सड़क सुरक्षा | संपादकीय / September 11, 2019 | | | | |
इस माह के आरंभ से प्रभावी मोटर वाहन (संशोधन) अधिनियम, 2019 लगातार सुर्खियां बटोर रहा है। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि यातायात नियमों के उल्लंघन पर लगने वाले जुर्माने की राशि में काफी इजाफा कर दिया गया है। कुछ राज्य सरकारों ने बढ़े हुए जुर्माने के कारण इसका विरोध किया है। उदाहरण के लिए गुजरात सरकार ने हेलमेट और सीट बेल्ट न पहनने सहित कई अपराधों के लिए जुर्माना राशि कम करने का निर्णय लिया है। अधिनियम में कई प्रावधान हैं। उदाहरण के लिए एक मोटर वाहन दुर्घटना कोष के गठन की बात कही गई है ताकि सड़क पर चलने वाले सभी लोगों को अनिवार्य बीमा मुहैया कराया जा सके। इसके अतिरिक्त इसमें राष्ट्रीय परिवहन नीति बनाने की संभावना का भी उल्लेख किया गया है। परंतु सबसे अधिक बहस बढ़े हुए जुर्माने पर हो रही है।
विचार यह है कि बढ़े हुए जुर्माने से वाहन चलाने वालों में अनुशासन बढ़ेगा और देश की सड़कें सुरक्षित होंगी। यह सही है कि दंड की मात्रा इंसानी चयन को बदलती है। अर्थशास्त्री गैरी बेकर ने सन 1992 में अपने नोबेल भाषण में कहा था कि वर्षों पहले एक बार परीक्षा के लिए देर होने पर उन्हें बहुत जल्दी यह निर्णय लेना पड़ा था कि अपनी कार पार्किंग में खड़ी करें या उसे बाहर सड़क पर छोड़ कर बाद में जुर्माना भर दें। बेकर ने मन में इस बात का आकलन किया कि जुर्माना कितना देना पड़ सकता है और पार्किंग जाकर कार खड़ी करने की क्या कीमत चुकानी पड़ सकती है। आखिरकार उन्होंने यह तय पाया कि वाहन सड़क पर छोड़कर जोखिम लेना बेहतर है। यह माना जा सकता है कि सड़क पर यातायात नियमों का उल्लंघन करने वाले सामान्य लोग भी ऐसा आकलन करते होंगे। ऐसे में अगर जुर्माना और जुर्माने का शिकार होने की आशंका दोनों अधिक होती तो बेकर भी ऐसा नहीं करते। कम से कम राष्ट्रीय राजधानी में तमाम समाचार बताते हैं कि जुर्माना बढऩे के बाद नियम उल्लंघन कम हुए हैं।
परंतु केवल मनमाना जुर्माना तय करने से बात नहीं बनेगी। कुछ राज्य जुर्माने की राशि को लेकर सहमत नहीं हैं। ऐसे में राशि में अंतर और भ्रम से बचने के लिए केंद्र सरकार को अधिनियम का एक बुनियादी ढांचा तैयार करना था और क्रियान्वयन की जवाबदेही राज्यों पर छोड़ देनी थी। काफी संभव है कि अगर राज्य जुर्माने की राशि तय करते तो यह कानून अधिक प्रभावी साबित होता। राज्य इसका निर्धारण प्रति व्यक्ति आय के आधार पर कर सकते थे। यह भी स्पष्ट नहीं है कि तमाम राज्य सरकारें यह कैसे सुनिश्चित करेंगी कि सड़कों को सुरक्षित बनाने के लिए कानून का प्रभावी क्रियान्वयन हो रहा है। सीमित संसाधनों के साथ कानून प्रवर्तन हमेशा मुश्किल होता है। नैशनल ब्यूरो ऑफ इकनॉमिक रिसर्च में प्रकाशित अभिजित बनर्जी, एश्टर डफलो तथा अन्य अर्थशास्त्रियों के एक शोध पत्र में इस समस्या पर दृष्टि डाली गई है। राजस्थान में पुलिस थानों के नशे की जांच संबंधी केंद्र या तो अच्छी जगहों पर केंद्रित रहते या फिर उन्हें तीन जगहों पर बदल-बदल कर प्रयोग किया जाता। एक जगह स्थित केंद्रों से जहां नतीजों में खास सुधार नहीं आया, वहीं जगह बदल कर की जाने वाली जांच के कारण रात में होने वाली दुर्घटनाओं में 17 फीसदी और रात में होने वाली मौतों में 25 फीसदी कमी आई। यह साफ दर्शाता है कि पुलिस को संसाधनों का प्रयोग अधिक प्रभावी तरीके से करने की आवश्यकता है। केवल नियम उल्लंघन के लिए भारी-भरकम जुर्माना लगाने से व्यवस्था में सुधार नहीं होगा। पुलिस को तकनीक का इस्तेमाल बढ़ाना होगा। इससे न केवल निगरानी लागत में कमी आएगी बल्कि लोगों की प्रताडऩा की आशंका घटेगी और परिणाम बेहतर होंगे।
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