वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा गत सप्ताह प्रस्तुत पहले बजट में अतीत की जिन परिपाटियों को तोड़ा गया उनमें सबसे अहम है राजकोषीय घाटे की भरपाई के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजारों से विदेशी मुद्रा में ली गई उधारी का आंशिक इस्तेमाल। इसके पीछे मूल विचार यह है कि अपनी उधारी का एक हिस्सा विदेशी मुद्रा में करके सरकार घरेलू बाजार पर दबाव कम कर सकेगी। इससे ब्याज दरों को कम रखने में सहायता मिलेगी। सरकारी क्षेत्र की उधारी बाजार दरों पर अहम दबाव बना रही है। साथ ही इसका व्यवस्था में नकदी पर भी बुरा असर पड़ रहा है। यह अन्य चीजों के अलावा मौद्रिक नीति पारेषण को प्रभावित कर रहा है।
जैसा कि इस समाचार पत्र में गत सप्ताह कहा गया था, यह एक अच्छा विचार है बशर्ते कि इसे सफलतापूर्वक अंजाम दिया जाए। सरकार कम वैश्विक ब्याज दरों का फायदा उठा सकती है क्योंकि निकट भविष्य में उनमें इजाफे का कोई संकेत नहीं है। बहरहाल, यह काम सावधानीपूर्वक करना होगा और अतिउत्साह से बचना होगा क्योंकि इस विचार के साथ अनेक जोखिम जुड़े हुए हैं। यही कारण है कि अब तक इस उपाय को अपनाने से परहेज किया गया। उदाहरण के लिए ऐसा करके सरकार मौद्रिक जोखिम भी लेगी। रुपये का अवमूल्यन सरकार की जवाबदेही बढ़ा देगा। वहीं दूसरी ओर विदेशी पूंजी का कुल आयात बढऩे से रुपये पर दबाव बन सकता है जो निर्यात को प्रभावित कर सकता है। ऐसे में केंद्रीय बैंक के लिए मुद्रा प्रबंधन और कठिन हो जाएगा।
दूसरा, इससे वैश्विक वित्तीय बाजारों के समक्ष सरकार का जोखिम बढ़ेगा। ऐसे में अगर उभरते बाजारों को लेकर धारणा में बदलाव आया और जोखिम से बचने की प्रवृत्ति उत्पन्न हुई तो भारत के सॉवरिन बॉन्ड पर इसका प्रभाव पड़ सकता है। इसका सीधा असर रुपये आधारित सरकारी बॉन्ड में हिस्सेदारी रखने वाले विदेशी निवेशकों के नजरिये पर पड़ेगा और डेट और करेंसी बाजारों में अस्थिरता बढ़ेगी।
तीसरा, इससे विदेशी निवेशक रुपये वाले सरकारी बॉन्ड में निवेश के प्रति हतोत्साहित हो सकते हैं क्योंकि उनके पास मुद्रा बॉन्ड में निवेश का विकल्प होगा और वे रुपये से जुड़े मौद्रिक जोखिम से बच सकेंगे। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय बाजार तक पहुंच बनाने का वास्तविक लाभ कम हो सकता है।
चौथा, घरेलू बॉन्ड बाजार सरकार के लिए बॉन्ड आपूर्ति में मूल्य समायोजन की संकेतक प्रणाली के रूप में काम करता है। वैश्विक बाजार में भारी मात्रा में बॉन्ड जारी होना इस प्रक्रिया को नुकसान पहुंचा सकता है। हकीकत में सरकार विदेशी ऋण लेने को प्रोत्साहित होगी क्योंकि इससे घरेलू ब्याज दरों को नियंत्रित रखने में मदद मिलेगी। स्वाभाविक बात है कि इससे वित्तीय स्थिरता को जोखिम बढ़ेगा। इतिहास बताता है कि विदेशी मुद्रा ऋण का संचय कठिनाई पैदा कर सकता है।
लैटिन अमेरिका और पूर्वी एशियाई देशों में ऐसा हो चुका है। ऐसे में यह अहम है कि सरकार इस विकल्प का इस्तेमाल सावधानीपूर्वक करे। इस संदर्भ में सरकार अगर एक स्वतंत्र राजकोषीय परिषद का गठन करे तो बेहतर होगा। सन 2017 में राजकोषीय जवाबदेही एवं बजट प्रबंधन नियम की समीक्षा के लिए गठित एन के सिंह समिति ने भी इसकी अनुशंसा की थी। समग्र राजकोषीय प्रबंधन का आकलन करने वाली समिति सरकार को विदेशी ऋण के उचित स्तर पर भी सलाह दे सकती है। इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय अनुभव बताते हैं कि जिन देशों में स्वतंत्र राजकोषीय परिषद है वहां राजकोषीय स्थिति बेहतर है। व्यापक तौर पर देखें तो परिषद बाजार में भरोसा बढ़ाएगी और व्यवस्था में ऋण लागत को कम करेगी।
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