट बैंक में सेंध लगाने में उसकी अहम भूमिका हो सकती है।
भाजपा जातीय समीकरण एवं स्थानीय मुद्दों के आधार पर अपनी चुनावी रणनीति तैयार करने में जुट गई है क्योंकि वह हरियाणा और महाराष्ट्र में उम्मीद से कमजोर प्रदर्शन के मद्देनजर जोखिम नहीं ले सकती है। अनुच्छेद 370 को बदलने और घुसपैठियों को पहचानने की बातों से भाजपा को जितनी उम्मीद थी चुनावों में उनसे उतना फायदा नहीं मिला। ऐसे में केवल अयोध्या पर ही जोखिम क्यों उठाया जाए?
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