सरकार के लक्ष्य और सीएसआर दायित्व के बीच बढ़ता तालमेल | जिंदगीनामा | | कनिका दत्ता / October 08, 2019 | | | | |
देश के कॉर्पोरेट जगत में इस खबर से फैली बेचैनी साफ महसूस की जा सकती थी कि केंद्र सरकार एकल उपयोग प्लास्टिक (एसयूपी) से बने छह उत्पादों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की योजना से हाथ पीछे खींच रही है। भारतीय कंपनी जगत के सामाजिक दायित्व (सीएसआर) एजेंडे में प्लास्टिक पाबंदी चिंता की एक बड़ी वजह बनकर उभरी है। भारतीय कंपनियों में भले ही नवाचार, रणनीतिक विचारों या कामकाजी मानदंडों की कमी है लेकिन सीएसआर के मोर्चे पर वे बिना किसी चूक के एकदम मुस्तैद रही हैं। शायद इंडिया इंक के डीएनए में ही यह खासियत समाहित हो चुकी है कि वे रायसीना हिल्स से मिलने वाले संकेतों को समझने की कला में पारंगत हो चुके हैं।
गांधी जयंती पर एसयूपी से बने कप, प्लेट, बोतल, स्ट्रॉ, झोले एवं सैशे पर पाबंदी लगाने संबंधी नरेंद्र मोदी की घोषणा को व्यापक समर्थन मिला है। हवाईअड्डों और अन्य सार्वजनिक स्थानों ने अपने परिसरों को एसयूपी-रहित क्षेत्र घोषित करने में काफी तेजी दिखाई और बड़े विनिर्माताओं ने भी प्लास्टिक के पुनर्चक्रण संबंधी प्रयासों को मीडिया में लाने की पूरी कोशिश की। यह बड़ी तेजी से खतरनाक स्थिति में पहुंचती जा रही समस्या के बारे में तारीफ करने लायक है। एसयूपी का उपयोग नहीं करने वाले सीएसआर कार्यक्रम आगे भी जारी रहेंगे। पूर्ण प्रतिबंध लगाने से परहेज करने की वजह यह है कि इससे एसयूपी आधारित उत्पादों के उत्पादन से जुड़े छोटे कारखानों में काम करने वाले लाखों कामगारों के बेरोजगार होने का खतरा पैदा हो जाता। अब केंद्र सरकार ने कहा है कि वह एसयूपी के इस्तेमाल में कमी लाने की दिशा में काम करेगी और इस क्रम में प्लास्टिक विनिर्माण इकाइयों को चरणबद्ध तरीके से इस अभियान का हिस्सा बनाने के प्रयास किए जाएंगे। इस तरह एक बार उपयोग वाले प्लास्टिक उत्पादों पर रोक का लक्ष्य धीरे-धीरे हासिल करने की कोशिश की जाएगी।
इंडिया इंक किस हद तक एसयूपी-रहित उत्पादों के अभियान में भागीदार बनता है, यह इससे तय होगा कि मोदी सरकार इस मसले पर कितना जोर देती है? सीएसआर कार्यक्रमों एवं प्रधानमंत्री की पसंदीदा योजनाओं के बीच करीबी रिश्ता उसी समय से एक पैटर्न बन चुका है जब पूर्ववर्ती संप्रग सरकार ने सीएसआर संबंधी कानून पारित कराया था। एनजीओबॉक्स की तरफ से हर साल जारी होने वाली इंडिया सीएसआर आउटलुक की नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक 368 बड़ी कंपनियों के सीएसआर मद में किए गए व्यय का करीब तीन-चौथाई हिस्सा शिक्षा एवं कौशल विकास के अलावा पानी, स्वच्छता एवं साफ-सफाई संबंधी कार्यक्रमों में लगा था। एक साथ जोड़कर देखें तो यह कुल सीएसआर व्यय का करीब 61 फीसदी हिस्सा बनता है। गत चार वित्त वर्षों से यही सिलसिला चल रहा है।
संप्रग सरकार शिक्षा का अधिकार कानून लेकर आई थी और उससे प्रेरित होकर कंपनियों ने अपने सीएसआर व्यय के केंद्र में प्राथमिक शिक्षा को रखा था। कई कंपनियों ने खासकर लड़कियों को स्कूली शिक्षा देने पर ध्यान केंद्रित किया था जो तब खासे चलन में रहे 'महिला सशक्तीकरण' की अवधारणा से मेल खाता था। वहीं मोदी सरकार के समय शुरू हुए 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' और 'स्किल इंडिया' अभियान भी कंपनियों को इन कार्यक्रमों से जुडऩे का अवसर देते रहे हैं। स्वच्छता गतिविधियों को बढ़ावा देने वाले सीएसआर कार्यक्रम मोदी के स्वच्छ भारत अभियान को गति देने में मददगार रहे हैं। मोदी सरकार का यह अभियान पूर्ववर्ती सरकार के समय चल रही भारत निर्माण शौचालय परियोजना को ही नए तरीके से बनाया हुआ रूप है। सरकार ने इसे पूरी शिद्दत से लागू कर खुले में शौच से पूरी तरह आजादी न सही, कम-से-कम काफी हद तक कमी लाने की कोशिश जरूर की है।
अगर कंपनियां अपने सीएसआर मद का इस्तेमाल शिक्षा, स्वच्छता एवं संबंधित गतिविधियों पर कर रही हैं तो इसमें नापसंद करने वाली कौन सी बात है? अगर इन परियोजनाओं को अलग-अलग रखकर देखें तो कोई भी कारण नहीं दिखता है। लेकिन इन कार्यक्रमों पर किए गए व्यय का पैटर्न देखने से पता चलता है कि ये कार्यक्रम कंपनी अधिनियम में 2014 में किए गए संशोधन के असली मकसद से मेल नहीं खाते हैं। संप्रग सरकार ने सोचा था कि कंपनियों के मुनाफे का एक हिस्सा सीएसआर व्यय के लिए अनिवार्य करने से मध्य एवं पूर्वी भारत के पिछड़े इलाकों में बड़ी औद्योगिक परियोजनाओं से प्रभावित होने वाले लोगों को अपर्याप्त मुआवजा देने को लेकर हो रही आलोचना कम करने में मदद मिलेगी। लेकिन सीएसआर व्यय पर करीबी निगाह डालने से पता चलता है कि इसका बड़ा हिस्सा अपेक्षाकृत बेहतर विकसित पश्चिमी क्षेत्रों की तरफ ही लगा है। इसकी वजह यह है कि इस इलाके में ही कंपनियों का परिचालन अधिक होता रहा है।
सामाजिक विकास पर ध्यान देने के लिए कंपनियों को प्रोत्साहित कर संप्रग सरकार ने अपनी छवि को बड़ी कुशलता से सूट-बूट की सरकार के दंश से बचाकर रखा जबकि मोदी सरकार के पहले कार्यकाल पर लगातार इसके आरोप लगते रहे। शायद इसी वजह से राजग सरकार ने शुरुआती दौर में कंपनियों पर सीएसआर मद में व्यय नहीं करने को आपराधिक कृत्य करार देने की पहल कर दी थी। बहरहाल अब राजग सरकार ने समझदारी दिखाते हुए इसे अपराध की श्रेणी से बाहर रखने की घोषणा कर दी है लेकिन कंपनी जगत ने इसके पीछे छिपे संकेतों को समझ लिया है। इस साल बड़ी कंपनियों ने अपने निर्धारित सीएसआर व्यय से 63 फीसदी खर्च कर दिया है। अगले साल कॉर्पोरेट इंडिया अपनी सीएसआर जवाबदेही पर खरा उतरने में खुद को ही पीछे छोड़ सकता है। यह अलग सवाल है कि क्या इस तरह वाकई में भारत का चेहरा बदल पाएगा?
|