पीएसयू की रणनीतिक बिक्री में 'रणनीति' का है अभाव | दिल्ली डायरी | | ए के भट्टाचार्य / April 24, 2019 | | | | |
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों (पीएसयू) में सरकारी हिस्सेदारी का विनिवेश एक ऐसा मामला है जहां मोदी सरकार ने पिछली सरकार की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया है। मनमोहन सिंह सरकार के दूसरे कार्यकाल में विनिवेश से हुई कुल प्राप्तियां 99,367 करोड़ रुपये रही थीं जबकि मोदी सरकार ने अप्रैल 2014-मार्च 2019 के दौरान विनिवेश से करीब 2.9 लाख करोड़ रुपये जुटाए हैं। दोनों सरकारों के विनिवेश लक्ष्य के मामले में भी मोदी सरकार का प्रदर्शन बेहतर रहा है। मोदी सरकार अपने विनिवेश लक्ष्य का करीब 89 फीसदी राजस्व जुटाने में सफल रही है। मनमोहन सरकार ने अप्रैल 2009-मार्च 2014 के दौरान पांच में से चार बजट में विनिवेश लक्ष्य घोषित किए थे। वह कुल लक्ष्य का 66 फीसदी ही हासिल कर पाई थी।
मोदी सरकार का विनिवेश के मोर्चे पर प्रदर्शन मनमोहन सरकार की तुलना में एक और मामले में बेहतर रहा है। मनमोहन सरकार ने 2009-2014 की अवधि में पीएसयू इकाइयों में अपने अल्पांश शेयरों की बिक्री से ही समूचा विनिवेश राजस्व जुटाया था लेकिन मोदी सरकार की विनिवेश प्राप्तियों में अल्पांश शेयर बिक्री का हिस्सा 2 लाख करोड़ रुपये के साथ 71 फीसदी ही है। मोदी सरकार ने विनिवेश प्राप्तियां बढ़ाने के लिए पीएसयू में अपनी हिस्सेदारी बेचने के दौरान कई तरह के प्रयोग किए। विनिवेश के इन नए तरीकों में पीएसयू के कर्मचारियों को उसके शेयर बेचना, शेयरों की पुनर्खरीद, प्रारंभिक सार्वजनिक निर्गम लाना और एक्सचेंज पर पीएसयू के फंड की बिक्री करना शामिल हैं। ऐसे लेनदेन से होने वाली प्राप्तियां 15,243 करोड़ रुपये रहने का अनुमान है जो कुल विनिवेश राजस्व का महज पांच फीसदी ही है।
मोदी सरकार को बाकी 24 फीसदी विनिवेश प्राप्ति कहां से हुई? करीब 69,161 करोड़ रुपये आकार वाली यह राशि 'रणनीतिक बिक्री' के जरिये जुटाई गई थी। मोदी सरकार के शुरुआती वर्षों में बजट के विनिवेश प्राप्ति खंड में रणनीतिक बिक्री का उल्लेख किए जाने का आशय निजीकरण से लगाया गया था। लेकिन आईडीबीआई बैंक या एयर इंडिया के निजीकरण की सरकार की कोशिशें नाकाम हो गईं। मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल में निजीकरण की केवल यही दो कोशिशें की थीं। एयर इंडिया की बिक्री स्थगित कर दी गई है जबकि आईडीबीआई बैंक को सरकारी नियंत्रण वाली बीमा कंपनी एलआईसी के जरिये मुश्किल से निकाला जा चुका है। फिर रणनीतिक बिक्री से आने वाले 69,161 करोड़ रुपये कहां से आए?
इस राजस्व के स्रोत पर फौरी नजर डालने से पता चलेगा कि मोदी सरकार ने रणनीतिक बिक्री के मायने को ही चतुराई दिखाते हुए पुनर्परिभाषित कर दिया है और दूसरे उपक्रमों के संसाधनों का इस्तेमाल अपना विनिवेश राजस्व बढ़ाने के लिए किया है। पहले सरकार के पास ऐक्सिस बैंक, आईटीसी और लार्सन ऐंड टुब्रो जैसी कंपनियों के काफी शेयर थे जिनका स्वामित्व अब बंद हो चुकी भारतीय यूनिट ट्रस्ट (यूटीआई) के पास था। ये शेयर सरकारी स्वामित्व वाली इकाई एसयू-यूटीआई को दिए गए थे। इन शेयरों की बिक्री से हुई आय ने सरकार के रणनीतिक बिक्री राजस्व में काफी योगदान दिया है। वर्ष 2016-17 में ऐसी प्राप्तियां 10,779 करोड़ और 2017-18 में 5,553 करोड़ रुपये रहीं। सरकार ने गत दो वर्षों में किए गए चार और लेनदेन को भी रणनीतिक बिक्री से राजस्व घोषित कर दिया। वर्ष 2017-18 में सरकार ने यह फैसला किया कि तेल उपक्रम ओएनजीसी को तेल बिक्री उपक्रम एचपीसीएल का अधिग्रहण करना चाहिए। ओएनजीसी ने एचपीसीएल में सरकार की समूची बहुलांश हिस्सेदारी को ले लिया जिससे सरकार को 36,915 करोड़ रुपये मिले। आलोचकों ने इस अधिग्रहण के औचित्य पर सवाल उठाए थे। ओएनजीसी को इस अधिग्रहण के लिए रकम जुटाने के वास्ते कई बैंकों से उधार लेना पड़ा था। यह ऑफ-मार्केट सौदा भी था। ओएनजीसी और एचपीसीएल दोनों ही उपक्रमों के अल्पांश शेयरधारकों को पूरी तरह नजरअंदाज किया गया। इस सौदे को लेकर दोनों कंपनियों के शीर्ष प्रबंधन में भी नाराजगी के सुर उठे थे लेकिन सरकार इस सौदे से बड़ा विनिवेश राजस्व जुटाने में सफल रही और फिर उसे रणनीतिक बिक्री के मद में दिखा दिया।
पिछले साल भी सरकार ने ऐसे तीन सौदों से 15,914 करोड़ रुपये जुटाए। इसमें से 14,500 करोड़ रुपये रूरल इलेक्ट्रिफिकेशन कॉर्पोरेशन (आरईसी) में पावर फाइनैंस कॉर्पोरेशन (पीएफसी) की हिस्सेदारी खरीद से आए थे। पीएफसी ने इस खरीद के लिए वित्त का इंतजाम अपने स्रोतों और कर्ज से किया था। निर्माण उपक्रम एनबीसीसी ने स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की अंडरटेकिंग एचएससीसी की सौ फीसदी हिस्सेदारी 285 करोड़ रुपये में खरीदी। इसी तरह ड्रेजिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया में सरकार ने अपनी पूरी हिस्सेदारी चार बंदरगाहों के कंसोर्टियम को 1,049 करोड़ रुपये में बेच दी।
इनमें से किसी भी रणनीतिक बिक्री से उस कंपनी का सार्वजनिक उपक्रम वाली प्रकृति बदली नहीं है और न ही उनका स्वामित्व ही निजी हाथों में गया है। सरकार ने अपनी हिस्सेदारी को एक के बजाय दूसरे उपक्रम को बेचा भर है। वे दूसरे उपक्रमों की तरह काम करते रहेंगे। ऐसे में कई सवाल खड़े होते हैं। इन सौदों को रणनीतिक बिक्री क्यों कहा जाए? सरकार की अपनी हिस्सेदारी किसी और उपक्रम को बेचने के पीछे क्या रणनीति हो सकती है? इनमें से अधिकांश खरीद के दौरान पीएसयू को नए कर्ज लेने पड़े हैं। क्या सरकार का अपना विनिवेश लक्ष्य हासिल करने के लिए उपक्रमों पर बोझ डालना कोई समझदार रणनीति है? क्या इन उपक्रमों के शेयरों की खुले बाजार में बिक्री बेहतर तरीका नहीं होता? उम्मीद है कि नई सरकार इन सवालों पर गौर करेगी और उनके संतोषजनक जवाब तलाशेगी।
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