रक्षा मंत्रालय के पास नहीं हैं अधिक विकल्प | दोधारी तलवार | | अजय शुक्ला / September 18, 2019 | | | | |
रक्षा मंत्रालय के खरीद के तथाकथित रणनीतिक साझेदार (एसपी) मॉडल में पिछले सप्ताह कई गंभीर खामियां सामने आईं जब पांच भारतीय कंपनियों ने प्रोजेक्ट 75-आई में एसपी बनने के लिए प्रस्ताव सौंपे। इस परियोजना के तहत 45,000 करोड़ रुपये की अनुमानित लागत से छह परंपरागत पनडुब्बियां बनाई जानी है। निजी क्षेत्र की दो कंपनियों लार्सन ऐंड टुब्रो और रिलायंस नेवल ऐंड इंजीनियरिंग के अलावा सार्वजनिक क्षेत्र की मझगांव डॉक मुंबई और हिंदुस्तान शिपयार्ड विशाखापत्तनम (एचएसएल) ने भी प्रस्ताव सौंपा था। एचएसएल और अदाणी डिफेंस की विशेष कंपनी (एसपीवी) ने भी इसमें दिलचस्पी दिखाई जबकि एसपीवी को इसमें बोली के लिए आमंत्रित नहीं किया गया था। इस तरह एचएसएल ने दो प्रस्ताव सौंपे, जो एकदूसरे के साथ होड़ में थे। कई मायनों में इसमें एसपी खरीद के पुराने मामले की ही पुनरावृत्ति देखने को मिली। 21,738 करोड़ रुपये की लागत से नौसेना के लिए 111 यूटिलिटी हेलीकॉप्टर बनाने के वास्ते मई में प्रस्ताव मांगे गए थे। इसमें एलऐंडटी, टाटा एडवांस्ड सिस्टम्स, अदाणी डिफेंस, महिंद्रा डिफेंस, रिलायंस डिफेंस और कल्याणी ग्रुप ने दिलचस्पी दिखाई। हालांकि रक्षा मंत्रालय ने केवल निजी क्षेत्र से बोली मंगाई थी, लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स ने भी दो प्रस्ताव सौंपे। इनमें से एक उसने अपनी तरफ से सौंपा था जबकि दूसरा रशियन हेलीकॉप्टर्स के साथ उसके संयुक्त उपक्रम इंडो रशियन हेलीकॉप्टर्स लि. तरफ से था।
ओईएम के लिए प्रस्ताव सौंपने की अंतिम तिथि 24 सितंबर है। रक्षा मंत्रालय एसपी और ओईएम प्रस्तावों की जांच करने के बाद इनकी छंटाई करेगा। इसके बाद छांटे गए एसपी मंजूर किए गए ओईएम के साथ मिलकर औपचारिक प्रस्ताव सौंपेंगे। रक्षा मंत्रालय एसपी-ओईएम की उस जोड़ी को ठेका देगा जो सबसे कम लागत में पनडुब्बी बनाएगी, स्वदेशी का ज्यादा का ज्यादा इस्तेमाल करेगी और अधिकांश प्रौद्योगिकी हस्तांतरण करेगी। इसके पीछे मकसद नौसेना को विदेशी मदद के बिना पूरी तरह स्वदेश में 12 पनडुब्बियां बनाने के लिए तैयार करना है। उस ओईएम को प्रोत्साहन दिया जाएगा जो न्यूनतम अनिवार्य स्तर पर अधिक से अधिक स्वदेशी साजोसामान का इस्तेमाल करेगी। पहली पनडुब्बी में यह स्तर 45 फीसदी होगा जबकि छठी पनडुब्बी में बढ़कर 60 फीसदी हो जाएगा। हालांकि इस सफर में रक्षा मंत्रालय कहीं न कहीं अपने लक्ष्य से भटक गया है। यह लक्ष्य निजी क्षेत्र की रक्षा कंपनियों को रक्षा क्षेत्र की नौ सार्वजनिक कंपनियों (डीपीएसयू) और ऑर्डनेंस फैक्टरी बोर्ड (ओएफबी) की 41 कंपनियों के साथ मुकाबले के लिए तैयार करने का था। 2001 तक रक्षा उत्पादन में इन्हीं का दबदबा था। 2005-06 में केलकर समिति ने इसमें निजी कंपनियों को बढ़ावा देने का सुझाव दिया। लेकिन ओएफसी और डीपीएसयू के श्रम संगठनों ने इसका विरोध किया। उन्हें आशंका थी कि उनका रोजगार छिन जाएगा। रक्षा मंत्रालय के कई अधिकारियों ने भी निजी कंपनियों से प्रतिस्पद्र्घा का विरोध किया। दूरसंचार स्पेक्ट्रम और कोयला खदानों के आवंटन में भ्रष्टाचार के आरोप लगने के बाद अधिकारी रक्षा साजोसामान के उत्पादन के लिए निजी कंपनियों के चयन से कतरा रहे थे। एके एंटनी के कार्यकाल में रक्षा में निजी क्षेत्र को शामिल करने की योजना ठंडे बस्ते में डाल दी गई।
वर्ष 2015 में तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर रक्षा उत्पादन में निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए इसी तरह का प्रस्ताव लेकर आए। पर्रिकर ने धीरेंद्र सिंह समिति और वीके अत्रे टास्क फोर्स का गठन किया। दोनों समितियों ने एसपी के चयन के लिए सख्त तौर-तरीकों का सुझाव दिया। लेकिन अधिकारियों और श्रम संगठनों के विरोध के कारण पर्रिकर भी इस योजना को आगे नहीं बढ़ा पाए। मार्च 2017 में उनकी जगह अरुण जेटली रक्षा मंत्री बने और कुछ ही हफ्ते में उन्होंने एसपी नीति की घोषणा कर दी। यह अपने मूल उद्देश्य से पूरी तरह अलग थी। जेटली ने ओएफबी और डीपीएसयू को भी एसपी में हिस्सा लेने की अनुमति दे दी। उन्होंने एसपी बनने के लिए जरूरी विशेष दक्षता को भी शिथिल कर दिया।
इस तरह निजी कंपनियों को गैर-बराबरी वाली शर्तों पर सार्वजनिक कंपनियों से होड़ करनी होगी। जिस तरह प्रोजेक्ट 75-आई परियोजना को आगे बढ़ाया जा रहा है, उस पर कई तरह की आपत्तियां जताई जा रही हैं। खासकर अदाणी डिफेंस के इसमें शामिल होने पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। कंपनी के पास न तो कोई शिपयार्ड है और न ही उसे जहाज बनाने का कोई अनुभव है। कंपनी की भागीदारी का आधार यह है कि उसकी मूल कंपनी अदाणी ग्रुप के पास बिजली संयंत्र है। पनडुब्बी बनाने के लिए शुष्क गोदी और आउटफिटिंग बर्थ सहित कई शर्तें हैं जिन्हें पूरा करने के लिए अदाणी डिफेंस एचएसएल के साथ एसपीवी पर निर्भर हैं। लेकिन नियमों के मुताबिक प्रस्ताव सौंपने की तिथि पर बोली लगाने वाली कंपनी का अस्तित्व होना चाहिए। अदाणी-एचएसएल को इसमें मुश्किल हो सकती है। एचएसएल अकेले बोली नहीं लगा सकती है, क्योंकि वह न तो प्रस्ताव की वित्तीय शर्तों को पूरा करती है और न ही उसने पिछले पांच साल में 300 करोड़ रुपये का कोई प्लेटफॉर्म सौंपा है। राफेल विवाद और रिलायंस नेवल की वित्तीय समस्याओं के बावजूद रिलायंस ग्रुप भी इस परियोजना को हासिल करने के लिए पूरा जोर लगा रहा है। लेकिन रिलायंस इन्फ्रास्ट्रक्चर की खराब नकदी स्थिति और डी क्रेडिट रेटिंग से उसकी संभावना प्रभावित हो सकती है। समय पर आपूर्ति न कर पाना भी इन कंपनियों के लिए एक बड़ी समस्या है। इसमें एलऐंडटी अपवाद है जो समय से पहले एक के बाद एक जहाजों की आपूर्ति कर रही है। ऐसी स्थिति में लगता है कि रक्षा मंत्रालय के पास बहुत विकल्प नहीं होंगे।
|