रक्षा क्षेत्र में आत्म-निर्भरता का मुकाम अभी दूर | प्रेमवीर दास / October 29, 2019 | | | | |
देश के रक्षा क्षेत्र में मेक इन इंडिया अभियान दो श्रेणियों में चल रहा है। फिलहाल हमें घरेलू विनिर्माण के साथ विदेशी गठजोड़ का भी रास्ता अपनाना होगा। बता रहे हैं प्रेमवीर दास
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने गत 28 सितंबर को स्कॉर्पीन श्रेणी की दूसरी पनडुब्बी (खंडेरी) को नौसेना में शामिल करने के साथ ही पहले प्रोजेक्ट 17ए युद्धपोत (नीलगिरि) की भी मझगांव डॉक्स लिमिटेड (एमडीएल) में शुरुआत की। इसके चंद दिनों पहले उन्होंने बेंगलूरु स्थित हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) में निर्मित हल्के लड़ाकू विमान 'तेजस' में उड़ान भी भरी थी। उससे भी पहले स्वीडिश बोफोर्स के डिजाइन पर आधारित 155 मिमी की स्वदेशी तोप का भी सफल परीक्षण किया गया था। रक्षा उत्पादन में आत्म-निर्भरता हासिल करने की दिशा में ये कदम महत्त्वपूर्ण नजर आ रहे हैं। हालांकि इन्हें संदर्भ के साथ देखना जरूरी है।
पनडुब्बी खंडेरी असल में भारत में निर्मित नहीं है। यह कहना अधिक सही होगा कि उसे भारत में 'एसेंबल' किया गया। इसका डिजाइन फ्रांसीसी होने के अलावा लगभग सारे उपकरण भी फ्रांस में बने हुए हैं। पनडुब्बी को आकार देने में एमडीएल के इंजीनियरों की मदद के लिए फ्रांस से दर्जनों टेक्निशियन भी आए थे। इसी तरह सेना के लिए निर्मित 155 मिमी तोप भी बोफोर्स की विदेशी डिजाइन पर निर्मित है और उसके कई पुर्जे बाहर से मंगवाए गए हैं। यह तोप आयात के जरिये पहली बार सेना में शामिल किए जाने के 33 साल बाद विकसित हुई है। नीलगिरि और तेजस स्वदेशी रक्षा उत्पाद हैं। मुख्यत: घरेलू उपकरणों से विकसित नीलगिरि युद्धपोत नौसेना की सोच एवं कड़ी मेहनत का नतीजा है जबकि तेजस विमान तीन दशकों तक चले विकास एवं परीक्षण के बाद सामने आ सका है। वायुसेना ने तेजस को अपने बेड़े में शामिल कर लिया है लेकिन अभी तक यह वांछित स्तर नहीं हासिल कर पाया है।
ये चारों हथियार प्रणालियां रक्षा क्षेत्र के सार्वजनिक उपक्रमों या सीमित निजी भागीदारी वाले संगठनों के प्रयासों की उपज हैं। ये पिछले कई दशकों से सैन्यबलों के लिए अलग-अलग सैन्य उपकरण बनाने के 'लाइसेंसशुदा उत्पादन' से अलग हैं। पिछले दशकों में जगुआर, मिग, सुखोई विमानों और बीएमपी, टी-72 एवं टी-90 टैंकों के अलावा 130 मिमी तोप का निर्माण भी सार्वजनिक रक्षा उपक्रमों में ही होता रहा है। इन मारक हथियारों के लिए कुछ सामग्री निजी कंपनियों से भी आती रही है लेकिन अंतिम रूप से तैयार हथियार रक्षा उपक्रमों या डीआरडीओ का ही होता है। किसी बड़े रक्षा निर्माण में निजी क्षेत्र की उल्लेखनीय भागीदारी लार्सन ऐंड टुब्रो की ही रही है जिसने अरिहंत श्रेणी की परमाणु पनडुब्बी का ढांचा तैयार किया था।
दरअसल रक्षा क्षेत्र में जारी 'मेक इन इंडिया' की दो श्रेणियां हैं। पहली श्रेणी में किसी विदेशी एजेंसी के साथ मिलकर भारत में प्लेटफॉर्म तैयार किया जाता है और इसके लिए डिजाइन, तकनीकी पक्ष और उपकरण भी वही मुहैया कराता है। दूसरी श्रेणी के तहत हथियार का डिजाइन भी स्वदेशी स्तर पर विकसित होता है और काफी हद तक मशीनरी एवं उपकरण भी घरेलू होते हैं। अभी तक कुछ अपवादों को छोड़कर दोनों तरह का उत्पादन सार्वजनिक रक्षा उपक्रमों एवं डीआरडीओ के जरिये होता रहा है। अब नीति यह है कि निजी क्षेत्र को एक नए भागीदार के तौर पर जगह दी जाती है लेकिन अभी तक इसका परिणाम मिश्रित ही रहा है। पीपावाव शिपयार्ड में एक सामान्य निगरानी जहाज के निर्माण की रिलायंस एडीएजी की कोशिश निराशाजनक रही है। लेकिन एलऐंडटी ने अधिक जहाजों के ऑर्डर हासिल कर निवेश जुटाने की संभावना दिखाई है।
कई साल पहले, डीआरडीओ के तत्कालीन प्रमुख एपीजे अब्दुल कलाम ने विशाखापत्तनम की एक प्रयोगशाला में हुई मुलाकात में इस मसले को सार-रूप में इस तरह पेश किया था, 'जानकारी आधारित उत्पादन नहीं, जरूरत-आधारित उत्पादन अधिक अहम है। जानकारी हमें विदेशी कंपनियों से हस्तांतरित की जाएगी, वहीं दूसरा काम अधिक अहम है और इसमें कोई भी विशेषज्ञ जानकारी हमसे साझा नहीं करेगा। लिहाजा इसे अपने स्तर पर विकसित करने के अलावा कोई चारा नहीं है। इसमें वक्त लगेगा लिहाजा हम जितना जल्दी इस रास्ते पर बढ़ते हैं, उतना ही बेहतर है।' रक्षा उपकरण का डिजाइन तैयार कर पाने की क्षमता महत्त्वपूर्ण है जो रक्षा उत्पादन में आत्म-निर्भरता के लिए बुनियादी शर्त है।
नौसेना ने पांच दशक पहले अपना एक अलग डिजाइन संगठन बनाया था और समय के साथ इसका विस्तार किया जाता रहा है। गोदावरी, ब्रह्मपुत्र, दिल्ली, शिवालिक, कोलकाता और अब नीलगिरि श्रेणी के जहाजों के अलावा एक विमानवाहक पोत के निर्माण का कार्य जारी है। इन सभी जलपोतों की शुरुआती रूपरेखा नौसेना के युवा डिजाइनरों ने ही अपने स्टाफ की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए बनाई और फिर उन्हें विस्तृत डिजाइन का रूप दिया गया। इनके पोतों के मॉडल बनाकर उनका कृत्रिम जलाशयों में परीक्षण किया जाता है। शिपयार्ड में इन मॉडलों के आधार पर असली पोतों को भौतिक रूप दिया जाता है। इस तरह के प्लेटफॉर्म को विदेश में भी बेचा जा सकता है लेकिन ऑर्डर के हिसाब से जरूरी संख्या में ऐसे पोत बनाने की क्षमता विकसित करनी होगी। यह बात डीआरडीओ की उपज एलसीए और अत्याधुनिक हल्के हेलीकॉप्टर (एएलएच) के मामले में भी सही है।
आगे की राह सार्वजनिक रक्षा उपक्रमों और डीआरडीओ की विशेषज्ञता को मजबूती देने की है। इससे भारत में निर्मित रक्षा उपकरणों के निर्यात की संभावना पैदा हो सकती है। उसी के साथ हमें निजी क्षेत्र के चुनिंदा संगठनों को प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि वे हमारे सशस्त्रबलों की जरूरतों पर खरा उतर सकें। इसके अलावा सार्वजनिक क्षेत्र में पर्याप्त क्षमता की भी भरपाई करनी होगी। रणनीतिक साझेदार के तौर पर चयनित ये कंपनियां केवल विदेशी गठजोड़ के जरिये ही ऐसा कर सकती हैं क्योंकि उनकी अपनी क्षमता अभी बहुत कम है। यह हवाई एवं नौसैनिक प्लेटफॉर्मों के मामले में यह खास तौर पर सच है। हालांकि इस मार्ग पर चलते हुए निर्यात की क्षमता हासिल करने की उम्मीद करना ठीक नहीं होगा क्योंकि भारत जैसे तमाम देश ऐसे सैन्य साजोसामान को सीधे मौलिक विनिर्माताओं से ही खरीदना पसंद करते हैं।
अगर भारत को रक्षा उत्पादन में आत्म-निर्भर होना है तो उसे अपने सैन्य प्लेटफॉर्म बनाने और हथियारों एवं उपकरणों के निर्माण में सक्षम होना होगा। यह संभावना केवल कुछ इलाकों में ही है और क्षमताओं एवं कौशल को अमलीजामा पहनाने के लिए जोरदार कोशिश की जरूरत होगी। इस दौरान एमएमआरसीए और अगली पीढ़ी की पनडुब्बी जैसी परियोजनाओं के लिए विदेशी गठजोड़ के अलावा कोई चारा नहीं है। लेकिन हमें डॉ कलाम की वह बात याद रखनी होगी कि आत्म-निर्भरता मूलत: इस पर निर्भर होती है कि कैसे से ज्यादा क्यों का जवाब मालूम हो? हमें वहां तक पहुंचने के लिए अभी कुछ इंतजार करना होगा।
(लेखक नौसेना की पूर्वी कमान के पूर्व प्रमुख एवं राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के सदस्य भी रहे हैं)
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