स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले के प्राचीर से देश को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनसंख्या नियंत्रण और देशभक्ति को एक समान बताया। उन्होंने कहा, 'जनसंख्या विस्फोट हमारी आने वाली पीढिय़ों के लिए कई समस्याएं खड़ी करेगा। परंतु जनता का एक धड़ा जागरूक भी है..उसका परिवार छोटा है और वह इस तरह देश के प्रति अपना प्रेम जाहिर करता है। हमें उनसे सीखना चाहिए।' प्रधानमंत्री का यह कहना सही है कि देश की भारी-भरकम आबादी ने उसके बुनियादी ढांचे, प्राकृतिक संसाधनों और प्रशासनिक तथा शैक्षणिक क्षमताओं पर दबाव डाला है। परंतु एक तरह से देखा जाए तो जनसंख्या की समस्या आज की नहीं है। आबादी का बढऩा जारी रहेगा लेकिन इस समस्या का विस्तार नहीं हो रहा है। निश्चित तौर पर संयुक्त राष्ट्र के जनसंख्या प्रभाग के अनुमान के मुताबिक सन 2007 में देश में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की तादाद उच्चतम स्तर पर थी। 15 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की संख्या 2011 में उच्चतम स्तर पर पहुंची और 25 से कम उम्र की मौजूदा पीढ़ी अब तक की सबसे बड़ी तादाद वाली ऐसी पीढ़ी है। देश के महापंजीयक कार्यालय की नमूना पंजीयन व्यवस्था के अनुसार देश की कुल प्रजनन दर (टीएफआर) के आंकड़े भी जन्मदर में धीमेपन की पुष्टि करते हैं। देशव्यापी टीएफआर 2001 के 3.24 से घटकर 2011 में 2.53 हुई और 2021 तक इसके केवल 2.20 रह जाने की उम्मीद है। भविष्य में जनसंख्या वृद्घि का बड़ा हिस्सा दीर्घजीविता और बेहतर स्वास्थ्य, पोषण एवं देखभाल के कारण 60 से अधिक उम्र के लोगों के कारण होगा। यह वांछित भी है। यह समग्र सुधार तमाम भौगोलिक और सामाजिक विविधता को छिपाए हुए है। देश के कई हिस्सों मसलन दक्षिण भारत के राज्यों, कश्मीर और पश्चिम बंगाल में टीएफआर खासतौर पर कम है। यह यूरोप के स्तर पर या उससे भी कम है। कई अल्पसंख्यक समुदायों मसलन ईसाइयों, बौद्घों, सिखों और जैनों में टीएफआर की दर 2.1 से भी कम है। परंतु उत्तर प्रदेश में यह 3 और बिहार में 3.2 है। अन्य हिंदीभाषीय प्रदेशों में भी जन्मदर काफी बेहतर है। ऐसे में यदि प्रधानमंत्री आबादी में हो रही बढ़ोतरी के प्रबंधन को लेकर गंभीर हैं तो उन्हें इन क्षेत्रों पर अधिक ध्यान देना होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो असली चुनौती विकास की है। जनसंख्या नियंत्रण के कई लाभ हैं। अतीत में परिवार नियंत्रण के तरीकों को अपनाने से जो सबक मिले, उन्हें भी ध्यान में रखना होगा। व्यवहारात्मक बदलाव तो बाहरी प्रोत्साहन से आता है लेकिन सबसे अहम कारक हैं बढ़ता शहरीकरण, आय सुरक्षा तक पहुंच, कम शिशु एवं बाल मृत्यु दर, बेहतर स्वास्थ्य मानक आदि। महिला सशक्तीकरण जिसमें कामकाजी महिलाएं और महिला शिक्षा का प्रभाव शामिल है, वह भी इसमें अहम भूमिका निभा सकता है। जन्म दर के मसले को देशभक्ति से जोडऩा इस समस्या से निपटने का सही तरीका नहीं है। विभिन्न क्षेत्रों और समुदायों के बीच के अंतर को अन्य विकास सूचकांकों के माध्यम से बेहतर ढंग से परिभाषित किया जा सकता है। जाहिर है इस दिशा में बनने वाली नीति में इन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए। संभव है सरकार दो या कम संतान रखने वालों को कुछ प्रोत्साहन देना चाहे। बहरहाल, फिलहाल राजकोषीय स्थिति ऐसी नहीं है कि ऐसा कोई कदम उठाया जा सके। सरकार के पास अन्य तमाम खर्च भी हैं। ऐसे में इस समस्या से निपटने के लिए नया खर्च करना बुद्घिमानी नहीं होगी। सरकार को स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार, शहरीकरण बढ़ाने और महिला सशक्तीकरण पर अधिक ध्यान देना चाहिए।
