देश में उग्र राष्ट्रवाद के झंडाबरदार | शेखर गुप्ता / November 03, 2019 | | | | |
गूगल मुझे बता रहा है कि असली नेपोलियन बोनापार्ट इस सवाल को खारिज करने के लिए काफी जीवंत और कल्पनाशीलता जवाब का प्रयोग करता कि आखिर सिंहासन क्या है? मैं यहां बहुत सीमित तरीके से बात करते हुए सन 1970 की क्लासिक फिल्म वाटरलू में नेपोलियन की भूमिका निभाने वाले अभिनेता रॉड स्टेगर के एक संवाद का प्रयोग करूंगा। उन्होंने कहा था, सिंहासन क्या है? यह एक महंगा फर्नीचर भर है।
यह 19वीं सदी का शुरुआती दौर था और उस वक्त सिंहासन का कद बचा हुआ था। आधुनिक विश्व में तो ज्यादातर जगह इसका अस्तित्व तक नहीं है। हालांकि हाल के वर्षों में राष्ट्रवाद ने काफी हद तक देश भर में वापसी की है लेकिन फिर भी सिंहासन, राजमुकुट, राष्ट्रगान और ध्वज आदि हमारी चेतना से दूर ही हैं। यद्यपि ये बहुत दूर भी नहीं गए हैं। खिलाड़ी विभिन्न प्रतियोगिताओं में इन्हें बहुत गंभीरता से लेते हैं। बात बस इतनी है कि आधुनिक राष्ट्र-राज्य अधिकार स्थिर और सुरक्षित हैं तथा ऐसे प्रतीकों का मूल्य स्मृतियों के लिए ही बचा है।
ऐसे में हम इस दलील का अनुसरण एक प्रासंगिक प्रश्न के माध्यम से कर सकते हैं: ध्वज क्या है? क्या आज नेपोलियन ने कहा होता कि यह कपड़े का एक टुकड़ा है जिसे जरूरत से ज्यादा तवज्जो दी गई? शायद नहीं। लेकिन उसके सैनिक आज वेलिंगटन से लडऩे ध्वज उठाए हुए वाटरलू नहीं पहुंच जाते। वक्त के साथ लोग और प्रतीक बदल जाते हैं। ध्वज क्या है? यह प्रश्न हम इसलिए उठा रहे हैं क्योंकि देश के सबसे पुराने, रक्तरंजित और उपद्रवी क्षेत्र नगालैंड की समस्या से जुड़ी वार्ता अब अंतिम मुकाम पर है। भारतीय राज्य और नगा दोनों मानते हैं कि उन्होंने एक दूसरे के साथ गलत किया है और अब हिंसा कारगर उपाय नहीं है। नगा अभी भी अपना झंडा चाहते हैं जो तिरंगे के साथ लहराए। मोदी सरकार इसकी रियायत देने की इच्छुक नहीं दिखती। अब वार्ता उस स्तर पर पहुंच गई है जहां सरकार का कहना है कि नगा समुदाय अपने सांस्कृतिक तथा जातीय कार्यक्रमों के अवसर पर अपना ध्वज फहरा सकते हैं। नगाओं का कहना है कि यह तो ऐसा ही होगा जैसे किसी एनजीओ का अपना झंडा होता है।
बैंकिंग क्षेत्र के शीर्ष लोगों में शुमार के वी कामत ने वार्ता की कला पर एक अच्छी बात कही है। वह कहते हैं कि सबसे अच्छी वार्ता वह है जहां दोनों पक्ष थोड़ी नाखुशी के साथ वार्ता खत्म करें। यानी दोनों कुछ ऐसा छोड़ें जो वे नहीं छोडऩा चाहते हों।
मुइवा के नगाओं को बिना ध्वज की मांग पूरी हुए संधि करना अपमानजनक लगता है। मोदी सरकार के लिए भी मामला उतना ही कठिन है। गत 31 अक्टूबर को सरकार ने जम्मू कश्मीर का ध्वज समाप्त होने का जश्न मनाया और इसे सरदार पटेल को श्रद्धांजलि के रूप में पेश किया क्योंकि उस दिन उनकी वर्षगांठ थी। ऐसे में सरकार महज 30 लाख की आबादी वाले जनजातीय राज्य के लिए ध्वज की मांग कैसे मान लेगी जबकि उसने अपेक्षाकृत बड़े राज्य से ध्वज छीनकर भारतीय राष्ट्रवाद का एक स्पष्ट वक्तव्य दिया। प्रतीकात्मकता के मामले में मोदी की भाजपा सरकार और वाजपेयी की भाजपा सरकार में काफी अंतर है। यह पूछे जाने पर कि अगर भारत संविधान के दायरे में बातचीत के लिए अड़ा रहा तो कश्मीरी अलगाववादियों से कैसे बात होगी? इस सवाल के जवाब में वाजपेयी ने कहा था कि यह बातचीत इंसानियत के दायरे में होगी।
मोदी की भाजपा का रुख वापस कड़े और गैर लचीले राष्ट्रवाद की ओर लौट गया है। बल्कि थोड़ी छूट लूं तो यह कठोर राष्ट्रवाद है। ऐसा राष्ट्रवाद अपने प्रतीकों को लेकर छूट नहीं देता। यही कारण है कि एक राज्य के झंडे के उतरने का जश्न मनाया जाता है, दूसरे की झंडे की मांग का प्रतिरोध किया जाता है और तीसरे (कर्नाटक) के झंडे को किसी तरह बरदाश्त किया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपना ही आदेश वापस लिए जाने के बाद भी कोई सिनेमा हॉल राष्ट्रगान न बजाने का जोखिम नहीं लेता। सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान पर खड़े होने से इनकार करने वालों को प्रताडि़त किया जाता है। मानो देश की नई पीढ़ी को एक दूसरे को यह जताना पड़ रहा है कि वे केवल देशभक्त नहीं बल्कि राष्ट्रवादी भी हैं।
भाजपा अपने संस्थापकों के संपूर्ण भारत को लेकर एक विधान, एक निशान, एक प्रधान के विचार के काफी करीब है। इस तरह देश की मानसिकता सन 1960 के दशक मे लौट रही है। यदि मेरी तरह आप भी उस दौर में जन्मे होते तो आज के भारत के बारे में कल्पना करना भी मुश्किल होता। हमने चार युद्ध और कई छोटी लड़ाइयां देखी हैं। इनमें सन 1961 में गोवा और 1971 की बंगलादेश की आजादी की जंग शामिल है। क्या हमारी पीढ़ी ने सोचा था कि सन 1971 की लड़ाई अगले पांच दशकों की अंतिम लड़ाई है? क्या हमने यह सोचा था कि इस अवधि में देश तमाम अशांति और अलगाववादी आंदोलनों का शमन कर देगा?
प्रतिष्ठित विद्वान खासकर अमेरिका के सेलिग हैरिसन जैसे लोग उस खतरनाक दशक में भारत के अपरिहार्य ढंग से विघटन की बात कर रहे थे। भारत ने उन्हें गलत साबित किया और आज वह राजनैतिक, सामरिक, सैन्य और आर्थिक दृष्टि से अपने इतिहास के सबसे सुरक्षित मोड़ पर खड़ा है।
मुझे यह कहना ही होगा कि ऐसा 2014 के बाद नहीं हुआ है। सन 2003 के आसपास ऑपरेशन पराक्रम के बाद भारत ने दबाव की जो कूटनीति अपनाई वह बदलाव का मोड़ था। यानी सुरक्षित भारत का यह दौर बीते 15 साल में परिपक्व हुआ है। आप इसे आसानी से पलटता नहीं देखेंगे। बाहरी तौर पर भी नहीं और आंतरिक भी नहीं। बशर्ते कि हमारी राजनीति, सामाजिक तानाबाना न बिगाड़ दे। भारत आज पहले की तुलना में बहुत मजबूत है। उसे धकियाया नहीं जा सकता या उसकी जमीन नहीं छीनी जा सकती। हम भारतीयों को भी सुरक्षा की इस भावना को महसूस करना था लेकिन हम पुरानी असुरक्षा के घेरे में हैं।
इसकी वजह आपको मोदी-शाह की राजनीति में नजर आएगी। इसे इस तरह देखें। इस सरकार के कुछ आलोचक कहते हैं कि सरकार ने कश्मीर मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण किया है। यह सही है लेकिन आज भारत इतना मजबूत है कि वह ऐसे अंतरराष्ट्रीयकरण को झेल सके। 5 अगस्त को हुए बदलाव के तीन महीने बाद तक तीन जाने पहचाने देशों के अलावा किसी देश ने उन कदमों को पलटने का आग्रह नहीं किया है। शेष इसे भारत का आंतरिक मामला ही मानते हैं।
यकीनन ऐसा हमेशा नहीं चल सकता। कश्मीर में हालात तेजी से सामान्य करने होंगे। इसके राजनेताओं और प्रमुख लोगों को लंबे समय तक बंदी नहीं बनाये रखा जा सकता है और संचार सुविधाएं भी शुरू करनी होंगी। वरना अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ेगा और मित्र सरकारें मसलन ट्रंप आदि भी बचाव नहीं कर पाएंगे। यदि हालात सामान्य होते हैं तो क्या कश्मीर राष्ट्रीय चेतना के लिए इतना ही अहम बना रहेगा? या खुलकर कहें तो क्या तब भी वह हमारी असुरक्षा और उग्र राष्ट्रवाद की वजह बना रहेगा?
कश्मीर में नए हालात की असल चुनौती यह नहीं है कि उसका अंतरराष्ट्रीयकरण हुआ है। बल्कि इससे पहले यह कभी इस तरह आंतरिक मसला नहीं बना था। कश्मीर समस्या का अर्थ है पाकिस्तान से चुनौती, कट्टर इस्लाम, जिहादी आतंक आदि। यह राष्ट्रीय असुरक्षा की सीधी और बिना टूटी कड़ी है। अर्थव्यवस्था में हो रहे पराभव और रोजगार को क्षति के साथ इस चरम राष्ट्रवाद को मजबूत बनाने की जरूरत भी बढ़ी है। उस दृष्टि से देखें तो देश को सुरक्षित बताने से वोट नहीं मिलने वाले। क्योंकि तब बिना दूसरों का भय दिखाए आपकी राजनीति कैसे चलेगी? सन 1972 से 2014 के दशकों के बीच भारतीय राष्ट्रवाद कहीं अधिक सहज, सुरक्षित और आश्वस्त मनोदशा में उभरा है। हमें उन पुराने दिनों में घसीटा जा रहा है। उन भयों को सामने लाया जा रहा है जिन्हें हम 50 साल पीछे छोड़ आए हैं। दिलचस्प है कि इस मनोदशा में दो विपरीत खेल खेले जा रहे हैं। एक ओर एक झंडे को नकारने का राष्ट्रीय जश्न मनाया जा रहा है तो दूसरी ओर एक अन्य प्रदेश के झंडे को मंजूर करना एक असहज अनिवार्यता है।
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