वित्तीय क्षेत्र का नियमन हो विवेकसंपन्न | अजय शाह / April 26, 2019 | | | | |
इन दिनों हमें बैंकों, म्युचुअल फंड, गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी), बॉन्ड बाजार और अचल संपत्ति क्षेत्र में लगातार कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। ये सारी कठिनाइयां आपस में जुड़ी हुई हैं। इनके घटक आपस में अलग-अलग नहीं हैं। ऐसे में एक बंद वित्तीय नियामक ढांचे के लिए सूचनाएं जुटाना, मूलभूत कारणों का विश्लेषण करना और समस्याओं को हल करना काफी कठिन होता है।
नियामकों में समस्याओं को टालने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। हमें एफआरडीआई विधेयक, वित्तीय डेटा प्रबंधन केंद्र (एफडीएमसी) और वित्तीय स्थिरता एवं विकास परिषद (एफएसडीसी) में तकनीकी सचिवालय की आवश्यकता है। इन तीन घटकों के अभाव में हमें एक अनौपचारिक टीम की आवश्यकता है जो इन संस्थानों के काम का स्वत: अनुकरण करे।
चीजों और परिस्थितियों को देखने के नजरिये में अंतर को लेकर निरंतर तनाव की स्थिति बनी रहती है। इन दोनों नजरिये से हालात एकदम अलग-अलग नजर आते हैं। बीते कुछ दिनों में इस बात की आवश्यकता स्पष्ट हुई है कि देश के वित्तीय क्षेत्र की आवश्यकताओं को समग्रता में देखा जाए।
सूक्ष्म और विवेकसंपन्न नियमन का काम है वित्तीय कंपनियों की विफलता की संभावनाओं को सीमित करना। उदाहरण के लिए हमारा लक्ष्य यह भी हो सकता है कि एक दशक में 2 फीसदी से अधिक बैंक विफल नहीं हों। मोटे तौर पर बात करें तो इसका यही अर्थ हुआ कि एक दशक में देश में दो बड़े बैंक नाकाम हो सकते हैं। सूक्ष्म-विवेकसंपन्न नियमन ऐसे नियम बना सकता है जो बैंकों को अतिरिक्त जोखिम उठाने से रोकते हों। ऐसा करने से किसी भी बैंक की विफल होने की आशंका एक दशक में 2 फीसदी से अधिक नहीं होगी।
म्युचुअल फंड के मामले में तो कंपनी के विफल होने की कोई आशंका नहीं है। सूक्ष्म विवेकी नियमन को लेकर सेबी की चिंता यह सुनिश्चित करने की है कि शुद्ध परिसंपत्ति मूल्य (एनएवी) के बारे में हमेशा सही जानकारी दी जाए और प्रतिदान के वादे हमेशा पूरे किए जाएं।
इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सूक्ष्म विवेकसंपन्न नियमन, एक समय में किसी एक वित्तीय कंपनी के बारे में गंभीरतापूर्वक विचार करता है। नियामक को कारोबार की गहरी समझ होनी चाहिए और उसे ऐसे चुनिंदा हस्तक्षेप की भी जानकारी होनी चाहिए जो उसके लक्ष्य को हासिल करने में सहायक साबित हो। इस दौरान उत्पादों और प्रक्रियाओं के केंद्रीय नियोजन से बचा जाना चाहिए।
वित्तीय क्षेत्र में ऐसे सूक्ष्म और विवेकसंपन्न नियमन की आवश्यकता है। परंतु यह व्यवस्थित सोच से अलग है। हमें हाल के वर्षों की कुछ घटनाओं पर नजर डालनी चाहिए और यह देखना चाहिए कि वित्तीय तंत्र के विभिन्न घटकों ने किस तरह व्यवहार किया।
गैर वित्तीय कंपनियों (अधोसंरचना एवं अचल संपत्ति) में ऋण का तनाव 2008 में उभरा। अगर शुरुआती दौर में दिवालिया प्रक्रिया अपनाई जाए तो समस्या हल हो सकती है लेकिन अगर ऐसा नहीं किया गया तो कर्ज की राशि बढ़ती जाती है। कर्जदार के संकटग्रस्त होने के साथ ही पुराने कर्ज को चुकाने के लिए नए ऋण की आवश्यकता होती है। बैलेंस शीट बढ़ती जाती है और नए ऋण लेकर पुराने कर्ज चुकाए जाते हैं, इस प्रकार डिफॉल्ट को टाला जाता है। इससे यह सवाल उठता है कि आखिर नया कर्ज आ कहां से रहा है?
कई वर्ष तक बैंक और आरबीआई ने समस्या से निजात पाने की कोशिश की। बैंकों ने कमजोर कर्जदारों को और अधिक ऋण दिया। जब तक बैंक इस अत्यधिक ऋण वितरण को लेकर सचेत हुए तब तक म्युचुअल फंड, एनबीएफसी और बॉन्ड बाजार के रूप में एक नया फंडिंग चैनल तैयार हो गया था। बीते एक वर्ष से यह चैनल भी कठिनाई में नजर आ रहा है। अब हमारे पास कर्जदारों का एक ऐसा समूह है जिसके पास पुराना ऋण चुकाने और नया हासिल करने का कोई तरीका नहीं बचा है। हमारे वित्तीय तंत्र में चार तनावग्रस्त घटक हैं। इनमें से तीन फीडबैक लूप है जहां कर्जदारों, अचल संपत्ति मूल्यों, बॉन्ड बाजार, म्युचुअल फंड, एनबीएफसी और बैंकों की समस्याएं एक दूसरे पर दबाव बना रही हैं।
उपरोक्त दो पैराग्राफ व्यवस्थित सोच को दर्शाते हैं। हमें वित्तीय व्यवस्था को एक उच्चस्तरीय दृष्टिकोण से देखना होगा और इन दबावों और इनके आपसी रिश्ते पर भी नजर डालनी होगी। सूक्ष्म विवेकसंपन्न स्टाफ दो वजह से ऐसा नहीं कर सकता। पहला सूक्ष्म विवेकसंपन्न नियामक का काम है किसी तय समय में फर्म की नाकामी का अनुमान लगाना। दूसरा, लक्षित दर से परे फर्म की नाकामी वास्तव में इस नियमन की नाकामी है। सूक्ष्म विवेकसंपन्न नियामक के मन में समस्याओं को छिपाने का पूर्वग्रह होता है।
इस सवाल का परीक्षण न्यायमूर्ति श्रीकृष्ण वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग (2011-2013) ने किया था। वित्तीय क्षेत्र में व्यवस्थित सोच मौद्रिक नीति के साथ तालमेल वाली नहीं है क्योंकि यह प्राथमिक रूप से वृहद अर्थव्यवस्था से संबंधित है। यानी कम और स्थिर मुद्रास्फीति से। वित्तीय क्षेत्र का व्यवस्थित सोच क्षेत्रवार वृहद विवेकसंपन्न नियामकों की सोच से मेल नहीं खाता। उनका ध्यान एक समय में एक फर्म पर रहता है और उनके मन में कठिनाइयों को स्वीकार न करने का एक किस्म का पूर्वग्रह भी रहता है।
इसके चलते एफएसडीसी के रूप में एक परिषद का गठन हुआ। इस परिषद में वित्तीय नियामकों के विभिन्न चेयरमैन और वित्त मंत्री शामिल होंगे और इसे एक तकनीकी सचिवालय का समर्थन हासिल होगा। इसे व्यवस्थित सोच में विशेषज्ञता हासिल होगी। इसके पास एफडीएमसी के रूप में विस्तृत डेटाबेस भी होगा। इसके अलावा वित्तीय कंपनियों की दिवालिया प्रक्रिया के बारे में भी एक विचार था जिसे निस्तारण निगम को अंजाम देना है। इसे एफआरडीआई विधेयक में स्थान दिया गया है। गैर वित्तीय कंपनियों के लिए यह काम आईबीसी को करना है। आईबीसी के रूप में अब हमारे पास इन चार घटकों में से एक है। हाल के वर्षों में अगर हमारे पास अन्य उपाय होते तो हालात शायद अधिक बेहतर होते।
जब हम पलटकर 2000-2001 के वित्तीय संकट की ओर देखते हैं तो उसके प्रमुख कारक थे यूटीआई, बीएसई और कलकत्ता स्टॉक एक्सचेंज। उस वक्त एफएसडीसी या एफडीएमसी कहीं तस्वीर में भी नहीं थे। वित्तीय फर्म के निस्तारण के लिए एफआरडीआई विधेयक की आवश्यकता भविष्य की बात थी। यही कारण है कि संकट से निपटने के लिए वित्त मंत्रालय द्वारा गठित एक अनौपचारिक टीम की सहायता ली गई। इसमें एफएसडीसी, एफडीएमसी और आरसी के कुछ तत्त्व शामिल थे।
ऐसा रुख मौजूदा संदर्भ में भी कामयाब हो सकता है क्योंकि एफएसडीसी, एफडीएमसी और आरसी के निर्माण के लिए कम से कम तीन वर्ष का समय चाहिए। इस समय आईबीसी के रूप में एक ऐसी सहायता उपलब्ध है जो पहले नहीं थी। कंपनियों को आईबीसी की प्रक्रिया से जल्द से जल्द गुजारना और कर्जदाताओं को निस्तारण और नकदीकरण के बीच चयन के लिए कहना एक अहम उपाय है जो अब उपलब्ध है।
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