देश में राज्य क्यों नहीं लगा सकते आयकर? | टीसीए श्रीनिवास-राघवन / October 13, 2019 | | | | |
आदर्श स्थिति में देखा जाए तो आयकर की दर यथा संभव शून्य के करीब होनी चाहिए क्योंकि यह एक राजनीतिक कर है जिसकी कोई आर्थिक महत्ता नहीं है। परंतु ऐसा होने वाला नहीं है। बहरहाल, कुछ और है जो किया जा सकता है।
गत माह मैंने अपने आलेख में कहा था कि मैं एक बड़े सुधार का सुझाव दूंगा। जरा इस पर विचार कीजिए: देश में आयकर केवल केंद्र सरकार क्यों लगाती है जबकि कई अन्य देशों में राज्य भी यह कर लगाते हैं?
क्या कोई ऐसी बात है जो भारतीय गणराज्य को विशिष्ट बनाती हो? क्या सन 1950 के दशक के राजनीतिक हालात अभी भी बरकरार हैं? जब तमाम अन्य कमतर चीजें संविधान की अनुवर्ती सूची में शामिल हैं तो फिर यह उसमें क्यों नहीं है? संविधान ने हरसंभव तरीके से राज्यों को सशक्त बनाया लेकिन इस क्षेत्र में?
मेरा मानना है कि अब इस पर बहस करने का वक्त आ चुका है। अगर कोई व्यक्ति इस बहस को शुरू कर सकता है तो वह हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। आखिरकार, केंद्र सरकार से सबसे अधिक प्रताडि़त होने वाले मुख्यमंत्री वही रहे हैं। संभवत: उनके द्वारा योजना आयोग को भंग करने की वजह भी यही रही।
इतना ही नहीं, सोच के रूढि़वादी तौर तरीकों को तोडऩे वालों में भी वह अव्वल हैं। इस क्षेत्र में अतीत में उनका प्रदर्शन बेहद अच्छा रहा है। खासतौर पर जब इससे तात्कालिक राजनीतिक लाभ होते हों। इतना ही नहीं, अब तो उनके पास संसद की शक्ति भी है जिसकी सहायता से वह संविधान संशोधन कर सकते हैं। कोई राज्य इस बात पर आपत्ति भी नहीं कर सकता। तब राज्य भी केंद्र को लेकर शिकायत करना बंद कर सकते हैं और अपनी आर्थिक तकदीर खुद लिख सकते हैं। इससे राज्यों को जबरदस्त शक्ति मिलेगी।
मुझे बस एक ही आशंका है कि राज्यों का आयकर 10 फीसदी से अधिक नहीं होना चाहिए और केंद्र का आयकर 30 फीसदी से ऊपर नहीं जाना चाहिए। तमाम उपकर और अधिभार समाप्त कर दिए जाने चाहिए। बीते तकरीबन 800 वर्षों से देश की 'सामान्य' कर दर 40 से 55 फीसदी रही है। यह आय का वह हिस्सा है जो सरकार वैध तरीके से नागरिकों से लेती है। परंतु ज्यादातर वक्त यह दर 45 से 50 फीसदी के दरमियान रही है।
कर 'संग्रह' की इस दर के कारण ही ज्यादातर वक्त भारत आर्थिक रूप से कमजोर बना रहा। इसे कम किया जाना चाहिए। केवल सरकारों को ही व्यय करने के लिए पैसा नहीं चाहिए। नागरिकों को भी धन की आवश्यकता होती है।
अप्रचलित व्यवस्था
शुरुआत में राज्य आयकर को वैकल्पिक रखा जा सकता है। जो राज्य इसे चुनेंगे उन्हें राज्य से मिलने वाला हिस्सा गंवाना होगा। जबकि जो राज्य ऐसा नहीं चाहते, उनके लिए पुरानी व्यवस्था तब तक लागू रहे जब तक वे नई व्यवस्था को अपना नहीं लेते।
अगर मजबूत राजनीतिक कारण हों तो आर्थिक वजहें और भी शक्तिशाली हो जाती हैं। अब जरा हालात पर नजर डालिए। हालिया वित्त आयोग ने राज्यों की हिस्सेदारी को 10 फीसदी बढ़ाकर 42 फीसदी कर दिया। यानी कुल कर राजस्व का 42 फीसदी हिस्सा राज्यों को जाएगा। परंतु ऐसा करके ज्यादा राजस्व नहीं जुटाया जा सकता क्योंकि अगर ऐसा होता तो केंद्र अपने कर्मचारियों का वेतन चुकाने के लिए इतनी जद्दोजहद नहीं कर रहा होता। अब ऐसा लग रहा है कि केंद्र 33 फीसदी पर वापस जाना चाहता है। (इसके परिणामस्वरूप यह आयोग के समक्ष याचक की भूमिका में है जो कि बिल्कुल अच्छी बात नहीं है)।
चाहे जो भी हो, कोई नहीं कह सकता कि उचित प्रतिशत क्या होगा-30, 35, 38 या 42? राजकोषीय घाटे के तीन फीसदी के वांछित स्तर की तरह यह भी एक मनमर्जी से तय किया गया आंकड़ा है। और तमाम मनमानी चीजों की तरह यह भी बेतुका है। यह सही है कि ऐसा आधा अधूरा रुख ही बीती चौथाई सदी के दौरान वित्तीय अंतरण के स्तर के साथ बार-बार छेड़छाड़ का कारण है।
बीते चार वित्त आयोगों ने जिस तरह की तोड़-मरोड़ की है उसकी निरर्थकता को देखकर आप स्तब्ध रह जाएंगे।
ऐसे में मेरा सीधा सुझाव है कि राज्यों को यह तय करने दिया जाए कि उन्हें कितनी आवश्यकता है और वे कितना राजस्व जुटा सकते हैं। मैं शर्त लगाने को तैयार हूं कि राज्य यथाशीघ्र कृषि से होने वाली आय पर कर लगा देंगे।
आपत्तियां
राज्यों के आय कर लगाने पर दो प्रमुख आपत्तियां हैं। एक का संबंध गरीब राज्यों से तो दूसरे का प्रशासनिक क्षमताओं से है। गरीब राज्यों का मुद्दा उन राज्यों के प्रति केंद्र की जवाबदेही से संबंधित है जो अपने लिए राशि नहीं जुटा सकते। प्रशासनिक क्षमता संबंधी दलील का संबंध राज्यों की कर संग्रह की क्षमता से है फिर चाहे वे कमजोर हों या मजबूत।
दोनों दलीलें मजबूत हैं लेकिन इसी के चलते हमें बहस को नए सिरे से शुरू करने की जरूरत है क्योंकि अगर इस दलील को स्वीकार किया जाता तो शायद हम कभी अंतरिक्ष कार्यक्रम या नाभिकीय कार्यक्रम शुरू नहीं कर पाते। पहले लक्ष्य तय करना होता है और उसके पश्चात क्षमता निर्माण करना होता है।
ऐसे में हमारे समक्ष केवल एक ही बड़ी आर्थिक आपत्ति रह जाती है: वह यह कि आर्थिक रूप से कमजोर राज्यों का प्रदर्शन कैसा रहेगा? यही एक समस्या है जिसे हल करना आवश्यक है। बाकी तमाम बातें ऐसी हैं जिन पर बहस की जा सकती है।
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