सरकारी कामकाज में उचित प्रक्रिया को तरजीह | शुभमय भट्टाचार्य / May 26, 2019 | | | | |
अशोक लवासा ने जब अप्रैल 2016 में सचिव (व्यय) का पद संभाला तो उन्होंने पहला काम यह किया कि वह सरकार के आंकड़ों को प्रस्तुत करने की प्रक्रिया में पारदर्शिता लाए। अपने कार्यकाल के दौरान राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार ने बजट पेश करने की तिथि में बदलाव किया। पहले बजट फरवरी के अंत में पेश किया जाता था लेकिन अब यह जनवरी के अंत में पेश किया जाता है। इसी तरह पहले रेल बजट भी अलग से पेश किया जाता था लेकिन अब इसे आम बजट में मिला दिया गया है। योजनागत और गैर योजनागत व्यय के बीच अंतर को भी खत्म कर दिया गया है।
लवासा को इस बात की खुशी है कि वह बजट के आंकड़ों में पारदर्शिता लाने में सफल रहे। उन्होंने एक ऐसा प्रारूप बनाया जिसके तहत केंद्र सरकार के हर विभाग को अपने संचालन के खर्च के बारे में अलग से ब्योरा देना था। यह उन्हीं के प्रयासों का नतीजा था कि आज बजट दस्तावेज को पढऩा बेहद आसान हो गया है। लवासा को सरकार के कामकाज में उचित प्रक्रिया अपनाना पसंद करते हैं। उनका मानना है कि इससे कामकाज की गुणवत्ता में सुधार आता है। उनकी यही प्रक्रिया की भावना इन आम चुनावों मुसीबत का सबब बन गई और दो साथी चुनाव आयुक्तों के साथ असहमति सुर्खियां बन गई।
हरियाणा कैडर के 61 साल के आईएएस अधिकारी को जब जनवरी 2018 में चुनाव आयुक्त बनाया गया तो वह इसी प्रक्रिया की भावना को साथ लाए। उनका कहना है कि हाल के विवाद में प्रक्रिया की यह भावना परेशान हुई है। यह विवाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह के प्रचार अभियान के दौरान आदर्श आचार संहिता के कथित उल्लंघन के नौ मामलों से जुड़ा है। तीन सदस्यीय चुनाव आयोग ने 2-1 के बहुमत के साथ इन शिकायतों को खारिज कर दिया। इसमें मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा, लवासा और एक अन्य चुनाव आयुक्त सुशल चंद्र शामिल थे। लगभग हर मामले में लवासा ने असहमति व्यक्त की। उन्होंने इस बात का दु:ख नहीं है कि उनकी राय को खारिज कर दिया गया बल्कि इस बात से खफा हैं कि उनकी राय को सार्वजनिक नहीं किया गया। उन्होंने तीन बार अरोड़ा को लिखा कि अगर उनकी राय को आदेशों में शामिल नहीं किया गया तो वह आचार संहिता से जुड़ी कार्यवाही से दूर रहेंगे। वे मानते हैं कि मतभेदों को सार्वजनिक करने से चुनाव आयोग की विश्वसनीयता बढ़ती। भारतीय प्रतिस्पद्र्घा आयोग, भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड और यहां तक कि भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति में असहमति को रिकॉर्ड किया जाता है तो चुनाव आयोग को भी ऐसा करने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
ऐसा लगता है कि लवासा की दलील से चीजों में बदलाव आ सकता है। लवासा 2021 में मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा की जगह लेंगे। लेकिन वह 2024 में होने वाले अगले आम चुनावों तक सेवानिवृत्त हो जाएंगे। लवासा के पास इस बात को लेकर दिलचस्प तर्क है कि क्यों नियमों का पालन किया जाना चाहिए। पर्यावरण सचिव के रूप में उन्होंने परियोजनाओं को पर्यावरण मंजूरी देने के संबंध में विस्तृत नियम बनाए। उन्होंने कहा, 'मैंने वित्तीय और प्राकृतिक दोनों तरह के संसाधनों को संभाला है और मैं जानता हूं कि उन्हें कैसे गंवाया जा सकता है या बचाया जा सकता है। बचाने से मेरा मतलब यह नहीं है कि उन्हें संरक्षित रखा जाए या उनका इस्तेमाल न हो, बल्कि हम कम संसाधनों के साथ अधिक से अधिक परिणाम कैसे ला सकते हैं।'
इसी तरह वित्त सचिव के रूप में लवासा ने सभी विभागों को उन सभी योजनाओं को खत्म करने का निर्देश दिया जिनकी खत्म होने की तारीख है। बाकी योजनाओं को जारी रखने के लिए मंत्रालयों और विभागों से वित्त मंत्रालय से बातचीत करने को कहा गया। उनके विभाग ने इस संबंध में जारी पत्र में कहा, 'अगर योजना के नतीजों के बारे में समीक्षा सकारात्मक रही है और यह अपने उद्देश्यों को हासिल करने में कारगर रही है लेकिन इसे जारी रखना जरूरी है तो इसके लिए अनुमति मांगी जा सकती है।' उन्होंने खासकर इस बात पर जोर दिया था कि व्यय विभाग मानकों पर खरी नहीं उतरने वाली योजना का विलय कर सकता है या उसे खत्म कर सकता है। वास्तव में इसी तरह के कुछ प्रयासों के कारण सरकार 2018-19 में राजकोषीय घाटे के अपने लक्ष्य को हासिल कर पाई थी।
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