मोदी के सामने सबसे बड़ी चुनौती अर्थव्यवस्था की | राष्ट्र की बात | | शेखर गुप्ता / September 22, 2019 | | | | |
बीते तमाम वर्षों के दौरान मैं ऐसे कई देशों की यात्राएं करता रहा हूं और खबरें लिखता रहा हूं जहां के नागरिकों को अपने शासकों के खिलाफ बोलने की उतनी आजादी नहीं है जितनी एक लोकतांत्रिक देश में होनी चाहिए। इस बात ने मुझे एक अहम सबक सिखाया: कठिन समय में लोगों में हास्यबोध और विडंबना का आभास बढ़ जाता है। शायद हिचक और डर उनकी रचनात्मकता बढ़ा देते हैं। सोवियत संघ के दौर में सबसे अच्छे चुटकुले मॉस्को की सड़कों और दुकानों पर सुनने को मिलते थे, भले ही कानाफूसी के रूप में। जो कल कानाफूसी थी वह आज, व्हाट्सऐप फॉरवर्ड है। चूंकि किसी को पता नहीं होता कि चुटकुला सबसे पहले किसने बनाया, इसलिए गुमनाम बने रहने में भलाई है। इन दिनों आ रहे चुटकुले अर्थव्यवस्था पर केंद्रित हैं। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 1.45 लाख करोड़ रुपये मूल्य की कर राहत जरूर दी है लेकिन उनके बजट की हकीकत सामने आती जा रही है।
मुझे मोदी सरकार और उसकी खस्ता आर्थिकी पर जो चुटकुले और मीम प्राप्त हुए (जो शायद आपको भी मिले होंगे) उनमें से एक महाराजा और उनके प्रिय हाथी के बारे में था। हुआ यह कि हाथी बुरी तरह बीमार पड़ गया। महाराजा बहुत दुखी हुए और उन्होंने घोषणा कर दी कि जो कोई उन्हें हाथी के निधन की सूचना देगा, उसका सर धड़ से अलग कर दिया जाएगा। हाथी की मृत्यु हो गई लेकिन किसी में यह साहस नहीं था कि महाराजा को बताए। आखिरकार, महावत ने साहस जुटाया और कांपता हुआ महाराजा से बोला कि हाथी न खा रहा है, न उठ रहा है, न सांस ले रहा है और न ही कोई हरकत कर रहा है।
महाराज ने पूछा, 'तुम कहना चाहते हो कि मेरा हाथी मर गया?'
दहशतजदा महावत ने कहा, 'महाराज यह तो आप कह रहे हैं।'
चुटकुला इस ओर इशारा करता है कि हमारी अर्थव्यवस्था वही हाथी है। तमाम मंत्री अपनी-अपनी तरह से यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि हाथी मर चुका है लेकिन कोई इसकी स्पष्ट घोषणा नहीं करना चाहता। मार्क ट्वेन के शब्द उधार लें तो भारतीय अर्थव्यवस्था के निधन की खबरें बढ़ाचढ़ाकर पेश की गई हैं लेकिन यह गहन रूप से बीमार तो है ही। बाजार अपनी तरह से प्रतिक्रिया दे रहा है। जून से करीब 1.1 लाख करोड़ रुपये मूल्य की संपत्ति बाजार से बाहर जा चुकी है। सरकार ने सरकारी बैंकों को नई पूंजी की जो पहली किस्त दी थी उसका भी सफाया होता दिखता है। इकलौती अच्छी खबर मुद्रास्फीति के मोर्चे पर है लेकिन अब वह इतनी कम है कि हालत डांवाडोल नजर आ रही है। सरकार की प्रतिक्रिया को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है: पहली, यह सब अफवाह है और मोदी विरोधियों द्वारा फैलाई गई है। दूसरी प्रतिक्रिया यह है कि वित्त मंत्री एक और संवाददाता सम्मेलन करके कुछ अन्य घोषणाएं करें। पिछली बार उन्होंने बिना कोई योजना बनाए बड़ी कर रियायत घोषित की। बाजार कुछ दिन इसका जश्न मनाएंगे लेकिन जब तक सरकार अपने खर्च में कटौती करने का साहस नहीं दिखाती, तब तक यह धनराशि या तो अधिक नकदी छापकर आएगी या गरीबों पर अप्रत्यक्ष कर लगाकर। इससे संकट और बिगड़ेगा।
तीसरी और सबसे महत्त्वपूर्ण बात इस सोच से निकली है कि मोदी पहले पिछले 70 सालों की बड़ी चुनौतियों से निपट रहे हैं। इसकी शुरुआत समान आचार संहिता, तीन तलाक को आपराधिक ठहराने और अनुच्छेद 370 हटाने से हुई और नवंबर तक राम मंदिर का निर्माण शुरू होगा। तर्क यह है कि इन कठिन लेकिन जरूरी काम पूरा करने के बाद मोदी अर्थव्यवस्था को अपने हाथ में लेंगे और आप जानते हैं कि जब वह ऐसा करते हैं कुछ भी संभव है। यहां तक कि 2024 तक 5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था तैयार करना भी। मैं यही आशा और प्रार्थना कर सकता हूं कि यह सब सही साबित हो। एक अन्य नजरिया यह है कि शायद निकट भविष्य में अर्थव्यवस्था की हालत में नाटकीय सुधार न आए। परंतु जैसा कि हमने गत वर्ष मई में इसी स्तंभ में कहा था, चूंकि मोदी को अपार लोकप्रियता हासिल है तो वे इससे भी पार पा लेंगे। उनके लिए उनके मतदाता त्याग करेंगे।
इस बात को हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने इसी महीने चंडीगढ़ में मुझसे और मेरे सहयोगी चितलीन सेठी के साथ बातचीत में स्पष्ट कहा। उन्होंने कहा कि जब भी राष्ट्रवाद का उभार होता है तो जनता प्रसन्नतापूर्वक आर्थिक बलिदान देती है। उन्होंने कहा कि जब राष्ट्रवाद इतना मजबूत हो तो कोई झटका भी एकजुट करने वाला कारक बन जाता है। उदाहरण: कैसे पूरा देश चंद्रयान-विक्रम की लैंडिंग देखने के लिए 2 बजे रात तक जागता रहा और लैंडिंग नाकाम रहने पर भी सब एकजुट नजर आए। तात्पर्य यह कि ऐसी घटनाएं और सुर्खियां लोगों को और मोदी की लोकप्रियता को ऊपर बनाए रखेंगी, भले ही अर्थव्यवस्था जूझ रही हो। मोदी के इस निरंतर उभार ने पारंपरिक राजनीतिक चिंतन को ध्वस्त कर दिया है। देश ने नोटबंदी जैसी गलती के लिए भी उन्हें माफ कर दिया। रोजगार की हालत खस्ता है लेकिन इसका असर चुनावों में उनके प्रदर्शन पर नहीं पड़ा। चुनाव के दौरान किए भ्रमण में अनेक लोग मिले जो गरीब थे और कष्ट सह रहे थे लेकिन उनके लिए यह देशहित में किया गया छोटा सा त्याग था।
बहुत संभव है कि ऐसे लोगों का स्नेह मोदी पर बरकरार रहे। सुर्खियों का प्रबंधन, समझदारी से तैयार की गई नई योजनाएं मसलन नल से जल और आयुष्मान भारत आदि के साथ उनकी पहले से सफल एलपीजी, शौचालय, ग्रामीण आवास और मुद्रा ऋण जैसी योजनाएं मददगार साबित होंगी। परंतु एक उलझाऊ बात है। अपने पहले कार्यकाल में धीमी वृद्धि दर के बावजूद वह इन योजनाओं को धन देने में सफल रहे। साढ़े चार वर्ष में मिले 11 लाख करोड़ रुपये के अतिरिक्त उत्पाद शुल्क ने इसमें मदद की। अब बिना वृद्धि के अतिरिक्त राशि का प्रबंध मुश्किल होगा। यदि कच्चा तेल महंगा होता है तो यह राजनीतिक अर्थव्यवस्था चौपट हो जाएगी।
दक्षिणपंथी समाजवाद या सामाजिक लोकलुभावनवाद अब दुनिया पर काबिज है। आप कर लगाते, व्यय करते, वितरण करते हुए जीतते रह सकते हैं। यदि वृद्धि ढह जाती है या जैसा कि टीएन नाइनन ने कुछ दिन पहले इसी अखबार में चेतावनी दी थी, सन 1980 के स्तर पर रुक भी जाती है तो किस पर कर लगाया जाएगा? बजट ने पूंजीगत लाभ कर पर कर लगाया और सूचीबद्ध कंपनियों की शेयर पुनर्खरीद पर भी। इससे पहले यदि किसी नेता को ऐसी लोकप्रियता मिली थी तो वह थीं इंदिरा गांधी। सन 1972 में बांग्लादेश की आजादी के बाद वह लोकप्रियता के चरम पर थीं। वह कोई गलती नहीं कर सकती थीं। उन्होंने वाम रुझान लेते हुए कई बड़ी आर्थिक गलतियां कीं। ये सारी योजनाएं उस वक्त गरीबों में लोकप्रिय हुईं और अमीरों को नुकसान भी पहुंचाया। शायद इस दलील ने वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के बजट को भी प्रभावित किया है क्योंकि प्रभावी कर 42.7 फीसदी हो चुका है। हर कोई जानता है कि इससे थोड़ा अधिक राजस्व हासिल होगा। कर संग्रह में कमी आ रही है लेकिन अमीर नाराज हैं और शिकायत कर रहे हैं। ऐसे में गरीबों को खुश होना चाहिए। जो बात सन 1969-73 में इंदिरा के लिए कारगर रही वह इस बार भी सही साबित होनी चाहिए।
याद रहे कि सन 1969-73 में सब सही करने वाली इंदिरा सन 1974 के मध्य तक सब गलत करने लगीं। उनके राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयकरण ने अर्थव्यवस्था को बरबाद कर दिया। सोवियत संघ से प्रभावित सलाहकारों की बात सुनकर अनाज कारोबार का राष्ट्रीयकरण कर उन्होंने भारी चूक की। ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरमरा गई और इस कदम को वापस लेना पड़ा। इसकी तुलना मोदी सरकार के 1.45 लाख करोड़ रुपये के कॉर्पोरेट कर को बट्टे खाते में डालने से करें तो यह हड़बड़ाहट दिखाता है। इंदिरा गांधी का जबरदस्त पराभव हुआ। अरब-इजरायल के बीच योम किप्पूर की जंग, उसके बाद ओपेक का शुरू होना और तेल कीमतों को झटका भी उनके लिए गलत समय पर आया। सन 1974 के मध्य तक वह हारी लड़ाई लड़ रही थीं। पोकरण-1 या सिक्किम का विलय भी आत्मत्यागी राष्ट्रवाद को जगा न सका। उस वक्त बेरोजगारी हद से अधिक बढ़ चुकी थी और मुद्रास्फीति की दर 30 फीसदी का स्तर पार कर चुकी थी। मोदी जैसा नेता शायद सदियों में एक बार होता है, वह इतिहास को भी बदल देंगे या फिर जैसा उनके वफादार कहते हैं वह अर्थव्यवस्था की कमान अपने हाथ में लेकर चमत्कार कर देंगे। हम आशा करते हैं कि यह दूसरी वाली बात हकीकत निकले।
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