राजस्व के मोर्चे पर नया विश्लेषण | पार्थसारथि शोम / September 23, 2019 | | | | |
राजस्व क्षेत्र के नए आंकड़ों का विश्लेषण करने पर जो उछाल नजर आ रही है वह स्वागत योग्य है लेकिन इसके कारणों की समुचित पड़ताल भी उतनी ही आवश्यक है। विस्तार से बता रहे हैं पार्थसारथि शोम
राजस्व के मोर्चे पर ऐसे नए आंकड़े उपलब्ध हुए हैं जो राजस्व रुझानों के बारे में नई जानकारी प्रस्तुत करते हैं। ऐसे में उनका विश्लेषण किया जाना भी लाजिमी है। ये आयकर विभाग की टाइम सीरीज के 2000-01 से लेकर 2017-18 तक के आंकड़े हैं। सांख्यिकी से शुरुआत करें तो 2017-18 के आंकड़े प्रारंभिक हैं और 2016-17 के अनुमान वर्ष 2011-12 को आधार वर्ष मानकर दिए गए पहले संशोधित अनुमान हैं। वर्ष 2014-15 से जीडीपी का आधार वर्ष 2011-12 हुआ करता था। 2004-05 से 2013-14 तक 2004-05 ही जीडीपी शृंखला का आधार वर्ष था। इन सबको आपस में मिला दिया गया है। हालांकि उछाल का आकलन भले ही अधिक न हो लेकिन निरंतरता आवश्यक है।
उछाल या उत्प्लावकता, जीडीपी में प्रत्येक फीसदी की वृद्घि को लेकर कर राजस्व की प्रतिक्रिया है। स्पष्ट है कि 2015-16 से लेकर 2017-18 तक के आंकड़े 1.8 फीसदी की स्थिर उछाल दर्शाते हैं। इससे पहले 2004-05 और 2006-07 के बीच ऐसी स्थिर दर से उछाल दर्ज की गई थी। उस दौर में यह 1.5 से बढ़कर 2.4 हो गई थी। यह वह दौर था जब निजी क्षेत्र में जबरदस्त तेजी देखने को मिल रही थी। जाहिर है कर राजस्व में इस क्षेत्र का योगदान भी उसी तेजी से बढ़ रहा था। मौजूदा दौर के सांख्यिकीय आंकड़े निजी क्षेत्र में उस किस्म की तेजी नहीं दर्शा रहे हैं। फिलहाल निजी क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले तमाम उप क्षेत्र विभिन्न प्रकार की चुनौतियों से जूझ रहे हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि 1.8 की उच्च कर राजस्व उत्प्लावकता कहां से आई? आदर्श स्थिति में इसका उत्तर आयकरदाताओं की बढ़ती तादाद में मिलना चाहिए जो अपने आप में एक उपलब्धि होनी चाहिए। यह कर प्रशासन के कर वंचकों और कर दायरे के आसपास के लोगों को कर चुकता करने वालों की श्रेणी में लाने के लिए किए गए प्रयासों की बदौलत हो सकता है। दूसरी ओर, एक राजस्व लक्ष्य तय करके, अतिरिक्त राजस्व हासिल किया जा सकता है। इसका दबाव अच्छे और बुरे करदाताओं पर एक साथ पड़ता है लेकिन यह अधिकारियों पर भी इस बात का दबाव बना सकता है कि अर्थव्यवस्था की स्थिति चाहे जैसी हो, वे कर संग्रह के प्रयास में लगे रहें।
नीति निर्माताओं के सामने यह चुनौती है कि वे करदाताओं के आधार का विस्तार करें और इसके साथ ही करदाताओं और कर अधिकारियों पर से अनावश्यक दबाव को भी कम करे। उन्नत कर प्रशासन ने राजस्व लक्ष्य को राजस्व निगरानी व्यवस्था से प्रतिस्थापित कर दिया है जो मौजूदा कारोबारी चक्र से जुड़ा हुआ है। भारतीय उद्योग जगत को पटरी पर वापस लाने के लिए ऐसे रुख की आवश्यकता है। दिक्कत में चल रहे क्षेत्रों को कर प्रोत्साहन देने के रूप में कर दरों में कमी करने और कर दबाव कम करने की बात करें तो कर संबंधी दबाव कम करना अर्थव्यवस्था को वापस वृद्घि दर पर लाने में कहीं अधिक मददगार साबित हो सकता है। इसे हासिल करना आसान नहीं है लेकिन जिन देशों में इसका क्रियान्वयन किया गया, वहां यह नीति सही साबित हुई है। नीति निर्माताओं को जमीनी स्तर पर कर प्रशासन की गतिविधियों पर अधिक से अधिक नजर रखने की आवश्यकता है। अगर ऐसा किया जाता है तो कर उत्प्लावन 1.8 से ऊपर के स्तर पर जा सकती है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो यह वृद्घि अस्थायी होगी और इसका बहुत अधिक प्रभाव देखने को नहीं मिलेगा। दूसरा परिदृश्य उस रुझान का है जहां प्रत्यक्ष कर में तेजी से इजाफा हो रहा है और वर्ष 2007-08 से वह कुल राजस्व हिस्सेदारी में अप्रत्यक्ष कर से आगे निकल गया। परंतु 2009-10 में उच्चतम अंतर के स्तर पर पहुंचने के बाद इस अंतर में 2015-16 तक कमी आई। वर्ष 2016-17 में अप्रत्यक्ष कर की हिस्सेदारी एक बार फिर बढ़ी और वह प्रत्यक्ष कर से अधिक हो गई। कुल कर राजस्व में अप्रत्यक्ष कर की हिस्सेदारी 50.3 फीसदी हो गई। परंतु वर्ष 2017-18 में प्रत्यक्ष कर फिर अप्रत्यक्ष कर से आगे निकल गया और कर राजस्व में उसकी हिस्सेदारी बढ़कर 52.3 फीसदी हो गई। अप्रत्यक्ष कर के प्रत्यक्ष कर से अधिक होने की अंतरिम अवधि में सीमा शुल्क और घरेलू उत्पाद शुल्क की वापसी नजर आई। मौजूदा वैश्विक कराधान परिदृश्य में जहां अमेरिका कारोबारी साझेदारों के समक्ष गतिरोध खड़े कर रहा है वहीं, भारत को भी अपनी शुल्क व्यवस्था की जांच करने की आवश्यकता है।
सवाल यह उठता है कि वर्ष 2017-18 में प्रत्यक्ष कर, अप्रत्यक्ष कर से आगे निकल गया तो क्या यह केवल करदाताओं की संख्या में बढ़ोतरी की वजह से हुआ? इसमें दो राय नहीं कि करदाताओं की तादाद में बढ़ोतरी हुई है लेकिन कहीं यह कर जुटाने संबंधी दबाव बढऩे के कारण तो नहीं हुआ। या फिर यह जीएसटी की उच्च इनपुट कर क्रेडिट के कारण राजस्व को हुई हानि के कारण परिलक्षित हो रहा है क्योंकि निर्यात क्षेत्र में भारी भरकम रिफंड आया है। जीएसटी दरों में बार-बार बदलाव भी इसका कारण हो सकता है। कई क्षेत्रों की ढांचागत जरूरतों की दृष्टि से दरों में यह बदलाव आवश्यक हो सकता है। परंतु एक नीतिगत चुनौती अभी भी बरकरार है। वह यह कि जिन क्षेत्रों में इनपुट टैक्स क्रेडिट बहुत अधिक न हो वहां दरों में बदलाव न किया जाए।
चाहे जो भी हो परंतु कर दरों में कटौती के पश्चात आपूर्तिकर्ताओं पर यह साबित करने का बोझ रहता है कि संबद्घ लाभ को उपभोक्ताओं तक न पहुंचने देकर उन्होंने खुद को रिफंड मिलने से पहले अवांछित रूप से लाभ नहीं पहुंचाया है। यह बोझ समाप्त होना चाहिए। अवांछित समृद्घि की अनुपस्थिति को साबित कर पाना कठिन काम है। इससे कानूनी मामला बने न बने, जीएसटी लाभ को नुकसान पहुंचने की शिकायतों का आधार तो बनता है। इसके अतिरिक्त अगर निर्यात रिफंड बढ़ता है तो जब तक वह वैध है, उसे तत्काल मंजूरी दी जानी चाहिए, बजाय राजस्व संरक्षण की आवश्यकता पर जोर देने के। ऐसे में सरकार का यह प्रभावी निर्देश आश्वस्त करने वाला है कि रिफंड की प्रक्रिया तेज होनी चाहिए। जमीनी स्तर के सुधारों की निगरानी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर दोनों में होनी चाहिए।
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