वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) प्रणाली में भी कर चोरी की गुंजाइश रह जाने का दावा कुछ विश्लेषक करने लगे हैं। उनका कहना है कि सभी करदाताओं का अपने सारे बिलों का मिलान नहीं करने से जीएसटी प्रणाली में चोरी की आशंका पैदा हुई है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) की वर्ष 2017-18 के बारे में संसद में रखी गई रिपोर्ट के बाद यह बहस तेज हो गई है। सीएजी रिपोर्ट के मुताबिक 'सभी बिलों के मिलान की व्यवस्था नहीं शुरू हो पाई है।
इस अहम कर प्रणाली के व्यापक लाभ के लिए बिलों का मिलान बेहद जरूरी है।' ऐसा नहीं होने से यह कर प्रणाली इनपुट टैक्स क्रेडिट धोखाधड़ी की चपेट में आ सकती है। सीएजी रिपोर्ट आने के बाद कई विश्लेषकों ने भी कहा है कि बिलों का मिलान जरूरी नहीं होने से फर्जी बिल बनाना एक कुटीर उद्योग का रूप ले चुका है। लेकिन यह दलील पूरी तरह से निरर्थक है।
अंतरराष्ट्रीय अनुभव बताता है कि किसी भी कर की तरह मूल्य-वद्र्धित कर (वैट) भी धोखाधड़ी एवं वंचना का शिकार हो सकता है (माइकल कीन, वैट अटैक्स, आईएमएफ वर्किंग पेपर)। इनपुट क्रेडिट और रिफंड वैट प्रणाली में धोखाधड़ी का एक अनूठा मौका देता है। खुदरा बिक्री कर और टर्नओवर कर जैसे दूसरे करों के साथ वंचना के कई दूसरे तरीके भी समान हैं। हालांकि कुछ खास तरह की गड़बडिय़ां वैट से अलहदा हैं और वह इनपुट टैक्स क्रेडिट प्रणाली है। इसके साथ यह भी सच है कि दुनिया भर में कोई भी देश सभी बिलों का मिलान नहीं करता है। यहां तक कि विकसित देशों में भी ऐसा नहीं किया जाता है जबकि उनके पास बेहद परिष्कृत कंप्यूटर प्रणाली मौजूद है। वैट एवं जीएसटी प्रणालियों के अध्ययन के लिए मैंने कई देशों का दौरा किया है और वहां के अधिकारियों से इस बारे में चर्चा भी हुई है। सीधी बात यह है कि यह प्रणाली व्यावहारिक नहीं है। इसी के साथ यह वक्त की बरबादी भी है।
इसके कारण इस तरह हैं:
बड़े करदाता चोर नहीं हैं। टाटा, बिड़ला, महिंद्रा ऐंड महिंद्रा, वेणु श्रीनिवासन, हीरो और इन्फोसिस जैसी कंपनियां कर चोरी नहीं करती हैं। सरकार ने कई कंपनियों को कर अनुपालन प्रमाणपत्र भी दिए हुए हैं। इनमें से कई सीएलडब्ल्यू, सेल, बीएचईएल और बीईएल जैसे सार्वजनिक उपक्रम हैं। ये सभी साथ मिलकर करीब 80 फीसदी कर देते हैं।
यह सुविदित है कि पंजीकृत करदाताओं का केवल 3.67 फीसदी हिस्सा (संख्या में एक लाख से भी कम) कुल कर राजस्व में करीब 79.52 फीसदी योगदान देता है। उनकी सघन लेखा परीक्षण कर पाना आसान भी है। जब कोई लेखा परीक्षण होता है तो फिर बिलों का मिलान क्यों किया जाए? इससे मशीन एवं अधिकारी दोनों ही संदिग्ध कंपनियों और एमएसएमई इकाइयों के बिलों के मिलान के लिए आजाद हो जाएंगे। सरकार गत 26 मई को एक निर्देश जारी कर चुका है जिसमें ऑडिट में जुटे दल समग्र ऑडिट कर सकें। इसमें 40 फीसदी वक्त बड़ी कंपनियों के लेखा परीक्षण के लिए मुकर्रर किया गया है जबकि बाकी समय मझोली एवं छोटी इकाइयों के लिए रखा गया है।
अब कुछ ब्योरे पर गौर करते हैं। ऑटोमोबाइल क्षेत्र में कर चोरी की कोई गुंजाइश ही नहीं है। उनका इनपुट एवं आउटपुट तय होता है। अगर 1,000 गियर खरीदे गए हैं तो इसका मतलब है कि 1,000 कारें या दोपहिया वाहन ही बनेंगे। सेवा क्षेत्र में भी सारे लेनदेन खरीदारों के साथ अनुबंध के जरिये संपन्न होते हैं। सेवा क्षेत्र में साबुन या टूथपेस्ट जैसे फुटकर उत्पाद नहीं बेचे जाते हैं। स्टील क्षेत्र भी काफी हद तक कर चोरी से मुक्त है। हालांकि स्क्रैप का इस्तेमाल करने वाले छोटे द्वितीयक क्षेत्र में ऐसी आशंका होती है। लिहाजा उनके लिए सभी बिलों का मिलान किया जाना चाहिए। सरकार के इस निर्देश ने पहले ही यह गणना कर रखी है कि उद्योगों की अलग किस्म के लिए जोखिम अवयव की शिनाख्त किस तरह होनी है?
यह खुफिया संग्रह के आधार काम करने वाली व्यवस्था है जो वंचना-रोधी महानिदेशक की निगरानी में होगी। व्यावहारिक तौर पर वंचना के सभी महत्त्वपूर्ण मामलों का पता वंचना-रोधी निदेशालय ने लगाया है। मसलन, आईटीसी मामला जो लंबे वक्त तक सुर्खियों में छाया रहा। सीएजी रिपोर्ट कहती है कि जीएसटी खुफिया अधिकारियों ने 2018-19 में 11,251 करोड़ रुपये की धोखाधड़ी वाले 1,620 मामले उजागर किए हैं। उन्होंने 90 संदिग्ध कंपनियों की भी शिनाख्त की है जो 173 अलग-अलग बैंक खातों का संचालन कर रही थीं। सीएजी का मानना है कि इन खुफिया जानकारियों के साथ बिलों का मिलान कर पुष्टि की जानी चाहिए।
निष्कर्ष यह है कि जीएसटी का पूरा डेटाबेस सीएजी को उपलब्ध कराया जाना चाहिए और इसमें कोई भी कोताही नहीं बरती जानी चाहिए। सीएजी को अपनी रिपोर्ट में यह उल्लेख भी करना चाहिए था कि सरकार इसे नकार रही है। हालांकि कर वंचना के डर को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जा रहा है। यह एक खतरनाक बात है क्योंकि यह नीतिगत निर्णय को विकृत कर देता है। सभी बिलों का मिलान अनावश्यक एवं अव्यावहारिक है।
खुफिया जानकारी आधारित निगरानी, समग्र लेखा परीक्षण और बिलों का मिलान एक साथ किया जाए तो वह सभी बिलों के मिलान की बेरहम व्यवस्था से कहीं अधिक असरदार होगा। आखिर सेल, बीएचईएल, टाटा, इन्फोसिस और हीरो जैसी कंपनियों के सभी बिलों का मिलान क्यों किया जाए? यह निरर्थक कवायद है और सरकार को इस पर रोक लगानी ही चाहिए। केवल चुनिंदा बिलों का ही मिलान किया जाए। एक ताकतवर समाधान अतार्किक है, तर्कसंगत समाधान निकालने की जरूरत है।
(लेखक केंद्रीय उत्पाद एवं सीमा शुल्क बोर्ड के पूर्व सदस्य हैं)
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