मामल्लपुरम में मोदी-शी बैठक में नहीं निकला कोई ठोस नतीजा | दोधारी तलवार | | अजय शुक्ला / October 16, 2019 | | | | |
रात्रिभोज तक का ब्योरा देने वाले जबरदस्त मीडिया कवरेज के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग के बीच चेन्नई के निकट मामल्लपुरम में हुए अनौपचारिक शिखर सम्मेलन में शायद ही कोई नई बात सामने आई। अगर कोई कूटनीतिक कामयाबी थी तो वह भारत की सहनशीलता में थी जिसके चलते यह सम्मेलन संपन्न हो पाया। अगर चीन के प्रति कम मेहरबान देश होता तो उसी दिन सम्मेलन को निरस्त घोषित कर देता जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के साथ शी की बैठक के बाद चीन ने कहा था कि वह पाकिस्तान की सभी मुख्य चिंताओं का समर्थन करता है। यह बयान समूचे जम्मू कश्मीर पर पाकिस्तान के दावे का समर्थन करने की तरह है जो कश्मीर विवाद में तटस्थ रहने के चीन के दावे को नकारता है। लेकिन इस बयान पर बहुत कड़ी प्रतिक्रिया नहीं जताए जाने से शी को यही संकेत मिला होगा कि चीन से ज्यादा भारत मोदी-शी मुलाकात को लेकर उत्सुक है। सम्मेलन में मोदी को शी से इमरान के साथ बैठक का ब्योरा भी चुपचाप सुनना पड़ा।
दोनों देशों ने मामल्लपुरम बैठक की अहम उपलब्धि यही बताई कि मोदी और शी के बीच पांच घंटों से भी अधिक समय तक वैश्विक मामलों, निवेश, व्यापार, आतंकवाद, पर्यटन और संपर्क बढ़ाने के मुद्दों पर चर्चा हुई। मोदी ने 'चेन्नई संपर्क' का जिक्र करते हुए कहा कि इससे भारत-चीन संबंध में 'नया दौर' आने की उम्मीद है। वहीं शी ने बैठक को 'दिल-से-दिल की बात' बताते हुए कहा कि वह और मोदी 'सच्चे दोस्त जैसे' हैं। लेकिन अनुभव बताता है कि दो नेताओं के बीच राष्ट्रीय नजरिये के आदान-प्रदान से शांति का ही मार्ग नहीं प्रशस्त होता है, खासकर जब दोनों के बीच गहरी सामरिक प्रतिद्वंद्विता हो। ऐतिहासिक समझ रखने वाले प्रेक्षक माओत्से तुंग और जवाहर लाल नेहरु के बीच अक्टूबर 1954 में हुई साढ़े चार घंटे की मुलाकात को याद करेंगे जिसमें दोनों नेताओं ने दक्षिण एशिया में अमेरिका की भूमिका, वैश्विक परिवेश और भारत एवं चीन की स्थिति पर चर्चा की थी। लेकिन उस मुलाकात के आठ साल बाद दोनों देशों ने जंग लड़ी।
सच है कि लगातार सशक्त, संपन्न एवं हठधर्मी होते जा रहे चीन के साथ कूटनीतिक संपर्क रखने के सिवाय भारत के पास शायद ही कोई रास्ता है। लेकिन वह दोस्ती एवं भाईचारे के शब्दाडंबर से इतना भटक नहीं सकता कि इस बात को नजरअंदाज कर दे कि वुहान में हुए पहले अनौपचारिक सम्मेलन के बाद से चीन ने भारत की प्रमुख आर्थिक एवं सुरक्षा चिंताएं दूर करने के लिए कुछ भी नहीं किया है। भारतीय सेना चीन से लगी सीमा पर एक भी सैनिक की कटौती नहीं कर पाई है और हमारी सेना की तैनाती का आधार अब भी दोतरफा जंग की आशंका ही है। हम भारत-चीन सीमा विवाद के हल के आसपास भी नहीं हैं और चीन इस दिशा में उठाए जाने वाले शुरुआती कदमों को भी रोक देता है। अस्थायी सीमा के तौर पर मान्य वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर सैन्य तैनाती के बारे में जानकारी साझा करने के मामले में भी यही हुआ है। चीन के प्रभावी थिंकटैंक के एक प्रतिनिधिमंडल ने यही कहा है कि सीमा विवाद को भावी पीढिय़ों पर छोड़ देना चाहिए। बैठक के बाद जारी आधिकारिक बयान भी चीन के इसी रुख की तस्दीक करता है। ऐसे में भारत-चीन संबंधों को मजबूत करने के लिए शी की 'सौ-वर्षीय योजना' का तो वजूद भी नहीं दिखता है।
भारत की आर्थिक चिंताएं भी बदस्तूर कायम हैं। चीन के साथ व्यापार घाटा कम करने और क्षेत्र के 16 देशों के बीच प्रस्तावित मुक्त व्यापार समझौते क्षेत्रीय समग्र आर्थिक भागीदारी (आरसेप) को लेकर अविश्वास कायम है। इस बारे में उच्च स्तरीय आर्थिक एवं व्यापार वार्तालाप व्यवस्था बनाई गई है। यह जल्दबाजी में किया गया प्राथमिक उपचार भर है। खुद विदेश सचिव विजय गोखले ने कहा कि इस पर संक्षिप्त चर्चा ही हुई। पिछला अनुभव बताता है कि हमें अधिक अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। सीमा प्रबंधन के मुद्दे पर जनवरी 2012 और अक्टूबर 2013 में हुए दो सहयोग समझौते भी एलएसी पर शांति बनाने में नाकाम रहे हैं। शांति के बजाय अप्रैल 2013 में लद्दाख के देपसांग में तीन हफ्तों तक तनाव रहा, सितंबर 2014 में लद्दाख के ही चूमर में 16 दिनों तक सेनाएं आमने-सामने रहीं और जून-सितंबर 2017 में तो 73 दिनों तक सिक्किम से सटे डोकलाम में भारी तनाव बना रहा। वुहान सम्मेलन के बाद कुछ दिनों तक रही शांति बहुत जल्द खत्म हो गई।
विदेश सचिव ने बताया कि मोदी और शी के बीच कश्मीर पर कोई चर्चा नहीं हुई क्योंकि यह भारत का आंतरिक मामला है। कश्मीर पर चर्चा से परहेज के वाजिब कारण हैं लेकिन असल में यह आंतरिक मामला होने से दूर है। भारत के मुताबिक, जम्मू कश्मीर के 45,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर चीन का भौतिक कब्जा है जिसमें से 3,000 वर्ग किमी क्षेत्र चीन ने 1962 की जंग में हड़पा था और कभी नहीं लौटाया। बाकी 5,180 वर्ग किमी जमीन चीन को पाकिस्तान ने 1963 में दे दी थी। अगर अब पाकिस्तान के साथ उसके कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) पर ही बात होनी है तो फिर चीन के कब्जे वाले लद्दाख पर चुप्पी साधने को कैसे सही ठहराया जा सकता है?
ऐसा लगता है कि अनौपचारिक सम्मेलन की अवधारणा अभी बनी रहेगी। मोदी ने अगले साल चीन आने का शी का न्योता स्वीकार भी कर लिया है। हालांकि महज दिखावा बनकर रह गए सम्मेलन से पाने को बहुत कम है और प्रतिस्पद्र्धी बयानबाजी हकीकत से कोसों दूर है। अगर मोदी ने कविता लिखी तो भारत में चीन के राजदूत सुन वेतोंग ने भी ट्वीट किया, 'वुहान से चेन्नई, यांग्सी नदी से गंगा तक चीन और भारत हाथों में हाथ डाले साथ खड़े हैं। ड्रैगन एवं हाथी एक साथ टैंगो नृत्य कर रहे हैं।' कई मुद्दों पर मतभेदों के बीच ऐसे मीठे बोल भारतीयों को कृपा बरसाने वाले लगते हैं। एक ड्रैगन के साथ हाथी का टैंगो करना अभी तो दूर की कौड़ी ही लगता है।
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