शौचालय निर्माण पर मनाएं खुशियां पर सावधानी बरतनी भी जरूरी | जमीनी हकीकत | | सुनीता नारायण / September 23, 2019 | | | | |
निस्संदेह यह बड़ी बात है। गत चार वर्षों में भारत ने अपने छह लाख गांवों में करीब 10 करोड़ और शहरों में करीब 63 लाख शौचालय बनवाए हैं। कुछ साल पहले जो नामुमकिन लगता था अब वह पूरा हो चुका है और देश को खुले में शौच से मुक्त (ओडीएफ) घोषित किया जा चुका है। सरकारी अनुमानों के मुताबिक, वर्ष 2019 तक देश के 93 फीसदी से अधिक घरों में शौचालय मौजूद थे, 93 फीसदी से अधिक ग्रामीण लोग खुले में शौच नहीं जाते थे और शौचालय सुविधा से लैस करीब 96 फीसदी लोग इनका इस्तेमाल भी कर रहे थे। यह देश में शौचालयों के उपयोग को लेकर एक बड़ा व्यवहारगत परिवर्तन भी दर्शाता है। करीब 99 फीसदी शौचालयों का रखरखाव ठीक ढंग से हो रहा है, वे साफ-सुथरे हैं और शत-प्रतिशत शौचालय मल-मूत्र का 'सुरक्षित' निपटान कर रहे हैं। शौचालय बनने से किसी तरह का प्रदूषण नहीं फैला है और असल में, 95 फीसदी गांवों में पानी इक_ा नहीं होता है, कोई अपशिष्ट जल नहीं निकलता और नाममात्र की ही गंदगी होती है। ये आंकड़े आश्चर्यजनक हैं।
हमें इनके बारे में कैसे पता है? पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय ने दो निजी सलाह फर्मों- आईपीई ग्लोबल और कैंटार को देश भर में सर्वेक्षण का जिम्मा सौंपा था ताकि भविष्य में विश्व बैंक से धन हासिल करने के लिए इन आंकड़ों का इस्तेमाल किया जा सके। राष्ट्रीय वार्षिक ग्रामीण स्वच्छता सर्वेक्षण (एनएआरएसएस) का दूसरा चरण नवंबर 2018 से लेकर फरवरी 2019 के बीच चला था। इस दौरान जमीनी हालात को परखने के लिए 6135 गांवों और 92,411 परिवारों का जायजा लिया गया। वर्ष 2018-19 की आर्थिक समीक्षा में कहा गया कि सभी शौचालयों की जियो-टैगिंग की गई है ताकि उनकी पुष्टि की जा सके। सबसे अहम बात, शौचालय निर्माण कार्यक्रम के लाभ स्वास्थ्य संकेतकों में नजर आ रहे हैं। यह सर्वे विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ का हवाला देते हुए कहता है कि अधिक शौचालय उपलब्धता वाले जिलों में पांच साल से कम उम्र वाले बच्चों में डायरिया और मलेरिया के मामले नाटकीय रूप से कम हुए हैं। इसमें कोई किंतु-परंतु नहीं है, केवल एक और बात है। साक्ष्य कहते हैं कि देश एक नामुमकिन-सा लक्ष्य हासिल करने में सफल रहा है। असल में, भारत की यह उपलब्धि शौचालयों के विस्तार एवं मल-मूत्र के सुरक्षित निपटान संबंधी वैश्विक संवहनीय विकास लक्ष्यों को पूरा करने में एक अहम स्थान रखेगी। हालांकि इस कामयाबी को टिकाऊ बनाने की जरूरत है ताकि यह स्थायी बन सके। यहीं पर बड़ा जोखिम भी है। भले ही हम इस कामयाबी का जश्न मना रहे हैं लेकिन हमें शौचालय चुनौती को तिलांजलि नहीं देनी चाहिए। इसकी वजह यह है कि अभी काफी कुछ किए जाने की जरूरत है और अभी बहुत कुछ गलत होने की गुंजाइश भी है।
पहली बात यह है कि सभी कार्यक्रमों में एक समय के बाद गिरावट आती है। यह कार्यक्रम भी इससे जुदा नहीं होगा। लिहाजा अगर शौचालय बने हैं और लोग उनका इस्तेमाल शुरू कर चुके हैं तब भी यह रुझान बिना देरी के पलट सकता है। जब पाक्षिक पत्रिका 'डाउन टु अर्थ' के संवाददाताओं ने शौचालयों का हाल जानने के लिए देश के अलग-अलग हिस्सों का दौरा किया तो उन्हें कुछ अच्छी एवं बुरी बातें पता चलीं। अतीत में शौचालयों की भारी कमी से जूझने वाले उत्तर प्रदेश में परिवर्तन साफ नजर आ रहा था। शौचालयों की मौजूदगी दिखाई दी और खासकर महिलाएं न केवल उनका इस्तेमाल कर रही थीं बल्कि संख्या बढ़ाने की मांग रखी। लेकिन वर्ष 2017 में ही ओडीएफ घोषित किए जा चुके राज्य हरियाणा में लोग एक बार फिर से खुले में शौच की पुरानी आदत अपनाते नजर आए। यह इस लिहाज से भी अहम है कि हरियाणा को लोगों के शौच व्यवहार में बदलाव के लिए खास तौर पर चिह्नित किया गया था। लेकिन शौचालय अब टूटे-फूटे हैं, लोगों के इस्तेमाल लायक नहीं रहे या फिर लोग सदियों पुरानी आदत की तरफ लौटने लगे हैं।
दूसरा, मल-मूत्र के निपटान का मुद्दा है। एनएआरएसएस 2018-19 सर्वेक्षण में सुरक्षित निपटान की अपर्याप्त एवं दोषपूर्ण परिभाषा का उपयोग किया गया है। अगर शौचालय किसी सेप्टिक टैंक, एकल या दोहरे गड्ढों या किसी नाले से जुड़ा है तो उसे सुरक्षित कहा गया है। सच्चाई यह है कि यह केवल मल-मूत्र का फैलाव रोकने की व्यवस्था है, न कि उसका निपटान। अनुमान है कि ग्रामीण इलाकों में बने करीब 10 करोड़ शौचालयों का बड़ा हिस्सा एकल या दोहरे गड्ढों वाले संडास हैं। लोग एक गड्ढे में मल-मूत्र विसर्जन करते हैं और उसे खाली कर दोबारा इस्तेमाल में लाया जाता है। इस बारे में कोई जानकारी नहीं है कि संडास गड्ढों से यह अवशिष्ट कहां जाता है? पड़ोस के पोखर, तालाब, नाले या फिर खेतों में? यह भी कहा जा सकता है कि शौचालय अभी नए बने हैं लिहाजा शौचालय गड्ढों में इक_ा विष्ठा को ठिकाने लगाने की अभी कोई जरूरत ही नहीं आएगी। लेकिन आने वाले समय में तो ऐसा होगा। साफ है कि अगर इस मल-मूत्र का समुचित निपटान नहीं होता है तो यह लोगों की सेहत पर काफी भारी पड़ेगा। शौचालय न केवल गंदगी फैलने का जरिया बनेंगे बल्कि मिट्टी एवं पानी के दूषित होने से सेहत लाभ भी खत्म होते जाएंगे। तीसरा, शौचालय आकलन की विश्वसनीयता का सवाल भी है। सही रास्ते की जानकारी के लिए यह बेहद जरूरी है। फिलहाल शौचालयों की स्थिति के बारे में सारे अध्ययन परियोजना के धन प्रदाता या मंत्रालय की तरफ से ही कराए गए हैं। इन सर्वेक्षणों के परिणाम या शोध-पद्धति को लेकर संदेह करने की कोई वजह नहीं है। लेकिन यह भी सही है कि भारत में कभी भी कोई चीज इतनी सही या गलत नहीं हो सकती है। ऐसे में कई अन्य संस्थाओं की तरफ से और अलग नजरिये को लेकर इनका आकलन करने की जरूरत है। शौचालय के बारे में अच्छी खबर बताते समय भी हमें यह याद रखना चाहिए कि 'अगर हम सभी तालियां बजाने वाले बन जाएंगे तो फिर तालियां बजाने के लिए कोई टीम ही नहीं बचेगी'।
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