नई दिल्ली में आयोजित अपने पहले और एकमात्र राष्ट्रीय संवाददाता सम्मेलन में प्रधानमंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह ने यह घोषणा की थी कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार अपना पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा करेगी। यह बात 4 सितंबर, 2004 की है। उस समय उनकी बात को बहुत कम लोगों ने गंभीरता से लिया था। आम धारणा उस समय यही थी कि या तो मनमोहन सिंह बीच में ही कुर्सी से अलग हो जाएंगे या संप्रग सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाएगी। अब जब देश अगले आम चुनाव की ओर अग्रसर हो रहा है तो ऐसे में गंभीरता से सोचने वाली बात यह है कि न तो मनमोहन सिंह ने मध्यावधि में अनिच्छा से कुर्सी छोड़ी, जैसी कि कुछ लोगों को आशंका थी और न ही यह सरकार अपना कार्यकाल समाप्त होने से पहले लड़खड़ाई है। असल में मनमोहन सिंह सरकार अपने पांच साल के कार्यकाल के दौरान की गई अपनी नई पहलों पर संतुष्टि की भावना के साथ पीछे देख सकती है। इस सरकार का कार्यकाल कई मोर्चों पर सराहनीय रहा है। भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु सहयोग समझौता पिछले दो साल में मनमोहन सिंह के एजेंडे में शीर्ष पर छाया रहा। वह इसे अपनी प्रमुख उपलब्धियों में से एक के तौर पर गिना सकते हैं। इसके अलावा राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रमों को नई ताकत प्रदान करने की दिशा में अहम योगदान रहा है। यह बात अलग है कि यह योजना विवादों में घिरी रही है। लेकिन इसके आलोचक भी अब यह मान रहे हैं कि इस योजना ने गरीबों और सुख-सुविधाओं से वंचित तबकों के लिए रोजगार सृजित किया है। गैर सरकारी संगठन भी इस सरकार के कार्यों को लेकर खुश है जिनमें मनमोहन सिंह ने सूचना के अधिकार कानून को और मजबूती प्रदान की तथा सूचना तक पहुंच बनाने के लिए सामान्य लोगों को सक्षम बनाया जिस पर सामान्यतया सत्तारूढ़ पार्टियों के नेताओं और नौकरशाहों द्वारा पर्दा डाल दिया गया था। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के गठन का नया प्रयोग भी प्रशासन में सुधार लाने में कामयाब रहा। यह सही है कि इस परिषद ने अपनी एक पहचान बनाई और यह तब तक प्रासंगिक बनी रही जब तक कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी इससे जुड़ी रहीं। जब तक यह सक्रिय रही, इस परिषद ने सरकार की कार्य प्रणाली और तंत्र में सुधार लाने में महत्त्वपूर्ण औजार के तौर पर काम किया। लेकिन मनमोहन सिंह एक बड़ा बदलाव लाने में तब सफल रहे जब उन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के क्षेत्र में व्यक्तिगत तौर पर हस्तक्षेप किया। उन्होंने बोर्ड फॉर रीस्ट्रक्चरिंग पब्लिक सेक्टर एंटरप्राइजेज (बीआरपीएसई) का गठन किया। इस बोर्ड के गठन का मकसद सरकार के स्वामित्व वाली खस्ताहाल कंपनियों की समस्याओं के समाधान के लिए सरकार को सलाह मुहैया कराया जाना था। हालांकि उनके द्वारा प्रह्लाद बसु की बीआरपीएसई के चेयरमैन के तौर पर नियुक्ति कारगर साबित नहीं हो सकी। नौकरशाहों और संबद्ध मंत्री के साथ तालमेल बिठाने में बसु को समस्याओं का सामना करना पड़ा। जब बसु ने सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के पुनर्गठन के लिए कुछ सुझाव भेजे तो मंत्रालय और कैबिनेट ने इनमें से अधिकांश पर कार्रवाई नहीं की थी। जब प्रह्लाद बसु ने बीआरपीएसई को अलविदा कह दिया तो मनमोहन सिंह ने उनके उत्तराधिकारी की नियुक्ति करने में देर नहीं की। नीतीश सेनगुप्ता को बोर्ड की कमान सौंप दी गई और जल्द ही इसका कामकाज निरंतरता के साथ होने लगा। अब तक पुनर्गठन की 62 सिफारिशें सरकार को भेजी जा चुकी हैं जिनमें से 32 प्रस्तावों को कैबिनेट की मंजूरी मिलने में बोर्ड को कामयाबी मिली। इन रुग्ण कंपनियों में दो मामले भारत ऑप्थैलमिक ग्लास और भारत यंत्र निगम से जुड़े हुए हैं। इन दोनों मामलों को सरकार द्वारा मंजूरी मिल गई है। बोर्ड के गठन से सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को अब अपनी समस्याओं के समाधान के लिए त्वरित उपायों के तौर पर एक नया सहयोगी मिल गया है। यह संभावना जताई जा रही है कि जब मनमोहन सिंह सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर लेगी और नई सरकार सत्ता में आएगी तो इस बोर्ड को भंग किया जा सकता है। नई सरकार ऐसी व्यवस्था को अनावश्यक करार दे सकती है। लेकिन पिछले पांच वर्षों के प्रयोग और इसके परिणामों को ध्यान में रख कर नई सरकार द्वारा भी इसे जारी रखा जा सकता है। मनमोहन सिंह की अन्य प्रमुख उपलब्धि राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की स्थापना करना है। शैक्षणिक प्रणाली में उत्कृष्टता लाने, 21वीं सदी की ज्ञान चुनौतियों को पूरा करने और ज्ञान के क्षेत्रों में भारत को प्रतिस्पर्धी बढ़त दिलाने के लक्ष्यों को ध्यान में रख कर सरकार को सलाह मुहैया कराने के लिए इस 6 सदस्यीय निकाय की स्थापना की गई। इस आयोग का कार्यकाल तीन साल तय किया गया था जो अब समाप्त हो चुका है। लेकिन सरकार को लगभग 25 विशेष क्षेत्रों में उसकी सिफारिशें मिली हैं। ये महज सिफारिशें नहीं हैं। इन सिफारिशों में ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्टता हासिल करने के लिए विस्तृत योजना प्रस्तुत की गई हैं। ये सिफारिशें मई के बाद बनने वाली किसी भी पार्टी की सरकार के लिए एक कारगर औजार साबित होंगी। यह ध्यान देने की बात है कि 36 महीनों में कई अहम रिपोर्टों के साथ राष्ट्रीय ज्ञान आयोग पर महज 6.2 करोड़ रुपये की रकम खर्च की गई। इस अवधि में 9 रिपोर्ट 2006 में, 11 रिपोर्ट 2007 में और 5 रिपोर्ट 2008 में पेश की गईं। इसे मनमोहन सिंह सरकार द्वारा पिछले पांच साल के दौरान चलाई गई सभी पहलों में सर्वाधिक अभिनव और किफायती पहलों में से एक के तौर पर माना जा सकता है। जब नई सरकार इन 25 रिपोर्टों द्वारा की गई सिफारिशों पर त्वरित कार्रवाई शुरू करेगी तो ये काफी लागत-प्रभावी भी दिखेंगी। मनमोहन सिंह भी यह मानते हैं कि भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु समझौता उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है। लेकिन बोर्ड फॉर रीस्ट्रक्चरिंग पब्लिक सेक्टर एंटरप्राइजेज और राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के गठन की उनकी पहल भी कम सराहनीय नहीं हैं।
