सहमति अथवा टकराव वाली राजनीति : कौन सी सही? | जमीनी हकीकत | | सुनीता नारायण / July 29, 2019 | | | | |
गत 21 जुलाई को दिवंगत हुईं दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को सहमति और बातचीत के जरिये समाधान तलाशने की राजनीति के लिए याद किया जाना चाहिए। आज के दौर की बेहद ध्रुवीकृत राजनीति में तो यह और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। अगर हम यह मानें कि एक सरकार का मकसद विकास की राह सुनिश्चित करना है तो भी यह अहम है। लेकिन संघर्षरत वास्तविकताओं को संभालने और एक सहयोगपूर्ण समाधान निकालने की क्षमता के बगैर ऐसा हो पाना संभव नहीं है। मेरे हिसाब से यही सियासत की असली कला है। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे आसपास नफरत एवं तेज शोर हावी होने से हम यह कला भूलते जा रहे हैं।
शीला जी के साथ मेरे संबंधों की शुरुआत लड़ाई से हुई थी। हम 1990 के दशक में उच्चतम न्यायालय में मौजूद थे जहां दिल्ली की गंभीर प्रदूषण समस्या को दूर करने के लिए शहर की सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था में सीएनजी को अहमियत देने का प्रस्ताव विचाराधीन था। यह प्रस्ताव खासा विवादास्पद हो गया था। केंद्र सरकार पूरी तरह इसके खिलाफ थी। डीजल लॉबी सीएनजी को विस्फोटक एवं बिना जांचा-परखा बता रही थी। उस समय शीलाजी की अगुआई वाली दिल्ली सरकार बदलाव की इस राह पर संकोच के साथ बढ़ रही थी। गैस नहीं मिलने से पेट्रोल पंपों पर वाहनों की कतारें लंबी होने लगीं, बसों में आग लगने की घटनाओं को सीएनजी के असुरक्षित होने का आधार बताया जाने लगा। उच्चतम न्यायालय में तत्कालीन सोलिसिटर जनरल हरीश साल्वे जानबूझकर शिथिलता बरतने के लिए सरकार की खिंचाई कर रहे थे। इससे आक्रोशित शीर्ष अदालत ने दिल्ली की मुख्यमंत्री के खिलाफ अदालत की अवमानना कार्यवाही शुरू करने की मंशा जता दी थी।
फिर अचानक ही सबकुछ बदल गया। शीलाजी खुद ही अदालत में हाजिर हुईं। उन्होंने गुण-दोष की बहस में न पड़ते हुए अदालत को यह भरोसा दिलाया कि आदेशों का पालन किया जाएगा। उसके बाद की घटनाएं तो इतिहास हैं। सीएनजी लागू कराने के इस कार्यक्रम में हम उनकी सरकार के साथ मिलकर काम कर रहे थे। मुश्किल हालात पैदा होने पर भी वह कभी पीछे नहीं हटीं। उनमें अपने अधिकारियों से काम कराने की काबिलियत थी और वह यह काम बाहरी विचारों एवं शब्दों का समावेश करते हुए करती थीं। वह बेहद ही कुशलता और सौम्यता के साथ अलग-अलग दुनिया को जोड़ती थीं। यह ऐसा गुण है जो अब राजनीति में कम होता जा रहा है। बढ़ते प्रदूषण और सड़कों पर बढ़ते वाहनों को कम करने के लिए 2000 के दशक में सार्वजनिक परिवहन पर खासा ध्यान दिया जाने लगा। मुझे अच्छी तरह याद है कि वह एक बैठक में शामिल हुई थीं जिसमें हमने सीएनजी लागू होने के बाद दूसरी पीढ़ी के सुधारों पर चर्चा की थी। उन्होंने हमारी खिंचाई करने में संकोच नहीं किया। वह इस बात असहमत थीं कि दिल्ली जरूरत के हिसाब से सार्वजनिक परिवहन अपनाने में आगे बढ़ सकती है। उनका मानना था कि यह सही रास्ता नहीं है। लेकिन उन्होंने संवाद का सिलसिला कायम रखा और वह हमारी बात सुनती रहीं।
मुझे लगता है कि हम लोगों ने ही उन्हें नाकाम बना दिया। उन्होंने बस रैपिड ट्रांजिट (बीआरटी) प्रणाली को आजमाने का मन बनाया था तो इसकी यही वजह थी कि वह असंभव लगने वाले विचारों को भी मौका देना चाहती थीं। यह हमारी सामूहिक नाकामी है कि दिल्ली की जटिलता के लिहाज से हम एक कारगर परिवहन प्रणाली बनाने में नाकाम रहे जो अलग तरह के सड़क उपभोक्ताओं की जरूरत पूरी कर सके। इसके बावजूद उन्होंने इन विचारों पर हार नहीं मानी। उन्होंने बदनाम हो चुकीं ब्लू लाइन बसों को सड़कों से हटाने का आदेश दे दिया जबकि उनमें से कई बस ऑपरेटर उनके अपने दल के ही नेता थे। उन्होंने नई पीढ़ी की लो-फ्लोर एवं वातानुकूलित बसें खरीदने का भी समर्थन किया। वह सार्वजनिक परिवहन के तमाम साधनों- मेट्रो, बस एवं साइकिल में बड़े पैमाने पर निवेश की जरूरत समझती थीं। यह शासन करने की उनकी काबिलियत और दूसरों पर उंगली उठाए बगैर समझाने-बुझाने की कला का ही नतीजा था।
मैं यह लेख अपने शहर या देश के मौजूदा नेताओं का आह्वान करने के लिए नहीं लिख रही हूं। लेकिन यह याद दिलाना चाहती हूं कि सहमति पर आधारित राजनीति के जरिये क्या कुछ किया जा सकता है? मुझे मालूम है कि उन्हें 2013 के चुनाव में शिकस्त झेलनी पड़ी थी और यह भी पता है कि उनके कार्यकाल में ही इस शहर का वायु प्रदूषण एवं अन्य समस्याएं बढ़ी थीं। लेकिन इसी के साथ यह भी सच है कि उन्होंने कभी कोशिश करनी नहीं छोड़ी। उन्होंने कभी भी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ा। उन्होंने बदलाव लाने के लिए कोई हंगामा किए बगैर काम करने की कला में महारत हासिल कर ली थी।
मेरी कुछ आखिरी मुलाकातों में वह मौका भी था जब उन्होंने दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण पर लगाम लगाने के तरीकों के बारे में मेरी राय मांगी थी। उसके कुछ साल पहले वह चुनाव हार चुकी थीं लेकिन वह इस शहर को लेकर फिक्रमंद थीं। वह जानना चाहती थीं कि दिल्ली को बेहतर बनाने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है और उन्हें सरकार को क्या सुझाव देने चाहिए? मैंने उनसे साफ-साफ कहा कि उन्हें ऐसी कोशिश भी नहीं करनी चाहिए क्योंकि फिर अपने कार्यकाल में कुछ नहीं करने के लिए उन पर हमले बोले जाएंगे। ऐसे में दोषारोपण का दौर चालू हो जाएगा। लेकिन उन्होंने सरकार को चि_ी लिखकर अपनी सलाह से अवगत कराया। बाद में उन्होंने बुझे हुए मन से फोन कर मुझे बताया कि उन्हें चि_ी का कोई भी जवाब नहीं मिला। किसी भी संवाद का उत्तर देना उनका तरीका, पुराना तरीका था। लेकिन यह काफी दुर्भाग्यपूर्ण होगा जब हमें पता चले कि शीला दीक्षित की राजनीति का तरीका अब चलन से बाहर हो गया है।
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