रक्षा तैयारी को लेकर बदलना होगा नजरिया | प्रेमवीर दास / July 25, 2019 | | | | |
समय आ गया है कि प्रधानमंत्री खुद आगे आकर राष्ट्रीय सुरक्षा की प्रकृति तय करें जो आकांक्षाओं के साथ जरूरतों में भी तालमेल बिठाए। सैन्य रणनीति की समीक्षा कर रहे हैं प्रेमवीर दास
जब पाकिस्तान सेना की कुछ टुकडिय़ों ने करगिल की कुछ पहाडिय़ों पर चोरी-छिपे कब्जा कर लिया था तो भारतीय सेना के तत्कालीन प्रमुख ने कहा था कि 'हम उन्हीं हथियारों से लड़ेंगे जो हमारे पास हैं'। उस घटना के बीस साल बाद भी भारतीय सेना प्रमुख का कुछ उसी तरह का बयान अधिक चौंकाता नहीं है। आखिरकार हमें जरूरत पडऩे पर दुश्मन के अत्याधुनिक विमानों के मुकाबले पुराने हो चले मिग-21 विमानों को ही तैनात करना पड़ा जिनमें से एक को मार गिराया गया। इन दो दशकों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की अगुआई वाले राजग और कांग्रेस की अगुआई वाले संप्रग ने आधे-आधे समय तक देश पर शासन किया है। क्या हम भारत के लिए जरूरी सैन्य ताकत की पहचान कर पाने में बुनियादी तौर पर कुछ बातों को नजरअंदाज कर रहे हैं?
कुछ दिन पहले चर्चित पत्रकार शेखर गुप्ता ने इस समाचारपत्र में प्रकाशित अपने एक लेख में कहा था कि हमारी सैन्य तैयारी की प्रक्रिया में कुछ गंभीर खामियां हैं। उनका कहना था कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का महज दो फीसदी आवंटन रक्षा क्षेत्र के लिए किए जाने पर लगातार विलाप करना एक दोषपूर्ण तर्क है क्योंकि सरकार का उस आवंटन पर कोई नियंत्रण नहीं होता है। वह केवल केंद्र सरकार के व्यय (सीजीई) को संभालती है। इस मद में सरकार के पास 2019-20 के कुल बजट का 15.5 फीसदी ही है जो पिछले साल के 15.1 फीसदी से अधिक है। सीजीई मद से ही स्वास्थ्य, शिक्षा और कल्याण योजनाओं के लिए राशि दी जाती है। ऐसे में सरकार से रक्षा आवंटन बढ़ाने की उम्मीद करना दूर की कौड़ी है। इस संसाधन के बड़े हिस्से के राजस्व व्यय (वेतन एवं पेंशन) पर खर्च होने से आधुनिकीकरण एक सपना ही बनकर रह जाता है।
शेखर गुप्ता की कुछ अन्य संकल्पनाओं के गुण-दोष पर भी विचार करने की जरूरत है। भारत की थल सेना एवं वायु सेना अपनी अंतर्निहित ताकत के बूते लंबी लड़ाई में पाकिस्तान पर भारी पड़ेंगी लेकिन दो-तीन हफ्तों वाली सीमित लड़ाई में दोनों पक्ष कमोबेश समान स्तर पर होंगे। हालांकि इसमें नौसेना निर्णायक भूमिका निभा सकती है लेकिन निर्बाध समुद्री परिवहन में बाधा आने के डर से वैश्विक स्तर पर हंगामा मचने का जोखिम भी होगा। उनकी इस दलील के समर्थन में यही कहा जा सकता है कि उड़ी और पठानकोट के सैन्य ठिकानों पर प्रायोजित आतंकी हमलों के जवाब में सीमापार 'सर्जिकल स्ट्राइक' किया गया। बालाकोट के आतंकी शिविरों पर हमले के कुछ घंटों बाद ही पाकिस्तानी वायुसेना ने दिन के उजाले में पलटवार कर दिया था जिसमें हमारा एक मिग-21 विमान गिरा दिया गया और उसका पायलट भी पकड़ लिया गया। कुल मिलाकर, सीमित अवधि की तनातनी से किसी भी पक्ष का दबदबा बन पाने की संभावना नहीं है। अगर लंबे एवं संक्षिप्त टकराव दोनों से ही बड़ा राजनीतिक लाभ नहीं मिलेगा तो फिर क्या विकल्प है? हमने अभी तक इस बात पर भी गौर नहीं किया है कि चीन के साथ सीमा पर किस तरह की स्थिति पैदा हो सकती है? गुप्ता दो मोर्चों के लिए तैयारी की निरर्थकता का जिक्र करते हुए कहते हैं कि उसके लिए कभी भी संसाधन नहीं जुटाए जा सकते हैं।
यह राष्ट्रीय सुरक्षा की तैयारी से जुड़ी बुनियादी बातों को रेखांकित करता है। इस बारे में मोटे तौर पर दो नजरिया रहा है। पहला है खतरे के आकलन के आधार पर योजना बनाना। एक साथ दो मोर्चों पर जंग लडऩे की क्षमता हासिल करना और पाकिस्तान को सबक सिखाने जैसी बातें इसी श्रेणी में आती हैं। समय-समय पर जारी होने वाली 'रक्षा मंत्री निर्देशिका' सैन्यबलों को आसन्न खतरों के बारे में तैयार रहने को कहती है। हाल ही में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के नेतृत्व में एक समिति बनाई गई है जो राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति के बारे में विचार करेगी। तीनों सैन्य प्रमुखों एवं कई रक्षा विशेषज्ञों को भी जगह दी गई है। लेकिन इसकी उम्मीद कम ही है कि यह समिति खतरा आकलन वाले नजरिये से दूर हो सकेगी।
दूसरा नजरिया राष्ट्रीय हितों पर आधारित राष्ट्रीय सुरक्षा की रणनीति बनाने का है। यह दीर्घावधि लक्ष्य वाला होता है और इसमें एक समय के भीतर रक्षा तैयारी के लिए टिकाऊ ढांचा प्रदान करने पर जोर होता है। मसलन, अगर राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भारत को अगले 15 वर्षों में दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनना जरूरी है तो हमें इसके लिए जरूरी कदमों के बारे में सोचना होगा। इसी तरह हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिए जरूरी कदमों के बारे में भी सोचना होगा। निश्चित रूप से जमीन पर तीन लाख सैनिकों को उतार देना इसका नतीजा नहीं हो सकता है। दुनिया की तीसरी-चौथी सैन्य शक्ति होने के लिए कुछ अलग करने की जरूरत है जिसमें तकनीक, अंतरिक्ष, समुद्र और हवाई शक्ति, सूचना-विज्ञान और कृत्रिम मेधा को पूरी तवज्जो देनी होगी। ऐसा होने पर ही सैन्य आधुनिकीकरण के लिए सीमित संसाधानों का अधिकतम इस्तेमाल किया जा सकता है।
दुर्भाग्य से, हमारे सैन्य योजनाकारों की मौजूदा रणनीति अब भी खतरे पर आधारित है जिसमें सैनिकों की संख्या मायने रखती है। ऐसा तब है जब खतरा पैदा करने वाले दो देशों में से एक चीन आज के समय में अपनी सेना को संख्या के बजाय लंबी अवधि के हितों के हिसाब से ढालने में जुट गया है। सवाल है कि भारत के सैन्य रणनीतिकारों की सोच में ऐसा आमूलचूल बदलाव कैसे आएगा? रक्षा नियोजन समिति जैसे ढांचे से तो यह एकदम नहीं हो सकता है। राजग सरकार ने करगिल युद्ध के बाद राष्ट्रीय सुरक्षा के सभी पहलुओं की समीक्षा के लिए मंत्रियों का एक उच्चाधिकार प्राप्त समूह (जीओएम) बनाया था। उप प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में गठित उस समूह ने तमाम सुझाव दिए थे जिनमें से सामान्य प्रकृति के सुझाव लागू कर दिए गए लेकिन व्यापक सुधार वाले सुझाव रखे रह गए। सेना मुख्यालय को सांकेतिक तौर पर 'रक्षा मंत्रालय का एकीकृत मुख्यालय' नाम दे दिया गया लेकिन सही अर्थों में समेकन बहुत कम हुआ है। तीनों सेनाओं के मुखिया 'चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ' की तैनाती अब तक नहीं हुई है। अगर वह जीओएम हमें हित-आधारित नजरिया अपनाने की तरफ नहीं ले जा सका तो फिर कौन कर पाएगा?
निहित स्वार्थ रखने वाले समूहों को संतुष्ट करने की कोशिश हमें कहीं नहीं ले जाएगी। अब हमारे पास एक ऐसा प्रधानमंत्री है जो पहले नहीं हो पाई चीजें कर पाने का भी दुस्साहस दिखाता है। केवल उनका व्यक्तिगत प्रभाव ही यथास्थिति को तोड़ पाने लायक बनाएगा जैसा नोटबंदी के समय हुआ था। समय आ गया है कि प्रधानमंत्री खुद आगे आकर राष्ट्रीय सुरक्षा की प्रकृति तय करें जो हमारी आकांक्षाओं के साथ जरूरतों में भी तालमेल बिठाए।
(लेखक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के पूर्व सदस्य हैं)
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