एनएचएआई का संकट | संपादकीय / September 02, 2019 | | | | |
ऐसी रिपोर्ट हैं कि प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) का हद से ज्यादा एवं अनियोजित विस्तार होने और कर्ज का दायरा बढऩे पर चिंता जताई है। सड़क निर्माण क्षेत्र में राजनीतिक जोखिम और निजी ठेकेदारों पर असर डालने वाले कर्ज बोझ को देखते हुए निजी क्षेत्र से इक्विटी मिलनी कम होती जा रही है। ऐसे में एनएचएआई को अपना रुख बदलते हुए राजमार्ग निर्माण के लिए इंजीनियरिंग, खरीद एवं निर्माण (ईपीसी) मॉडल अपनाना पड़ा है। इससे कर्ज का भारी बोझ पैदा हो गया है जिसका अनुपात इतना अधिक है कि वह समग्र व्यवस्थागत स्थिरता को प्रभावित कर सकता है। कर्ज का दायरा जल्द ही 2.5 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच सकता है जिसके बाद केवल ब्याज के मद में ही 25,000 करोड़ रुपये देने पड़ेंगे।
यह कर्ज चुकाने की बात तो भूल ही जाइए, ब्याज का भी भुगतान हो पाना मुश्किल लग रहा है। एसबीआई कैप्स के मुताबिक टोल संग्रह से प्राप्त राजस्व केवल छह फीसदी की वार्षिक दर से ही बढ़ रहा है। बाजार एनएचएआई की बढ़ी उधारी का भार उठाने को तैयार नहीं है। इस उधारी के इस साल 75,000 करोड़ रुपये पहुंच जाने का अनुमान है जो आम बजट में इसके लिए रखे गए 36,700 करोड़ रुपये के प्रावधान से काफी अधिक होगा। इस तरह यह राष्ट्रीय लघु बचत कोष (एनएसएसएफ) जैसे सरकारी नियंत्रण वाले वित्तीय पूल पर अधिक निर्भर हो चुका है। एनएसएसएफ भी 75,000 करोड़ रुपये की उधारी जरूरत में से 40,000 करोड़ रुपये ही दे सकता है।
सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय इन आंकड़ों को लेकर काफी आशावादी नजर आता है। उसका मानना है कि एनएचएआई अब भी एएए रेटिंग वाली संस्था है और उसे अपने कर्ज चुकाने या अधिक उधारी जुटाने में कोई मुश्किल नहीं होगी। मंत्रालय इन बिंदुओं पर काफी हद तक सही भी है। यह भी ठीक है कि वृहद अर्थव्यवस्था एवं रोजगार सृजन में इसकी अहमियत को देखते हए राजमार्ग निर्माण का काम रोका नहीं जा सकता है। फिर भी पीएमओ के अलावा नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की चिंताओं पर गौर किए जाने की जरूरत है। जोखिम पूंजी की कमी एवं सीमित बजटीय समर्थन से जूझ रहे एनएचएआई ने भी शायद यह मान लिया है कि विस्तार योजना के लिए पैसे जुटाने को वह मनचाही रकम कर्ज ले सकता है। लेकिन एनएचएआई को अद्र्ध-स्वायत्त गारंटी मिली होने की धारणा ही इसकी क्रेडिट रेटिंग ऊंची होने की वजह है। लिहाजा एनएचएआई की आकस्मिक देनदारियां सरकार के लिए समग्र तौर पर अहमियत रखती हैं, न कि केवल प्राधिकरण या उसके नोडल मंत्रालय के तौर पर। समस्या यह है कि कुल आकस्मिक देनदारियों को लेकर कोई पारदर्शिता नहीं है। जहां रेटिंग एजेंसी इक्रा ने आकस्मिक देनदारी के 63,000 करोड़ रुपये रहने का अनुमान लगाया है वहीं आंतरिक अनुमानों के मुताबिक यह तीन लाख करोड़ रुपये भी हो सकता है। उपकर फंडों से मिली राशि भूमि अधिग्रहण लागत से कम ही रही है। जमीन की लागत अब कुल खर्च का करीब एक तिहाई हो चुकी है और गत तीन वर्षों में यह करीब दोगुना होकर तीन करोड़ रुपये प्रति हेक्टेयर हो चुकी है।
अब नया कर्ज लेने के पहले एनएचएआई को अपने लेखांकन को लेकर अधिक पारदर्शिता दिखानी चाहिए। सारे तथ्य पता होने चाहिए जिनमें वृहत्तर पारिस्थितिकी पर कर्ज बोझ के असर की मात्रा भी शामिल है। एनएचएआई के भुगतान रोकने जैसे पुराने साक्ष्यों से इसके व्यवस्था में दूसरी जगह भी फैलने का अंदेशा पैदा होता है। ब्याज अदायगी में आ रही दिक्कतों को भी जोड़ दें तो इससे व्यवस्थागत गतिरोध पैदा हो सकता है। ऋण बाजार पहले से ही आईएलऐंडएफएस के पतन का दुष्परिणाम झेल रहा है लिहाजा समस्या को और गंभीर होने से बचाया जाना चाहिए।
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