बुर्जुआ, लोकलुभावनवाद और योग्यता का गणित | |
अजित बालकृष्णन / 07 01, 2019 | | | | |
क्या योग्यता को वरीयता देने के नाम पर तमाम सुविधाओं को एक खास तबके तक सीमित कर दिया गया है? इस विषय का गंभीरता से विश्लेषण कर रहे हैं अजित बालकृष्णन
ऐसा कोई दिन नहीं बीतता जब कोई न कोई गंभीर विचारक बुर्जुआवाद, लोकलुभावनवादी या योग्य लोगों के शासन को लेकर अपनी राय प्रकट नहीं करता हो। ये विचार किसी अखबार के संपादकीय अथवा स्तंभ में प्रकाशित हो सकते हैं, किसी पत्रिका में या किसी वेबसाइट में। कई बार ये कार्यस्थल पर आपसी चर्चा में सामने आ सकते हैं तो कभी किसी मित्र के साथ शाम गुजारते हुए। आइए एक नजर डालते हैं नाराजगी से भरी इस बातचीत की शब्दावली पर। 'खान मार्केट गैंग' (माना जाता है कि यह जुमला राजनीतिक परिवारों के उन युवा सांसदों के लिए गढ़ा गया जो संसद के भोजनावकाश में खान मार्केट स्थित महंगे रेस्तरां में दोपहर का भोजन करते हैं लेकिन अब यह आर्थिक या सामाजिक रूप से वरीयता वाले किसी भी व्यक्ति के लिए प्रयोग में आता है) 'लोकलुभावनवादी' (वंचित वर्ग के बड़े समूह को नकद या अन्य उपहारों के जरिये अपने साथ जोडऩे का हिमायती राजनैतिक वर्ग), 'धर्मनिरपेक्ष' (ऐसा व्यक्ति जो अल्पसंख्यक धार्मिक समूहों के अधिकार को सही मानता हो), 'छद्म धर्मनिरपेक्ष' (ऐसा व्यक्ति ढोंग के जरिये धार्मिक अल्पसंख्यकों का समर्थन हासिल करने की कोशिश करता हो), 'योग्यतावादी'(जो पदोन्नति से लेकर दाखिले तक में केवल योग्यता को वरीयता देने के हिमायती हों), 'आरक्षणवादी'(ऐसे लोग जो योग्यता के अलावा अन्य मानकों के हिमायती हों)...यह सूची बहुत लंबी है।
यह समझने के लिए बहुत विद्वान होने की आवश्यकता नहीं है कि इन सभी शब्दों का इस्तेमाल निंदात्मक लहजे में किया जाता है। अगर आप किसी को खान मार्केट गैंग का सदस्य बताते हैं तो आप खुद को उससे अलग मानते हैं। इसी प्रकार अगर आप किसी को बुर्जुआ वर्ग का सदस्य बताते हैं तो आप खुद को उस वर्ग का नहीं मानते हैं। शायद वक्त आ गया है कि बतौर भारतीय हमें यह आत्मावलोकन करना चाहिए कि क्या हमारा समाज ऐतिहासिक रूप से और आजादी के बाद आधी सदी में भी राजनीति, प्रशासन और कॉर्पोरेट जगत में बड़े पदों पर आसानी लोगों के बेटे और बेटियां ही वह जिम्मेदारी संभालते हैं? बड़े शहरों में रहने वाले और अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ाई करने वालों को जीवन में इन उच्च पदों को प्राप्त करने में आसानी होती है?
अगर आप किसी गांव में पले बढ़े हैं और हिंदी या अन्य क्षेत्रीय भाषा के विद्यालय में पढ़े हैं तो जीवन में ऐसी सफलता पाने की संभावना सीमित है? अगर चुनावी वर्ष में इस तरह लोगों के नाम निकालने का सिलसिला चले तो आसानी से यह कहकर लोगों का दिमाग घुमाया जा सकता है कि चुनावों की गरमागरमी में ऐसी बातें हो जाती हैं और हमेशा इन बातों का मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए। यह भी कहा जा सकता है कि माहौल बदलने के साथ ही सभ्यता और सहयोग की संस्कृति वापस लौट आती है।
आखिरकार दुनिया की फिक्र करना, खासतौर पर उन लोगों की फिक्र करना जो आर्थिक रूप से हमसे कमजोर हैं, वह उदारता का परिचायक है और इसे लोकलुभावनवाद कहकर इसकी निंदा नहीं करनी चाहिए। अगर आप किसी को हमेशा महंगे रेस्तरां में खाते-पीते देखते हैं तो आप मुस्करा कर स्वयं से यह कह सकते हैं कि वह एक अमीर आदमी है। आप हमेशा उसे बुर्जुआ कहकर नहीं पुकारते। सन 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डॉनल्ड ट्रंप की जीत के कारणों को समझने का प्रयास कर रहे विद्वानों का कहना है कि उनके मतदाता मोटे तौर पर श्वेत कामगार वर्ग के स्त्री-पुरुष थे। खासतौर पर ऐसे लोगों ने उन्हें वोट दिया जिन्होंने कॉलेज में शिक्षा तक नहीं ग्रहण की थी। इनमें ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोग शामिल थे।
उनके मतदान की वजह स्पष्ट थी। उन्हें लगता था कि व्यवस्था और बुर्जुआ वर्ग द्वारा उनकी अनदेखी की गई है। ब्रिटेन में 2016 में यूरोपीय संघ से अलग होने के लिए किए गए मतदान में मिली चौंकाने वाली सफलता भी ब्रिटिश बुर्जुआ वर्ग के खिलाफ जनता का रोष था। मतदाताओं ने अपनी अभिव्यक्ति में शायद यही कहा कि ब्रिटिश राजनेताओं, कारोबारी नेताओं और बौद्घिकों ने व्यवस्था पर नियंत्रण का अधिकार गंवा दिया है और बुर्जुआ वर्ग ने सामान्य लोगों के मूल्यों और हितों का अतिक्रमण किया है। इटली, हंगरी, पोलैंड, स्लोवेनिया और चेक गणराज्य में भी बुर्जुआ विरोधी नेता सत्ता में हैं।
कुछ पर्यवेक्षक इस बुर्जुआ विरोधी और लोकलुभावन समर्थक लहर को वैश्वीकरण की विचारधारा का प्रतिरोध मानते हैं। वैश्वीकरण की अवधारणा दूसरे विश्वयुद्घ के बाद पनपी और इसने ही अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व व्यापार संगठन जैसी संस्थाओं को जन्म दिया। मौजूदा बुर्जुआ विरोधी आंदोलन की मान्यता है कि ऐसे संस्थान स्थानीय निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं और बड़े संस्थानों को अधिकार संपन्न बनाते हैं। इनका इस्तेमाल बड़े कारोबारियों के कॉर्पोरेट और वित्तीय हितों को पूरा करने, प्राकृतिक संसाधन जुटाने, आदि में किया जाता है।
भारतीय संदर्भ में देखें तो वैश्वीकरण से निर्मित इन संस्थानों में से किसी संस्थान में रोजगार पाना योग्यता के उन मानकों पर सफलता हासिल करना रहा है जिनमें कैट, जेईई एडवांस, जीआरई जैसी परीक्षाएं शामिल हैं। हम मानते हैं कि युवाओं को उनके सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य से परे शीर्ष शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश का अवसर मिलना चाहिए। इनमें आईआईएम, आईआईटी, नैशनल लॉ स्कूल और सरकारी चिकित्सा महाविद्यालय शामिल हैं। हमारा मानना रहा है कि ऐसे सरकारी संस्थान और ऐसी प्रवेश प्रक्रिया से ही हमारे दौर के शीर्ष पेशे सभी सामाजिक और आर्थिक वर्ग के बच्चों के लिए उपलब्ध होंगे। ये केवल बुर्जुआ परिवारों के बच्चों तक सीमित नहीं रहेगा। परंतु इस बीच नए शोध लगातार यह बता रहे हैं कि इन परीक्षाओं के परिणाम में सामाजिक आर्थिक दर्जा मुखर होकर सामने आ रहा है।
ऐसा इसलिए क्योंकि शिक्षित और प्रभावशाली माता-पिता अपने बच्चों को बेहतर स्कूली शिक्षा और महंगा ट्यूशन दिलाने में सक्षम हैं। यह इन परीक्षाओं को पास करने के लिए लगभग जरूरी हो गया है। इसके अलावा इन संस्थानों की प्रवेश प्रक्रिया या सामूहिक चर्चा आदि में अच्छी अंग्रेजी बोलना आना आवश्यक है। कमजोर और वंचित तबके से आने वाले बच्चे इसमें पीछे रह जाते हैं। इस संदर्भ में देखा जाए तो क्या ऐसा हो सकता है कि यह लोकलुभावन लहर नहीं बल्कि उस व्यवस्था में बदलाव का वोट हो जिसने योग्यता के नाम पर तमाम लाभ एक संकीर्ण अल्पांश समुदाय तक सीमित कर दिए हैं।
|