नए बजट में शामिल हैं वही पुरानी बातें | देवाशिष बसु / July 09, 2019 | | | | |
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा प्रस्तुत केंद्रीय बजट में कोई नई बात शामिल नहीं है। बजट भाषण में तमाम ऐसी बातें कही गईं जिनका बजट से कोई लेनादेना ही नहीं है। विस्तार से जानकारी दे रहे हैं देवाशिष बसु
आम बजट आकर चला गया। यह भी तमाम अन्य बजट की तरह ही है। हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी उद्योग जगत ने बजट से अपनी मांग जाहिर करते हुए ज्ञापन सौंपे, कारोबारियों ने अपनी इच्छाएं प्रकट कीं और वित्तीय विशेषज्ञों, विश्लेषकों और फंड प्रबंधकों ने उम्मीद जताई कि संसद में जबरदस्त बहुमत वाली नई सरकार सुधारों को अंजाम देगी। जाहिर तौर पर बीते 25 वर्ष से देश में सुधारों का आगमन हो ही रहा है। ठीक सैमुएल बेकेट के नाटक गॉडॉट की तरह। बजट के दिन हमने सामान्य प्रक्रिया के तहत यह देखना शुरू किया कि वित्त मंत्री ने प्रस्तावों, विचारों और कर बदलावों के रूप में क्या पेशकश की है। आइए देखते हैं कि बाजार और कारोबारी क्या उम्मीद कर रहे थे और उन्हें वास्तव में क्या मिला? कारोबारी जगत की कई उम्मीदें थीं। मिसाल के तौर पर दीर्घावधि के पूंजीगत लाभ कर को समाप्त करना, वित्तीय कंपनियों के लिए प्रोत्साहन पैकेज, आय कर स्लैब में बदलाव और निजीकरण को बढ़ावा देना आदि। परंतु इसके बदले हमें जो मिला उनमें शेयरों की पुनर्खरीद और प्रवर्तक अंशधारिता का जबरन नकदीकरण 25 फीसदी से बढ़ाकर 35 फीसदी करने जैसे प्रतिगामी कदम शामिल हैं। यह दशकों से लंबित था।
उनके भाषण के मुख्य हिस्सों का केंद्रीय बजट से कोई लेनादेना नहीं था। ये नीतिगत घोषणाएं और वक्तव्य थे जिनको कभी भी घोषित किया जा सकता था। उदाहरण के लिए वित्त मंत्री ने बैंकों में 70,000 करोड़ रुपये की पूंजी डालने की घोषणा की। वित्त मंत्री रहते हुए अरुण जेटली ने अक्टूबर 2017 में बैंकों में 2.11 लाख करोड़ रुपये की पूंजी डालने की घोषणा की थी। यह घोषणा बजट में नहीं की गई थी। वित्त मंत्री के बजट भाषण का कुछ हिस्सा तो केवल घोषणाएं था। सूचीबद्घ कंपनियों के प्रवर्तकों को अपनी हिस्सेदारी बेचकर 65 फीसदी या उससे कम करना न तो व्यय है और न ही संसाधन बढ़ाने वाला प्रस्ताव। हकीकत में तो यह किसी तरह का प्रस्ताव भी नहीं है। यह भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) को दिया गया एक सुझाव भर था। इससे भी बुरी बात यह है कि यह विचार 2006 का है लेकिन सेबी द्वारा तारीख तय करने के बावजूद इसे लागू करने की तारीख आती और जाती रही। हालांकि सरकार अब तक सरकारी कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी को 75 फीसदी से कम नहीं कर सकी है लेकिन बजट भाषण में बढ़चढ़कर इसकी हिस्सेदारी 65 फीसदी तक कम करने की बात कही जा रही है।
तमाम और ऐसे विचार हैं जिनका आम बजट से कोई लेनादेना नहीं है। उदाहरण के लिए नई शिक्षा नीति, यात्री माल वहन सेवाओं के तेज विकास के लिए निजी-सार्वजनिक भागीदारी, राष्टï्रीय राजमार्ग ग्रिड तैयार करने के लिए राष्टï्रीय राजमार्ग कार्यक्रम का पुनर्गठन और सड़कों तथा रेल पर से भीड़भाड़ कम करने के क्रम में माल ढुलाई के लिए नदियों का इस्तेमाल करना आदि। ये बातें मैं सन 1985 से सुन रहा हूं जब मैं पत्रकारिता में आया था। इसके बाद बात आती है 100 लाख करोड़ रुपये की जिसे अगले पांच वर्ष में बुनियादी क्षेत्र में निवेश किया जाना है। इन बड़े आंकड़ों का जिक्र करने के बाद वित्त मंत्री ने कहा कि विकास वित्त संस्थानों (डीएफआई) के जरिये फंड की आवक और ढांचा सुनिश्चित करने केलिए विशेषज्ञ समिति का गठन किया जाएगा। ये संस्थान कौन से होंगे? क्योंकि भारतीय डीएफआई चरणबद्ध तरीके से बाहर हो चुके हैं और सन 1990 के बाद उन्हें योजनापूर्वक बैंकों में बदल दिया गया है।
कर प्रावधानों में विशिष्ट बदलावों (आमतौर पर कर में बढ़ोतरी) के अलावा बजट घोषणाओं में कुछ खास सार्थक नहीं है। सच तो यही है कि बजट में घोषित बातों से बहुत अधिक विचलन देखने को मिलेगा और कई नीतिगत पहल बाद में घोषित की जाएंगी। वैसे भी मोदी प्रधानमंत्री हैं तो तमाम कार्यक्रम तैयार करने, उन पर नियंत्रण और उनका क्रियान्वयन उनके ही पास रहता है। यह बात दीगर है कि हमेशा बहुत अच्छे नतीजे नहीं सामने आते। बजट के बाद मोदी ने रस्मी तौर पर यह घोषणा की कि बजट देश को समृद्ध और लोगों को समर्थ बनाएगा। आलोचना के प्रति संवेदनशील मोदी ने बजट की आलोचना करने वालों को खारिज करते हुए कहा कि ऐसे लोग पेशेवर निराशावादी हैं। हकीकत में उन्होंने हम जैसे लोगों को खारिज कर दिया और अब वह अपनी इच्छा के मुताबिक आगे काम करेंगे। यह निजाम क्या कहता है इस पर ध्यान देने के बजाय हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि यह क्या करता है।
हर आम बजट में यह कवायद होती है कि सरकार के फाइनैंस की कमियों को छिपाया जाए। यह सरकार ऐसी है कि वित्त मंत्री ने राजकोषीय घाटे तक का जिक्र नहीं किया जबकि अर्थशास्त्री प्राय: इस पर चर्चा करते हैं। बजट का दूसरा अहम लक्ष्य है इस बात पर चर्चा करना कि सरकार अगले वर्ष कितनी राशि जुटाएगी। इसके लिए लोगों और व्यवस्था के सबसे उत्पादक हिस्से यानी उद्यमों पर कर लगाया जाता है। इसकी मदद से ही सरकार चलती है। कर राजनेताओं को यह सुविधा भी देते हैं कि वे अपनी समाजवादी योजनाओं को चलाते रह सकें। ये योजनाएं उन्हें चुनाव जिताने में मददगार साबित होती हैं। अब तक किसी बजट में सरकार की पूंजीगत व्यय की समस्या को हल नहीं किया गया जबकि इसमें सुधार होने से काफी बदलाव आ सकता है। परंतु कारोबारों, बैंक, शिक्षा और परिवहन, बुनियादी ढांचा और स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में सरकार की मजबूत पकड़ के चलते साल दर साल पूंजी भारी पैमाने पर नष्ट हो रही है। यही कारण है कि लोगों से अधिक से अधिक संसाधन जुटाए जा रहे हैं। इसका असर उपभोक्ता मांग और कारोबारी व्यय पर पड़ रहा है। जबकि यह क्षेत्र वृद्धि और रोजगार तैयार कर सकता है।
हम यह सब देखते हैं और कई बार इसका विरोध भी करते हैं। इसके बावजूद साल दर साल लोग इस अक्षम ढांचे को स्वीकार करते आ रहे हैं। यह आशा करना बेमानी है कि मामूली छेड़छाड़ से कोई बड़ा बदलाव देखने को मिलेगा। एक कहावत है जिसका अर्थ है कि यदि आपने एक बार मुझे बेवकूफ बनाया तो आपको शर्म आनी चाहिए लेकिन अगर मैं दोबारा बेवकूफ बना तो यह मेरे लिए शर्म की बात है। यहां तो हम बार-बार बेवकूफ बन रहे हैं।
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