जलवायु परिवर्तन और भूमि विषय पर संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन संबंधी अंतरसरकारी पैनल (आईपीसीसी) द्वारा जारी विशेष रिपोर्ट ने वैश्विक तापवृद्घि से लड़ाई में एक नया आयाम जोड़ा है। इसने जलवायु संकट को दूर रखने के लिए भूमि के उचित इस्तेमाल को एक प्रमुख पूर्व शर्त बताया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि अकेले जीवाश्म ईंधन से निकलने वाली ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकने मात्र से वैश्विक ताप वृद्घि को औद्योगिक युग के पूर्व के स्तर से 2 डिग्री सेल्सियस पर नहीं रोका जा सकता है। पेरिस जलवायु समझौते के मुताबिक तापमान में बढ़ोतरी को इसी स्तर पर रोकना है। रिपोर्ट में कहा गया है कि मौसम में आ रहे बदलाव की प्रवृत्ति को सीमित करने के लिए जमीन के इस्तेमाल में व्यवस्थित बदलाव करने होंगे। रिपोर्ट बताती है कि जलवायु परिवर्तन के मामले में सूखा, गहन बारिश, बाढ़ के कारण जमीन का क्षरण होता है। जमीन की प्रकृति में गिरावट जलवायु परिवर्तन को इसलिए बढ़ावा देती है क्योंकि इससे उसकी कार्बन डाइ ऑक्साइड ग्रहण करने की क्षमता प्रभावित होती है। रिपोर्ट के अनुसार मानवजनित ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन का 23 फीसदी हिस्सा जंगल काटने, खेती, पशु चराने तथा जमीन से संबंधित अन्य गतिविधियों के कारण हो रहा है। अगर खाद्य उत्पादन के पहले और बाद की गतिविधियों मसलन कच्चे माल और उत्पादन के परिवहन, ऊर्जा खपत और खाद्य प्रसंस्करण को भी ध्यान में रखा जाए तो ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की हिस्सेदारी बढ़कर 37 फीसदी हो जाती है। इन हालात को बदलने के लिए वनों की कटाई रोककर नए वन लगाने होंगे और हरित क्षेत्र में इजाफा करना होगा। साथ ही जमीन को भविष्य में होने वाले नुकसान पर अंकुश लगाना होगा। सामान्य तौर पर माना जाता है कि सामान्य कार्बन चक्र से निकलने वाली ग्रीन हाउस गैसों में भूमि और समुद्र 50 फीसदी के जिम्मेदार है। इस स्तर को स्थिर रखने की जरूरत है, इसके लिए नए वन लगाने की गति, वनों की कटाई से तेज करनी होगी। जलवायु परिवर्तन पर देश की कार्य योजना में कई मोर्चों पर समांतर कार्य योजना के साथ काम करने की बात सोची गई है। इसमें एक अहम घटक है वनों के माध्यम से वातावरण की ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन रोकना। इसका लक्ष्य है वनों का विस्तार करके सन 2032 तक 2.5 से 3 अरब टन अतिरिक्त कार्बन का अवशोषण करना। बहरहाल मौजूदा गति से देखें तो यह बहुत दूर की कौड़ी है। अतीत में भूमि और जल संरक्षण के लिए गए उपाय भी समय के साथ बेकार साबित हुए। एक स्थानीय एजेंसी के अनुमानों के मुताबिक देश के भौगोलिक रकबे में से करीब 30 फीसदी जमीन का स्तर बिगड़ा है। गैर कृषि भूमि, चारागाह और गांवों की जमीन बेरुखी से खराब हो रहे हैं। कृषि योग्य भूमि अतिशय सिंचाई, उर्वरकों के प्रयोग आदि से बिगड़ रही है। इन पर अंकुश लगाना होगा। जमीन का इस्तेमाल उसकी क्षमता के मुताबिक किया जाना चाहिए। आईपीसीसी की यह रिपोर्ट ऐसे समय आई है जब संयुक्त राष्ट्र की दो अहम मंत्रिस्तरीय बैठकें होने वाली हैं। पहली है कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज टु द यूएन कन्वेंशन ऑन कॉम्बैटिंग डिसर्टिफिकेशन (सीओपी14) जो अगले महीने दिल्ली में होगी। दूसरी बैठक कॉन्फ्रेंस ऑफ द फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (सीओपी 25) दिसंबर में चिली के सेंटियागो में होनी है। यह रिपोर्ट दोनों बैठकों को अहम जानकारी मुहैया कराएगी। रिपोर्ट के परेशान करने वाले नतीजे बताते हैं कि मिट्टी का क्षरण प्राकृतिक गति की तुलना में 100 गुना तेज गति से हो रहा है। उम्मीद है कि दुनिया के देश इसे ध्यान में रखकर अपनी जलवायु परिवर्तन की योजना पर काम करेंगे। नया लक्ष्य जमीन का क्षरण रोकने और ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन रोकने के कदम साथ उठाने का होना चाहिए। इसमें ढिलाई महंगी पड़ेगी।
