आर्थिक वृद्धि में तेजी के लिए रणनीतिक कदम | नितिन देसाई / July 08, 2019 | | | | |
आर्थिक समीक्षा और बजट भाषण दोनों में आर्थिक वृद्धि दर को मौजूदा 6-7 फीसदी दायरे से आगे ले जाने की जरूरत पर बल दिया गया है। अगले पांच वर्षों में अर्थव्यवस्था का आकार 5 लाख करोड़ डॉलर तक पहुंचाने का लक्ष्य अब साफ तौर पर आर्थिक नीति के केंद्र में है। लेकिन इस लक्ष्य के लिए जरूरी 10-11 फीसदी वृद्धि दर विनिर्मित उत्पादों के उत्पादन एवं विनिमेय सेवाओं में खास तेजी लाए बगैर संभव नहीं है। इसके साथ ही ढांचागत क्षेत्र, पूंजी बाजार और श्रम गतिशीलता में भी जबरदस्त सुधार लाने की जरूरत होगी।
वृहद स्तर पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में विनिर्माण की हिस्सेदारी करीब चार दशकों से 17 फीसदी के आसपास टिकी हुई है। सूचना प्रौद्योगिकी और पर्यटन जैसे क्षेत्रों में विनिमेय सेवाओं की हिस्सेदारी बढ़ी है। कुल मिलाकर तैयार उत्पाद बनाने वाले उद्योगों का हिस्सा बुनियादी सामग्री के बरक्स बढ़ा है। विनिर्माण उद्योगों में वृद्धि तेज हो सकती है अगर मांग में वृद्धि होती है। घरेलू उपभोग की मांग आर्थिक वृद्धि का वाहक नहीं हो सकता है क्योंकि इसके त्वरित वृद्धि का कारण होने के बजाय उसका नतीजा होने की अधिक संभावना है। इस साल के बजट में नए सिरे से समर्थित आयात प्रतिस्थापन की पुरानी नीति की सीमित संभावना है और वैश्विक प्रतिस्पद्र्धात्मकता की मंशा पर चोट करता है। हालांकि हमारी बड़ी जरूरतों को देखते हुए रक्षा या मेट्रो रेल जैसी ढांचागत परियोजनाओं या सार्वजनिक सेवा के डिजिटल नेटवर्क के लिए उन्नत उपकरणों की सार्वजनिक खरीद कुछ परिष्कृत इंजीनियरिंग उद्योगों में वृद्धि को रफ्तार दे सकती है, अगर खरीद का फैसला करने वालों का लंबी अवधि का नजरिया हो। हालांकि अर्थव्यवस्था पर इसका व्यापक प्रभाव कम होगा और बाहरी मांग में व्यापक तेजी विनिर्माण निर्यात एवं विनिमेय सेवाओं की वृद्धि का नतीजा होनी चाहिए।
आर्थिक समीक्षा तीव्र वृद्धि को लेकर चीन के रिकॉर्ड का जिक्र करती है जिसमें विनिर्माण क्षेत्र की निर्यात-केंद्रित वृद्धि ने अहम योगदान दिया था। वृद्धि रणनीति को लेकर चीन और कुछ पूर्व-एशियाई देशों के दृष्टिकोण को निर्यात-केंद्रित बैकवर्ड इंटिग्रेशन के रूप में परिभाषित किया जाता है। मूल कंपनी के सक्रिय प्रवर्तन में संचालित हो रही घरेलू कंपनियों ने आयातित तकनीक, उपकरणों एवं माल के सहारे उच्च वृद्धि वाले निर्यात-योग्य उत्पाद बनाने से लेकर उत्पादन में इस्तेमाल होने वाले इनपुट उत्पादों के विनिर्माण की भी क्षमता हासिल कर ली। तकनीकी विकास का स्वदेशीकरण मुख्य रूप से मूल कंपनियों के रास्ता दिखाने से ही संभव हो पाया।
भारत में ऐसा नहीं हुआ है। मसलन, हमारे दवा उद्योग का निर्यात काफी तेजी से बढ़ा है। लेकिन यह अब भी काफी हद तक चीन से आयात किए जाने वाले रसायनों पर ही आश्रित है। हालिया उदाहरण स्मार्टफोन उद्योग का है जो भारत में असेंबलिंग गतिविधि भर ही है। निर्यात के मोर्चे पर सफल एक और क्षेत्र सॉफ्टवेयर सेवा है। लेकिन इसमें आंशिक बैकवर्ड इंटिग्रेशन ही हुआ है और कृत्रिम मेधा एवं मशीन लर्निंग जैसे अग्रिम क्षेत्रों में तो बहुत कम हुआ है।
भारत पूर्व एशियाई देशों का उदाहरण अपना सकता था और उसने ऑटो क्षेत्र में यह किया भी था लेकिन वह बढ़ती घरेलू मांग का नतीजा था निर्यात का नहीं। जब 1980 के शुरुआती दशक में मारुति आई तो उसने सुनिश्चित खरीद, वित्त एवं तकनीकी मदद के व्यवस्थित तरीके से कल-पुर्जा उत्पादन को बढ़ावा दिया था। आज भारत में वैश्विक रूप से प्रतिस्पद्र्धी ऑटोमोबाइल एवं उपकरण उद्योग हैं जो एक महत्त्वपूर्ण वैश्विक खिलाड़ी के तौर पर उभरा है।
हम इस नजीर को दोहराने के लिए क्या कदम उठा सकते हैं? बैकवर्ड इंटिग्रेशन के लिए प्रोत्साहन देने वाली निर्यात-केंद्रित रणनीति एक नवजात उद्योग रणनीति से खासी अलग है क्योंकि इसमें सक्षमता एवं लागत कटौती के लिए अंतर्जात दबाव होता है।
निर्यात-केंद्रित रणनीति इन चार बातों की प्रचुरता पर निर्भर करती है। गैर-विनिमेय इनपुट खासकर ढांचागत सेवाओं की सक्षम आपूर्ति, जरूरी कौशल रखने वाले श्रमिकों की उपलब्धता, खरीद क्षमता अनुरूपता एवं उत्पादकता में परिवर्तन के अनुरूप विनिमय दर और तकनीकी गतिशीलता की प्रचुरता मायने रखती है।
बिजली, परिवहन और संचार जैसे बुनियादी ढांचे की उपलब्धता आज के समय में विनिर्माण निवेश के लिए बड़ी समस्या नहीं रह गई है। असली समस्या कारोबार सहूलियत और व्यापार नीति-निर्माण, मंजूरियां, सीमा नियंत्रण और कर प्रशासन के प्रशासनिक ढांचे से है। उदाहरण के तौर पर जीएसटी रिफंड में निर्यातकों को आ रही दिक्कतों को देख सकते हैं।
जरूरी कौशल रखने वाले श्रमिकों की उपलब्धता अहम है लेकिन यह निर्यात अवसरों का फायदा उठाने की पूर्व-शर्त नहीं है। जब मौके आते हैं तो रोजगार की तलाश करने वाले लोग अपने पैसे लगाकर संबंधित कौशल हासिल कर लेते हैं। कॉल सेंटर और सॉफ्टवेयर कोडिंग के क्षेत्र में निर्यात संभावनाएं बढऩे के समय हम ऐसा देख चुके हैं।
नौकरी के दौरान प्रशिक्षण देने पर अपेक्षाकृत कम लागत आती है और इससे यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि कौशल की कमी निर्यात वृद्धि में अवरोधक न बने। हालांकि शिक्षा एवं प्रशिक्षण का एक बुनियादी स्तर होना जरूरी है और वह तैयार भी किया जा चुका है। फिर भी हमारी शिक्षा एवं प्रशिक्षण व्यवस्था में प्राइमरी स्कूलों से लेकर उच्च शिक्षा तक गुणवत्तापरक सुधार लाने की जरूरत है।
विनिमय दर प्रबंधन भी महत्त्वपूर्ण है। वर्ष 2002-03 और 2011-12 के बीच भारत का गैर-तेल निर्यात पांच गुना बढ़कर 50 अरब डॉलर से 250 अरब डॉलर हो गया। उसके बाद से गैर-तेल निर्यात का डॉलर मूल्य कम होता गया है। निर्यात-संवद्र्धित वास्तविक विनिमय दर उच्च वृद्धि के दौरान 2004-05 के स्तर पर कमोबेश स्थिर थी। लेकिन उसके बाद से वास्तविक विनिमय दर बढऩे से निर्यात कम प्रतिस्पद्र्धी हो गया है और धीमे विकास के लिए यह भी आंशिक रूप से जिम्मेदार होना चाहिए।
ये तीनों कारक मध्यम अवधि के लिए अहम हैं लेकिन दीर्घावधि में विनिर्माता एवं कारोबारी सेवाओं के निर्यात के लिए कंपनी एवं देश के स्तर पर तकनीकी क्षमता रखना सबसे ज्यादा मायने रखता है। तकनीकी गतिशीलता उत्पादकता बढ़ाने वाले कारक या ऊर्जा और माल उत्पादकता में सुधार से कहीं अधिक है। इसमें शूम्पीटर के आर्थिक सिद्धांत का वह पहलू भी शामिल हो जो नए उत्पादों, प्रक्रियाओं, व्यवसाय प्रवृतियों के रूप में लागू नवाचारों की दर और नए बाजारों के विकास की दर का जिक्र करता है।
बाह्य बाजार-उन्मुख विकास रणनीति तकनीकी गतिशीलता पर दोनों तरह से दबाव डालती है। कीमत को प्रतिस्पद्र्धी बनाए रखने की जरूरत के चलते संसाधन सक्षमता में सुधार और विकसित होते वैश्विक बाजारों में प्रासंगिक बने रहने के लिए नए उत्पादों एवं प्रक्रिया के नवाचारी विकास के लिए तकनीकी गतिशीलता। कमतर विनिमय दर से मदद मिल सकती है और अधिमूल्य वाली विनिमय दर कीमत प्रतिस्पद्र्धा को चोट पहुंचा सकती है। लेकिन एक वैश्विक बाजार में प्रवेश और वहां टिके रहने के लिए दोनों ही संभावनाएं बेहद कम गुणवत्ता मानकों और नवाचार के जरिये इनमें किए जाने वाले बदलावों पर निर्भर करेगा।
निर्यात-केंद्रित बैकवर्ड इंटिग्रेशन रणनीति की राह में सबसे बड़ी बाधा नीति बनाने का वह तरीका है जिसमें नए सिरे से डिजाइन साधनों के बजाय बड़े लक्ष्यों पर जोर दिया जाता है। आर्थिक वृद्धि की कारगर नीतियां साध्य के बजाय साधनों पर अधिक बल देती हैं।
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