बरकरार रहे स्वायत्तता | संपादकीय / July 23, 2019 | | | | |
भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने वित्त मंत्रालय से कहा है कि वह 2019-20 के केंद्रीय बजट के उन पहलुओं पर विचार करे जिनमें उसके संचालन विधान यानी सेबी अधिनियम 1992 में परिवर्तन की बात कही गई है। वित्त विधेयक ने बाजार नियामक की आवश्यकताओं में कुछ अहम बदलाव किए हैं। उदाहरण के लिए प्रस्तावित संशोधन सुझाता है कि हर वर्ष बाजार नियामक द्वारा धारित अधिशेष का तीन चौथाई, सरकार को सौंप दिया जाए। शेष राशि आरक्षित कोष में जाएगी लेकिन उसकी भी सीमा होगी।
सरकार ने दो वर्ष के व्यय की समय सीमा तय की है। सरकार का प्रस्ताव केवल इतना ही नहीं है, संशोधन में यह भी कहा गया है कि सेबी किसी भी तरह के पूंजीगत व्यय के लिए सरकार की अनुमति ले। इन बातों को एक साथ मिलाकर देखा जाए तो अच्छी तरह काम कर रहे नियामक की नियामकीय स्वायत्तता और उसकी शक्तियों में कमी करने का एक खेदजनक सिलसिला शुरू होता नजर आता है। सरकार कह सकती है कि बाजार नियामक को पूंजी की क्या आवश्यकता है और नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक को लग सकता है कि यह सरकारी फंड की संसदीय निगरानी को सीमित करने वाली बात है। परंतु इन प्रस्तावित संशोधनों से कई अन्य सवाल उठ खड़े होते हैं। आरबीआई के उलट यह राशि कोई बहुत बड़ी राशि नहीं है। आरबीआई को अपने नियामकीय परिचालन से अहम राशि मिलती है जबकि सेबी ने 2016-17 में निवेश से केवल 200 करोड़ रुपये की राशि अर्जित की। शेष करीब 500 करोड़ रुपये की राशि उसकी नियामकीय गतिविधियों से आई। मार्च 2019 में सेबी का आरक्षित भंडार 3,800 करोड़ रुपये था। ऐसे में जाहिर है सरकार को सेबी से जो फंड मिलेगा उसका आकार बहुत बड़ा नहीं है।
इससे सरकार के राजकोष में शायद ही कोई अंतर आए। इससे यह चिंता उत्पन्न हुई है कि यह कोशिश शायद नियामक पर नियंत्रण कायम करने के लिए की जा रही है। सेबी के चेयरमैन का यह कहना सही है कि प्रस्ताव पर वित्तीय स्थिरता एवं विकास परिषद द्वारा चर्चा की जा रही है और वित्त विधेयक के जरिये सेबी अधिनियम में संशोधन की कोशिश के बजाय परिषद के अंतिम निर्णय तक प्रतीक्षा की जानी चाहिए थी। सेबी के कर्मचारी संगठन ने भी प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर यह संकेत किया है कि नियामक की अधिशेष राशि को स्वत: देश के समावेशी फंड में हस्तांतरित करने का एक अर्थ यह होगा मानो नियामकीय कदम बाजार प्रतिभागियों पर एक अतिरिक्त कर के समान हों। यह बात व्यापक तौर पर सही है। पत्र आगे आगाह करता है कि इससे एक किस्म का विकृत प्रोत्साहन मिलेगा। सरकार तो हमेशा राजस्व में इजाफा करना चाहती है लेकिन सेबी की चिंताएं कहीं अधिक व्यापक हैं। इनमें बाजार की स्थिरता भी शामिल है। इससे एक किस्म की नैतिक समस्या भी उत्पन्न होगी जिसमें उपरोक्त दोनों तरह के प्रोत्साहन में टकराव उत्पन्न होगा।
पूंजीगत व्यय पर नियंत्रण भी समान रूप से परेशानी की वजह है। यह निर्णय लेने का अधिकार नियामक का होना चाहिए कि उसके काम के लिए अतिरिक्त पूंजीगत व्यय की आवश्यकता है या नहीं। यह काम समुचित रूप से गठित बोर्ड के माध्यम से हो सकता है। नियामक सरकार के नहीं बल्कि बोर्ड के जरिये अपने अधिदेश के प्रति जवाबदेह है। सच तो यह है कि अगर सेबी को लगता है कि वह बाजार प्रतिभागियों से बहुत अधिक शुल्क अर्जित कर रहा है तो उसके मौजूदा अधिदेश के मुताबिक वह बाजार का दायरा बढ़ाने के लिए शुल्क में कमी करेगा। जटिल वित्तीय बाजार की निगरानी के लिए कोई भी कदम उठाने का निर्णय नियामक बोर्ड की सहमति से लेगा, न कि वित्त मंत्रालय की। नियामकीय स्वायत्तता का यही अर्थ है। सरकार को अपनी बात पर पुनर्विचार करना चाहिए। खासकर तब जबकि मामला देश के बाजारों के नियमन और स्थिरता का है।
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