ऑल इंडिया आंबेडकर महासभा के चेयरमैन और नैशनल कन्फेडरेशन ऑफ दलित ऐंड आदिवासी ऑर्गनाइजेशंस के प्रधान सलाहकार अशोक भारती ने आदिति फडणीस को दिए साक्षात्कार में सत्तारूढ़ दल से बढ़ते मोहभंग और दलित नेतृत्व के भविष्य पर बातचीत की। संपादिश अंश:
क्या आप भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से दलितों के मोहभंग का संकेत देख रहे हैं और इसकी शुरुआत कब हुई?
निश्चित तौर पर भाजपा से मोहभंग की स्थिति व्यापक स्तर पर है। यह मोहभंग स्थानीय स्तर पर या कुछ राज्यों या क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं है। पूरे देश में ऐसा ही है। पिछले कुछ वर्षों से इसमें लगातार वृद्घि हो रही है। 2014 में भारी संख्या में दलितों ने भाजपा के पक्ष में वोट दिया था। दूसरे लोगों की तरह ही उन्होंने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार की विकासशील बदलाव और सुशासन की अपील को स्वीकार किया था। दलितों के साथ छूआछूत की प्रथा को समाप्त करने के लिए राष्टï्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का 'एक कुआं, एक मंदिर और एक श्मशान' का संकल्प सार्थक था। लेकिन अक्टूबर 2015 में तब सारी चीजें बदल गईं, जब एनसीआर में आने वाले शहर फरीदाबाद के संपेड में राजपूत बिरादरी के दबंगों ने दलित परिवार का घर फूंक दिया था, जिसमें तीन साल के वैभव और नौ महीने की दिव्या की जलकर मौत हो गई थी।
तब सरकार में एक राजपूत मंत्री ने अपनी बिरादरी के लोगों के इस कृत्य की निंदा करने की बजाय दलितों के बारे में अपमानजनक टिप्पणी की थी। दलितों ने मंत्री के खिलाफ कार्रवाई की मांग की, लेकिन किसी ने इसकी परवाह नहीं की। यहीं से दलितों के भाजपा से मोहभंग की शुरुआत होती है। उसके बाद से दलितों पर होने वाले अत्याचार की हरेक घटना और उपद्रवियों के खिलाफ कार्रवाई करने में सरकार की निष्क्रियता से इसको मजबूती मिल रही है। इसके अलावा, आरक्षण, पदोन्नति में आरक्षण, सरकार की ओर से न्यायालय में दलितों का पक्ष कमजोर तरीके से रखे जाने के कारण होने वाले न्यायिक निर्णय आदि जैसे दलितों के महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर सरकार की कार्रवाई या कार्रवाई की कमी से संवैधानिक अधिकार क्षीण हो रहे हैं। अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की हालत ने भी इस मोहभंग को बढ़ाया है।
प्रधानमंत्री ने बार बार डॉक्टर आंबेडकर को अपनी प्रेरणा का स्रोत बताया है। उन्होंने कुंभ में सफाईकर्मियों के पैर धोए थे। उनके मंत्री दलितों के घर खाना खा रहे हैं, उनके साथ खड़े हो रहे हैं। भाजपा ने कई सुरक्षित सीटों पर उम्मीदवार बदले हैं। क्या इन सबका कोई प्रभाव होगा?
निस्संदेह प्रधानमंत्री ने बार बार और देश के किसी भी प्रधानमंत्री से अधिक डॉक्टर आंबेडकर का नाम लिया है। उन्होंने सार्वजनिक रूप से अपनी गरीब पृष्ठभूमि को स्वीकार किया है और प्रधानमंत्री के रूप में अपने चुनाव का श्रेय संविधान और डॉ आंबेडकर को दिया है। इसमें भी कोई संदेह नहीं कि उनकी सरकार ने डॉक्टर आंबेडकर मेमोरियल का निर्माण करवाया है जिसको लेकर पिछली कई सरकारों में कुछ नहीं हुआ था। हमारे देश के बड़े हिस्से में दो प्यालों (एक दलित के लिए और दूसरा गैर दलित के लिए) का चलन आज भी दिखता है। ऐसे में सार्वजनिक रूप से सफाईकर्मियों के पांव धोने के लिए बड़े साहस की जरूरत है।
भले ही यह दिखावे के लिए था, लेकिन देश के प्रधान व्यक्ति द्वारा सफाईकर्मियों के पांव धोए जाने की घटना ऐतिहासिक है। यह दिखाता है कि दलित मुख्यधारा में आ रहे हैं, जहां कोई व्यक्ति उनके राजनीतिक महत्त्व को कमतर नहीं आंक सकता है और पैमाना अब उच्च जाति से तथाकथित छोटी जाति की ओर झुक रहा है। मंत्री दलितों के घर खाना खा रहे हैं, उनके साथ खड़े हो रहे हैं। ये सारी बातें उसी का विस्तार हैं, जिसका निर्देश प्रधानमंत्री दे रहे हैं। लेकिन इन बातों, पैर धोने या दलितों के साथ भोजन करने के बीच सबका बराबरी से सम्मान सुनिश्चित करने, विकास और दलितों के साथ न्याय की बात को बड़े पैमाने पर नजरअंदाज किया गया। इसके बदले सरकार अगर व्यवस्था, तंत्र और दलितों को संविधान में दिए गए अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए बजट आवंटन को दुरुस्त करती तो काफी अच्छा होता। सुरक्षित सीटों पर जीते सांसदों को एकजुट होकर सरकार में दलितों की उचित हिस्सेदारी के लिए प्रयास करना चाहिए था। उन्हें प्रधानमंत्री या सरकार को अपने समुदाय में बढ़ रहे असंतोष को लेकर भी सचेत करना चाहिए था लेकिन वे ऐसा कुछ भी करने में विफल रहे और यह स्वाभाविक था क्योंकि सुरक्षित सीटों पर उम्मीदवारों का चयन ही ऐसे लोगों का किया गया था। मौजूदा चुनावी प्रणाली में दल उम्मीदवार के रूप में समुदाय के नेता को न चुनकर अपने सदस्यों में से चुनते हैं। मेरे विचार से ये सभी बातें दलितों के मोहभंग का कारण हैं।
कैसे मान लिया जाए कि दलितों और यादवों के बीच हुआ राजनीतिक गठजोड़ सामजिक गठबंधन भी है?
1993 में दलितों का प्रतिनिधित्व करने वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और यादवों (ओबीसी) का प्रतिनिधित्व करने वाली समाजवादी पार्टी (सपा) ने कई दूसरे दलों का साथ लेकर सरकार बनाई थी। इस बार उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा, रालोद (राष्टï्रीय लोक दल) और बिहार में राष्टï्रीय जनता दल, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा, विकासशील इंसान पार्टी (राजद, रालोसपा, हम, वीआईपी) सामाजिक रूप से हाशिये पर खड़े समुदायों को नेतृत्व करने वाले राजनीतिक गठजोड़ हैं। लेकिन जहां तक इसके सामाजिक गठजोड़ होने का प्रश्न है इसके लिए भारतीय समाज की जाति और वर्ण व्यवस्था को समझना होगा।
वर्ण व्यवस्था में यादव या ओबीसी जातियां शूद्र और छूत हैं। लेकिन दलित शूद्र नहीं हैं। वे वर्ण से बाहर हैं और अछूत हैं। यदि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की जनगणना में व्यक्तिगत जाति/जनजाति पर नजर डालें तो यह बात साफ हो जाती है कि ज्यादातर राज्यों में से किसी खास राज्य में 30 से लेकर 100 जातियों/जनजातियों में महज पांच से छह जातियां/जनजातियां हैं जो 85 से 95 प्रतिशत अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का हिस्सा होती हैं। आमतौर पर राज्यों की एक या दो जाति/जनजाति का ही इन समुदायों की आबादी पर दबदबा है। ज्यादातर राज्यों में यही हाल अन्य पिछड़ी जातियों का है। इसलिए यदि दलित और यादवों (ओबीसी) का राजनीतिक गठबंधन बन गया है तो इससे उनकी नजदीकी और सामाजिक संवाद को बढ़ाने में काफी हद तक सहूलियत होगी।
दलित और ओबीसी दोनों ही बहिष्कार, अपमान और उसी वर्ण समूह की जातियों के दबाव से त्रस्त रहे हैं। इसलिए जैसे ही वे राजनीतिक गठजोड़ बनाएंगे, सामाजिक गठजोड़ को कायम करने के लिए सामजिक नेतृत्व सक्रिय हो जाएगा। हिंदी पट्टी विशेष तौर पर उत्तर प्रदेश और बिहार में दलितों और यादवों की सक्रियता किसी भी अन्य ओबीसी जातियों की तुलना में अधिक है। दोनों राज्यों में यादव सर्वाधिक आबादी वाली ओबीसी जाति है और दलितों की बड़ी आबादी भी इन राज्यों में है।
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