इस हफ्ते जारी वैश्विक भूख सूचकांक में भारत की रैंकिंग को लेकर चिंता जाहिर करना वाजिब ही है। हर साल जारी होने वाले इस सूचकांक में भारत को इस बार 117 देशों में से 102वां स्थान मिला है। इसका मतलब है कि भूख की तड़प एवं उसके विस्तार पर काबू कर पाने में केवल 15 देश ही भारत से पीछे हैं। मोटे तौर पर देखें तो भारत वर्ष 2010 में 95वें पायदान पर था, लिहाजा यही लगता है कि वह रैंकिंग में नीचे गिरा है।
इस सूचकांक में बच्चों का कद के अनुपात में कम वजन, उम्र के अनुपात में कम दिखना, बाल मृत्यु दर और जरूरत से कम पोषण जैसे तमाम संकेतक शामिल होते हैं। यह संभव है कि इन पैमानों पर कुल रैंकिंग भारांक या गणना-पद्धति में छोटे बदलावों के प्रति संवेदनशील हो। लेकिन सूचकांक में शामिल घटकों के अलग-अलग रुझान भी परेशान करते हैं। कद के अनुपात में वजन का पैमाना अधिक परेशान करता है।
रिपोर्ट कहती है कि जहां वर्ष 2012 के पहले 16.5 फीसदी बच्चों का वजन कद के अनुपात में नहीं था, वहीं 2014 के बाद से ऐसे बच्चों की संख्या 20 फीसदी से अधिक हो चुकी है। यहां यह खास तौर पर उल्लेखनीय है कि ये आंकड़े मोटे तौर पर राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण जैसे स्रोतों से हासिल संकेतकों से मेल ही खाते हैं।
संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) की इस हफ्ते जारी 'विश्व बाल स्थिति' रिपोर्ट में भी ऐसी ही चिंताएं जताते हुए कहा गया है कि 35 फीसदी भारतीय बच्चों का अपेक्षित कद नहीं बढ़ता है, 17 फीसदी दुबले रह जाते हैं और 33 फीसदी बच्चों का वजन कम रहता है। भारत का प्रदर्शन बेहद खराब रहने की पुष्टि इससे भी होती है कि इसके सारे पड़ोसी देश भूख सूचकांक में बेहतर स्थिति में हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक बार कुपोषण को राष्ट्रीय शर्म बताया था लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस मसले पर सरकारों की लगातार कोशिशों के बावजूद समुचित प्रगति नहीं हो पाई है। साफ-सफाई से जुड़ी समस्याएं भी कुपोषण की एक वजह हो सकती हैं, मसलन, स्वच्छ भारत अभियान। लेकिन रिपोर्ट बताती है कि खुले में शौच का सिलसिला अब भी जारी है जिसका पोषण पर दुर्भाग्यपूर्ण असर होता है। लेकिन अनवरत आर्थिक वृद्धि के दो दशक बाद भी खानपान के बुनियादी मसले नहीं निपटाए जा सके हैं।
हंगर रिपोर्ट कहती है कि छह महीने से लेकर दो साल तक के 90 फीसदी बच्चों को न्यूनतम स्वीकार्य आहार भी नहीं मिल पा रहा। यूनिसेफ रिपोर्ट के मुताबिक 40 फीसदी बच्चे एनीमिया की चपेट में हैं और केवल 40 फीसदी बच्चे, किशोर या माताएं ही हफ्ते में कम-से-कम एक बार दुग्ध उत्पादों का सेवन करते हैं। ऐसी हालत तब है जब दूध उत्पादन छह फीसदी दर से बढ़ा है और नवीनतम पशु गणना में दुधारू गायों की संख्या बढऩे की बात सामने आई है।
भारत राज्य को बुनियादी तत्त्वों पर जोर देना होगा और खाद्य वितरण के सवालों को हल करना होगा। किसी इलाके में गेहूं एवं धान उगाने की इच्छा रखने वाले किसानों के समर्थन का एक माध्यम भर रह गई मौजूदा सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार करने होंगे। यह एक वितरण प्रणाली है, केवल खरीद व्यवस्था नहीं।
अब यह सुनिश्चित करने पर जोर होना चाहिए कि कुपोषण का जोखिम झेल रहे बच्चों समेत तमाम भारतीयों को संतुलित एवं पोषक आहार मिले। अगर उत्तर प्रदेश के स्कूलों में बच्चों को मध्याह्न भोजन में चावल के साथ हल्दी का पानी भर मिल रहा हो तो अनाज के भंडारगृहों में गेहूं एवं चावल का ढेर लगा होने का कोई मतलब नहीं है। दोपहर में बच्चों को सब्जियों एवं प्रोटीन से भरपूर गरम खाना परोसना भूख से जुड़े सवाल हल करने का बढिय़ा शुरुआती बिंदु होगा।