औषधि मूल्य नियंत्रण | संपादकीय / October 01, 2019 | | | | |
इस समाचार पत्र में प्रकाशित खबर के मुताबिक एक विशेषज्ञ समिति औषधि मूल्य नियामक से यह अनुशंसा करने वाली है कि उसे बिना ब्रांड वाली जेनेरिक औषधियों को दायरे में लेते हुए एंटीबायोटिक औषधियों की कीमतों पर लगी सीमा को तार्किक बनाना चाहिए। फिलहाल ब्रांडेड एंटीबायोटिक औषधियां मसलन ऑगमेंटिन आदि पर स्टॉकिस्ट के लिए मार्जिन की सीमा 8 फीसदी और खुदरा कारोबारियों के लिए 16 फीसदी है। जबकि इस औषधि का थोक मूल्य नियामक तय करता है। यदि राष्ट्रीय औषधि मूल्य नियंत्रण प्राधिकरण राजी हो जाता है तो जेनेरिक एंटीबायोटिक के लिए भी समान नियमन जारी किए जाएंगे। अटकलें हैं कि सबसे अधिक प्रभाव अस्पतालों के मार्जिन पर पड़ेगा। परंतु यह अवसर एंटीबायोटिक औषधियों के मूल्य पर लगी सीमा की दिक्कत को सार्वजनिक करने वाला अवसर भी है। उपभोक्ता कल्याण का काम करने के बजाय वह उसे ही नुकसान पहुंचाने का काम करती है।
कीमतों पर किसी भी तरह की सीमा आरोपित करने का असर आपूर्ति पर पड़ता है। एंटीबायोटिक जैसी दवाओं की आपूर्ति प्रभावित होना कई तरह से नुकसानदेह है। पहली बात, मूल्य नियंत्रण के अधीन खरीदी गई औषधि की कमी आम हो सकती है। यदि कीमतों में ज्यादा कटौती हुई तो दवाओं की राशनिंग हो सकती है। संसाधनों का स्थानांतरण अधिक मुनाफे वाली दवाओं के उत्पादन में हो सकता है जिनकी कीमत पर सीमा न लगी हो। कई कंपनियां चुनिंदा दवाओं को बनाना बंद कर सकती हैं। अन्य कंपनियां चिकित्सकों या अस्पतालों से मिलकर वे दवाएं लिखवाना शुरू कर सकती हैं जो तय कीमत की सीमा से परे हों। ब्रांडेड और गैर ब्रांडेड जेनेरिक औषधियों के साथ ऐसा हो भी रहा है। दूसरी प्रतिक्रिया समस्या को और विकराल बना सकती है। आपूर्ति संबंधी प्रतिक्रिया का असर गुणवत्ता पर पड़ सकता है। औषधि निर्माता कटौती करेंगे और पर्याप्त नियामकीय निगरानी के वे खराब गुणवत्ता वाली औषधियां बना सकते हैं। चिकित्सकों के गलत पर्चे पहले ही समस्या बने हुए थे और मूल्य सीमा ने हालत और खराब कर दी है। इंडियन बिजनेस स्कूल के शोधकर्ताओं ने टाइप 2 डाइबिटीज के इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवा मेटफॉर्मिन पर मूल्य सीमा लागू करने के आपूर्ति एवं मांग पर पडऩे वाले असर का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि इसका असर स्पष्ट है। इस दवा की कीमत की सीमा तय किए जाने के बाद विभिन्न कंपनियां आपस में मिलीभगत कर मेटफॉर्मिन के बाजार पर कब्जा बरकरार रखने लगीं। अब तक ऐसा करने के लिए इनमें से किसी कंपनी के खिलाफ कदम नहीं उठाया गया है। बिना क्रियान्वयन की क्षमता के नियमन लागू करना सही नहीं है और इससे बचा जाना चाहिए।
कुल मिलाकर शोध और अध्ययन से यही साबित हुआ है कि देश में औषधि मूल्य नियंत्रण का असर नकारात्मक ही रहा है। वॉशिंगटन डीसी में वैश्विक विकास केंद्र की प्रोफेसर एम्मा डीन ने यह दिखाया है कि देश में मूल्य नियंत्रण का नतीजा ऐसी औषधियों की बिक्री में गिरावट के रूप में सामने आया है। यानी दवाएं कुछ मरीजों की पहुंच से दूर हो जाएंगी। प्रोफेसर डीन के मुताबिक यह विसंगति गरीब और ग्रामीण उपभोक्ताओं को नुकसान पहुंचा सकती है। दवाओं तक बेहतर पहुंच वाले अमीर उपभोक्ता दवाएं आसानी से खरीद सकते हैं। इससे गलत पर्चों की आशंका बढ़ती है। कुछ मरीज इनका दुरुपयोग कर सकते हैं। एंटीबायोटिक औषधियों के साथ ऐसे पर्चे खतरनाक हो सकते हैं क्योंकि बिना जरूरत के दवा लिखी जा सकती है। एंटीबायोटिक प्रतिरोध के मामले में हमारी हालत दुनिया में सबसे बुरी है। खराब दवाओं के कारण हमारे यहां जन स्वास्थ्य संकट में है। अब देश सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा की ओर बढ़ रहा है तो हमें दवाओं के मूल्य पर मनमाने नियंत्रण से बचना चाहिए।
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