सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय से उन नियमों को मंजूरी देने का आग्रह किया है जिनसे नैशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) के पीठों में न्यायाधीशों की जवाबदेही निर्धारित हो ताकि कॉरपोरेट दिवालिया मामलों का समय पर निपटान सुनिश्चित हो सके। ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता में किए गए हालिया संशोधन के तहत सरकार ने मुकदमेबाजी सहित सभी कॉरपोरेट दिवालिया मामलों का निपटान 330 दिनों के भीतर करना अनिवार्य कर दिया है। संसद के दोनों सदनों में यह विधेयक पारित हो चुका है और इससे एनसीएलटी के पीठों को जवाबदेह बनाया गया है ताकि उनकी उत्पादकता में इजाफा हो सके।
एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने कहा, 'सरकार के पास यह कदम उठाने के अलावा कोई अन्य चारा नहीं था। हमें समय-सीमा निर्धारित करनी थी और कुछ जगहों पर लकीर खींचनी थी। आईबीसी में मामला आने पर समय का काफी महत्त्व होता है लेकिन देरी होने पर आर्थिक लागत काफी बढ़ जाती है।'
सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जीएस सिंघवी ने कहा कि अदालतों पर इस तरह की समय-सीमा पहले कभी नहीं लगाई गई। उन्होंने कहा कि यह समझना जरूरी है कि देरी का माहौल क्यों पैदा हो गया है। उन्होंने कहा, 'आपके पास एक व्यक्ति चार लोगों का काम कर रहे हैं। हर कोई चाहता है कि न्यायाधीश अपने दिमाग का इस्तेमाल करे और कोई तार्किक आदेश दे। लेकिन आपको क्षमता निर्माण करने की भी जरूरत है।'
सरकार ने आईबीसी मामलों की न्यायिक प्रक्रिया में देरी होने से आर्थिक लागत में जबरदस्त इजाफे को लेकर चिंता जताई है। समझा जाता है कि इस प्रकार की देरी का पता लगाने के लिए कंपनी मामलों के मंत्रालय ने सर्वोच्च न्यायालय के सामने तमाम नियमों का प्रस्ताव दिया है। प्रस्तावित नियमों के अनुसार, यदि सरकार को प्रारंभिक जांच में कुछ अनियमिता नजर आती है तो वह मामले की व्यापक जांच के लिए सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को नियुक्त करने के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश से संपर्क कर सकती है।
जहां तक जवाबदेही निर्धारित करने संबंधी सरकार के प्रस्ताव की बात है तो उन्होंने कहा, 'बेईमानों को जवाबदेह बनाया जाना चाहिए और ऐसे कई मामले हैं जहां सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायाधीशों के खिलाफ कार्रवाई की है और जांच की मंजूरी दी है। ट्रिब्यूनल के लिए प्रक्रिया अलग हो सकती है क्योंकि उसमें सेवानिवृत्त न्यायाधीश शामिल होते हैं।'
कंपनी मामलों के मंत्रालय ट्रिब्यूनल के लिए कहीं अधिक जनतांत्रिक प्रणाली तैयार करने की भी योजना बना रहा है। साथ ही देश भर में एनसीएलटी के पांच क्षेत्रीय उपाध्यक्षों के नए पद सृजित कर सरकार ट्रिब्यूनल को कुछ नियंत्रण भी देना चाहती है। एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि वे एलसीएलटी के अधिकांश प्रशासनिक कार्यों की जिम्मेदारी संभाल लेंगे जिससे पीठों को न्यायिक कार्यों के लिए अधिक समय मिल सकेगा।
अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में न्यायपालिका की मदद के लिए विशेष समर्पित संगठन तैयार किए गए हैं। सरकार चाहती है कि एनसीएलटी समयबद्ध तरीके से समाधान प्रक्रिया पर ध्यान केंद्रित करे और अनावश्यक मुकदमेबाजी को नजरअंदाज किया जाए। एक अन्य वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने कहा, 'एनसीएलटी को यदि कुछ अत्यधिक आपत्तिजनक लगे तो वह योजना को खारिज कर सकता है लेकिन उसे वाणिज्यिक मुद्दों पर ध्यान नहीं देना चाहिए।'
हालांकि एनसीएलटी के पीठ में शामिल एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश ने अपनी पहचान जाहिर न करने की शर्त पर कहा कि लेनदारों की समिति को वाणिज्यिक मुद्दों पर निर्णय लेने का पूरा अधिकार है। उन्होंने कहा कि ट्रिब्यूनल तो महज एक रबर स्टाम्प है। उन्होंने कहा, 'परिसंपत्ति मूल्य को अधिक से अधिक करना एक प्रमुख उद्देश्य होता है और जब ऐसा नहीं होता तो हम सवाल करते हैं। उदाहरण के लिए, यदि बैंक परिसंपत्ति बेचने का निर्णय लेता है जबकि उसे समाधान योजना के जरिये अधिक रकम मिल सकती है।'
देश में एनसीएलटी के 16 पीठ हैं। जून 2019 तक 330 दिनों से अधिक खिंचने वाले कॉरपोरेट दिवालिया मामलों की संख्या 335 हो चुकी थी। इन मामलों को अगले तीन महीने के भीतर निपटाया जाना है। एनसीएलटी के अध्यक्ष एवं सेवानिवृत्त न्यायाधीश एमएम कुमार ने कहा कि 330 दिनों की समय-सीमा की संवैधानिक वैधता के बारे में निर्णय केवल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लिया जा सकता है। उन्होंने कहा, 'इसे हासिल करना कठिन नहीं है बशर्ते हमारे पास पर्याप्त क्षमता, बुनियादी ढांचा और ट्रिब्यूनल के कर्मचारी हों।'
हालांकि नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनैंस ऐंड पॉलिसी के एक परिचर्चा पत्र में सुझाया गया है कि न्यायिक देरी की समस्या को केवल न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाकर खत्म नहीं किया जा सकता। इसके लिए भारतीय न्यायपालिका में प्रशासनिक गतिविधियों को युक्तिसंगत बनाते हुए न्यायाधीशों की उत्पादकता बढ़ानी चाहिए। नैशनल कंपनी लॉ अपील ट्रिब्यूनल (एनसीएलएटी) के चेयरमैन न्यायमूर्ति एसजे मुखोपाध्याय ने कहा कि आईबीसी को बेहतर तरीके से समझने की जरूरत है। उन्होंने कहा, 'यह कोई मुकदमेबाजी नहीं है बल्कि यह एक न्यायिक निर्णय है।' उन्होंने कहा, 'हम संसद में पारित कानूनों से बंधे होते हैं। हम कानून की व्याख्या कर सकते हैं। हमारे फैसलों के आधार पर संशोधन भी किए जाते हैं।'
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