बिमल जालान और सार्वजनिक जीवन से जुड़े दूसरे लोगों ने एक जनहित प्रतिष्ठान की स्थापना की है जो लोक सभा चुनाव से ठीक पहले अपराधियों को राजनीति से दूर करने के अभियान में जुटा है। डा. जालान एक और बात का अक्सर जिक्र किया करते हैं और उन्होंने कम से कम अपनी एक पुस्तक में भी इसका उल्लेख किया है, वह है दलबदल निरोधक कानून 1985 के अनपेक्षित परिणाम। तर्क सीधा है- दलबदल निरोधक कानून ऐसे सभी सांसदों (और विधायकों) को सदस्यता के अयोग्य ठहराता है जो उस पार्टी को छोड़ देते हैं, जिसके टिकट पर वे चुनाव जीत कर आते हैं। पार्टी के विभाजित होने की दशा को अपवाद माना गया है और विभाजन को इस तरह परिभाषित किया गया है कि अगर किसी पार्टी के कम से कम एक तिहाई प्रतिनिधि पार्टी से नाता तोड़ लें तो उसे विभाजन माना जाएगा। इस कानून का मकसद (राजीव गांधी को 1985 के लोकसभा चुनावों में मिले 403 सीट के जोरदार आधार को बचाने के अलावा) 'आया राम - गया राम' की प्रवृत्ति को खत्म करना था। यह समस्या 1967 में उस वक्त सामने आई थी जब कांग्रेस पहली बार सत्ता से बाहर थी और तब राजनीतिक परिदृश्य में एक वायरस की तरह दलबदल की प्रवृत्ति फैल गई। जालान ने इन अनपेक्षित परिणामों का जिक्र किया है कि इस कानून ने दलबदल को तो हतोत्साहित किया है लेकिन दूसरी ओर विभाजन को प्रोत्साहित भी किया है। इस कारण बड़ी संख्या में छोटे दलों का उदय हुआ। ऐसे दल जिनका दायरा कमोबेश एक नेता के इर्द-गिर्द ही फैला हुआ है- राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी, अजित सिंह का राष्ट्रीय लोक दल, भजन लाल की हरियाणा जनहित कांग्रेस, एस रामदास की पट्टाली मक्कल काट्ची (पीएमके), एच डी देवेगौड़ा का जनता दल- सेक्युलर (जेडी-एस), ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, वाइको की मरूमलारची द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम (एमडीएमके), शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, ओम प्रकाश चौटाला का इंडियन नेशनल लोक दल और ऐसी ही और भी पार्टियां हैं। इन सभी पार्टियों की लोकसभा में संयुक्त रूप से उपस्थिति मामूली सी है। लेकिन इस मामूली सी मौजूदगी के बावजूद ये चुनाव से पहले होने वाले गठजोड़ में और चुनाव के बाद की सौदेबाजी में प्रमुख भूमिका अदा करते हैं। इनमें से ज्यादतर दलों का जन्म बड़ी पार्टियों के विभाजन के फलस्वरूप हुआ है। अगर वे अपने पुराने दलों के साथ ही बने रहते तो इनमें से किसी भी पार्टी के नेता आज मोलतोल करने का मजा नहीं लूट पाते, या फिर उन्हें मीडिया में वैसे तवज्जो नहीं मिल पाती जैसी कि आज मिल रही है (उदाहरण के लिए अजित सिंह अपने पिता के लिए लखनऊ हवाई अड्डे का नाम बदलने के लिए कांग्रेस की अगुवाई वाली केंद्र सरकार के साथ मोलतोल कर सकते हैं और चुनाव के बाद भाजपा के साथ गठजोड़ भी कायम कर सकते हैं।) इसलिए अगर किसी बड़ी पार्टी में आपका अपना एक छोटा सा जनाधार है और अगर आप पार्टी से अलग होकर अपना राजनीतिक दल नहीं बना रहे हैं तो आप मूर्ख ही कहलाएंगे, फिर चाहे यह जनाधार जाति, राज्य या किसी अन्य कारण से तैयार हुआ हो। वास्तव में इस विकृत पहल ने कांग्रेस को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया है (विचारधारा पर आधारित पार्टी होने के कारण भाजपा को इसका सबसे कम खामियाजा भुगतना पड़ा है)। दलबदल कानून से छोटे दलों के जन्म को बढ़ावा मिला है और इस कारण गठबंधन की राजनीति के दौर का उदय हुआ है। अभी भी छोटे राजनीतिक दल सौदेबाजी में यकीन रखते हैं। वे अपनी मूल पार्टी के साथ गठजोड़ कायम कर सकते हैं या फिर जैसा कि अभी देखने को मिल रहा है 'तीसरे मोर्चे' के रूप में जमावड़ा कर सकते हैं। लेकिन किसी ऐसी शक्ति के अभाव में जो उन्हें लंबे समय तक जोड़कर रख सके और उनके नेताओं के आपसी टकराव की स्थिति में (जो अवश्यंभावी है) अगले एक या दो वर्षों में ही टूटकर बिखर जाते हैं- जैसा कि 1979 में जनता पार्टी, 1990 में जनता दल और 1998 में संयुक्त मोर्चा सरकार के साथ देखने को मिला। यह भी महत्त्वपूर्ण है कि तीसरे मोर्चे की सरकार को समर्थन देना हमेशा मुख्य पार्टियों के लिए घातक सिद्ध हुआ है। अगर कांग्रेस नवगठित तीसरे मोर्चे को समर्थन देती है तो उम्मीद कीजिए कि अगले कुछ वर्षों में भाजपा तेजी से वापसी करेगी।
