जलवायु के अनुकूल तकनीक पर नियंत्रण ही भविष्य में भू-राजनैतिक शक्ति का माध्यम बनेगा। इस संबंध में विस्तार से जानकारी दे रहे हैं नितिन देसाई जून और जुलाई 2019 दर्ज इतिहास के सबसे गर्म महीनों में शामिल रहे हैं और 2015 से 2019 तक का समय सबसे गर्म पांच वर्ष का समय रहा है। भारत में दिल्ली के पालम में 10 जून, 2019 को 48 डिग्री सेल्सियस का तापमान दर्ज किया गया। राजस्थान में तापमान बढ़कर 50 डिग्री सेल्सियस का आंकड़ा पार कर गया। यूरोप और अमेरिका में भी अप्रत्याशित गर्मी देखने को मिली। विश्व मौसम विज्ञान संस्थान के महासचिव पेटेरी टालास के मुताबिक अत्यधिक गर्मी के साथ-साथ ग्रीनलैंड, आर्कटिक और यूरोपीय ग्लेशियरों में जमकर बर्फ पिघली। आर्कटिक में लगातार दूसरे महीने जंगलों में आग लगी और वे घने जंगल नष्ट हो गए जो कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण करते थे और ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करते थे। यह कोई विज्ञान गल्प नहीं बल्कि जलवायु परिवर्तन की हकीकत है। अगर तत्काल कदम नहीं उठाए गए तो भविष्य में हालात और खराब होंगे। ये गर्म हवाएं केवल नमूना भर हैं। यदि हम जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिए कदम नहीं उठाते हैं तो हालात और खराब होंगे। बाढ़, सूखा, बारिश में कमी, तूफानों का आना, तटीय इलाकों के मीठे पानी में खारापन, कृषि एवं जैव उत्पादकता पर असर बढ़ेगा। कुलमिलाकर जलवायु से जुड़ी आपदाएं बढ़ेंगी और हमारा स्वास्थ्य प्रभावित होगा। दुनिया का कोई देश अपने दम पर इससे निपट नहीं सकता क्योंकि ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन समूची पृथ्वी पर असर डालने वाला है। यही कारण है कौन क्या करता है और किसे क्या करने को मजबूर किया जाता है, इसकी भू-राजनीति अब जलवायु कूटनीति की चिंता के मूल में है। संयुक्त राष्ट्र महासभा में सितंबर 2019 में जलवायु परिवर्तन पर बहस होने वाली है, उससे कुछ संकेत निकल सकते हैं। नेचर पत्रिका के एक हालिया आलेख में जलवायु परिवर्तन की भू-राजनीति के चार संभावित परिदृश्यों पर चर्चा की गई है। पहला परिदृश्य काफी हद तक अकल्पनीय है। इसमें विभिन्न देशों के बीच बोझ की साझेदारी के मामले में गहन सहयोग की बात की गई है। जीवाश्म ईंधन कंपनियों को वित्तीय बाजार के माध्यम से हाशिये पर करने, हरित तकनीक वाली कंपनियों के उभार और सभी देशों द्वारा संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने की बात कही गई है। दूसरा परिदृश्य एक तकनीकी बदलाव की परिकल्पना करता है, जहां स्वच्छ ऊर्जा की आर्थिकी में नाटकीय बदलाव की बात कही गई है। इसका एक समतुल्य उदाहरण मोबाइल फोन तकनीक से लिया जा सकता है जिसने दूरसंचार क्षेत्र में क्रांति ला दी। परंतु यह परिदृश्य कुछ देशों के बीच तकनीकी दबदबे और प्रतिद्वंद्विता की तस्वीर भी पेश करता है। इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है लेकिन आज ऐसे किसी कदम के बारे में पर्याप्त प्रमाण नहीं हैं। तीसरा परिदृश्य बढ़ते लोकलुभावन राष्ट्रवाद का एक जोखिम भरा चित्र प्रस्तुत करता है जहां उत्सर्जन में कमी के तमाम प्रयास ठप होने की बात है। चौथा परिदृश्य वह है जो हम अभी कर रहे हैं। यानी पेरिस जैसे कमजोर समझौते। इससे कुछ सहायता मिलेगी लेकिन हम ताप वृद्घि के तय लक्ष्यों से पीछे रह जाएंगे। दुर्भाग्य की बात है कि लोकलुभावन राष्ट्रवाद के परिदृश्य से गुजर रहे है। ट्रंप प्रशासन पेरिस समझौते की आलोचना कर चुका है, यूरोप में क्षेत्रवाद बढ़ रहा है और वहां प्रवासियों को लेकर चिंता बढ़ रही है। लैटिन अमेरिका और यूरोप के कई देश वैश्वीकरण को नकार चुके हैं। इनमें से कई देशों में दक्षिणपंथी सरकारें हैं जो मानवजनित जलवायु परिवर्तन तक को स्वीकार नहीं करतीं। इसके बावजूद जलवायु परिवर्तन पर कदम उठाने को लेकर आम जन का प्रतिरोध बढ़ेगा क्योंकि ऐसी घटनाएं भी बढ़ेंगी। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में भारत की हिस्सेदारी 5 फीसदी जबकि चीन की 25 फीसदी है। हालांकि 2030 तक दोनों की हिस्सेदारी 20-30 फीसदी रहेगी और उन पर कदम उठाने का जबरदस्त दबाव होगा। बहुराष्ट्रवाद के क्षरण को देखते हुए कहा जा सकता है कि यह व्यापार, तकनीक हस्तांतरण या वैश्विक पूंजी बाजार की मदद से एकतरफा दबाव में तब्दील हो जाएगा। भारत और चीन को प्रतिक्रिया देनी चाहिए और खुद को जलवायु परिवर्तन के खिलाफ कदमों का अगुआ बनाना चाहिए। कार्बन ऐक्शन ट्रैकर्स भारत की पेरिस प्रतिबद्घता को वैश्विक सहयोग की आवश्यकता के अनुरूप आंकता है। हालांकि वह चीन की प्रतिबद्घता को काफी कम मानता है। दोनों देश पेरिस प्रतिबद्घता की लीक पर हैं बल्कि वे वादे से बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं। एक हालिया अध्ययन यह भी बताता है कि चीन का उत्सर्जन पेरिस समझौते में किए उल्लेख से एक दशक पहले ही उच्चतम स्तर पर पहुंच सकता है। जहां तक बात है जलवायु से जुड़ी भू-राजनीति की तो दोनों बड़े देशों में काफी कुछ एक समान है। दोनों का हित इसी में है कि अतीत के उत्सर्जन की जवाबदेही सुनिश्चित करने के मामले में दोनों देश मिलकर काम करें तो भविष्य के विकास के लिए मौजूदा कार्बन स्पेस में उचित दखल कायम करें। दोनों देशों में तेल की कमी है और सौर तथा पवन ऊर्जा को वे केवल कार्बन उत्सर्जन में कमी के विकल्प के अलावा ऊर्जा सुरक्षा के उपाय के रूप में भी देखते हैं। दोनों देश कोयले पर काफी हद तक निर्भर हैं और कोयले का इस्तेमाल कम करने तथा नई तकनीक विकसित करने तथा अपनाने में दोनों के हित जुड़े हैं। तथ्य यह है कि घरेलू विकास के लिए हमें प्रभावी जलवायु कार्य योजना की आवश्यकता है। कोयले पर निर्भरता के अलावा दोनों देश जलवायु के अनुकूल वृद्घि के लिए काम कर सकते हैं। लेकिन उन्हें इस क्षेत्र में वास्तविक नेतृत्व तभी मिलेगा जब वे दूसरों से कुछ अलग कदम उठाएं। उन्हें जो गुंजाइश बनानी है या सार्वजनिक परिवहन, भवन डिजाइन, शहरी नियोजन, ऊर्जा किफायत वाले विनिर्माण आदि के क्षेत्र में जिस पैमाने पर जलवायु के अनुकूल तकनीक इस्तेमाल करनी है, उसके लिए बहुत बड़े पैमाने पर नवीकरणीय ऊर्जा तथा अन्य संसाधनों की आवश्यकता होगी। ये दोनों देश यह काम करने के लिए बेहतर स्थिति में हैं क्योंकि उनकी इमारतों, शहरी क्षेत्र, विनिर्माण क्षमता और बिजली संयंत्र आदि अभी बनने हैं। आवश्यकता केवल यह समझने की है कि जलवायु के अनुकूल तकनीक पर नियंत्रण किस प्रकार किया जाए। जो देश ऐसा करने में कामयाब रहेगा वही भविष्य में भूराजनैतिक शक्ति का स्रोत बनेगा। चीन पहले ही इस राह पर बढ़ चुका है और भारत अगर जलवायु परिवर्तन की भूराजनीति में पिछडऩा नहीं चाहता तो उसे भी ऐसा करना होगा।
