प्राचीन काल से ही लोग विभिन्न प्रकार के जलीय पौधे उगाते आ रहे हैं। हालांकि अब व्यावसायिक 'एक्वापोनिक्स' तकनीक के अस्तित्व में आने से जलीय पौधे उगाने की विधा को एक नटा मुकाम मिल गया है। एक्वापोनिक्स के तहत पानी में मछलियों द्वारा उत्सर्जित खनिजों का इस्तेमाल मुख्य रूप से पत्तीदार सब्जियां उगाने के लिए किया जाता है। यह विधि काफी सरल है। इसके तहत एक बड़े टैंक में पानी भरा जाता है और इसमें पर्याप्त संख्या में मछलियों का प्रजनन कराया जाता है। एक समय बाद यह जल मछलियों द्वारा उत्सर्जित अमोनिया और अन्य खनिजों से परिपूर्ण हो जाता है तो इसका इस्तेमाल एक नियंत्रित और मृदा रहित वातावरण में पौधे उगाने में होता है। पौधे जब सभी पोषक तत्त्व अवशोषित कर लेते हैं तब उस पानी को वापस मछली टैंक में उड़ेल दिया जाचा है। यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जो 24 घंटे निर्बाध चलती रहती है। हरेक छह से नौ महीने बाद मछलियां इस प्रक्रिया में एक दिलचस्प उत्पाद बनाती हैं, जिसके लिए बाजार भी उपलब्ध है और इससे राजस्व अर्जित करने में भी मदद मिलती है। रेड ओटर फाम्र्स के संस्थापक अनुभव दास कहते हैं, 'इस प्रक्रिया के तहत 95 प्रतिशत से अधिक जल का पुनर्चक्रण होता है। विशुद्ध रूप से जल में उगाई सब्जी और मछलियों दोनों की बिक्री से कमाई हासिल होती है।' रेड ओटर उत्तराखंड के नैनीताल में 10,000 वर्गफुट में फैला एक शुद्ध एक्वापोनिक्स फार्म है। दास हरेक सप्ताह हरी पत्तियों वाली 150 किलोग्राम सब्जियां उगाते हैं और अब वह जल्द ही अपने फार्म का आकार बढ़ाकर 35,000 वर्गफुट करना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि दुनिया के कुछ हिस्सों में लोग एक्वापोनिक्स के जरिये रोजमैरी, पाइन, मिंट और टमाटर उगाने लगे हैं। कीमत और अन्य बाधाएं तकनीक के कई फायदे हैं और जल की कमी झेल रहे भारत जैसे देशों में यह जल्द ही वरदान साबित हो सकती है, लेकिन ऐसे उत्पादों की ऊं ची कीमतें इनके व्यवसायीकरण की राह में बाधा साबित हो रही हैं। भारत के पहले और बड़े एक्वापोनिक्स फार्मों में शुमार माधवी फाम्र्स के मुख्य कार्याधिकारी के विजयकुमार कहते हैं कि एक व्यावसायिक एक्वापोनिक्स फार्म स्थापित करने के लिए औसतन 2.5-3.0 करोड़ रुपये प्रति एकड़ निवेश की जरूरत होती है। अगर चौबीसों घंटे बिजली की आपूर्ति सुनिश्चित रहती है तो लागत 30 से 35 प्रतिशत तक कम हो सकती है। सभी प्रणाली चलाने के लिए 1 एकड़ की एक्वापोनिक्स इकाई को प्रति दिन लगभग 600 यूनिट बिजली की जरूरत होती है। बेंगलूरु से सटे इलाके में माधवी फाम्र्स चलाने वाले विजयकुमार ने दिसंबर, 2017 में उत्पादन शुरू किया था और पहला उत्पाद फरवरी, 2018 में बेचा था। उन्होंने कहा कि एक्वापोनिक्स के उत्पादों के लिए जब तक एक स्थायी बाजार उपलब्ध नहीं होगा और ग्राहकों की तरफ से मांग नहीं बढ़ेगी तब तक इतने बड़े पैमाने पर होने वाला निवेश कारगर नहीं होगा। विजयकुमार ने कहा, 'फिलहाल इन उत्पादों की महानगरों में ही मांग दिख रही है, जहां लोगों के अधिक जागरूक और संपन्न होने से इनकी खपत को बढ़ावा मिल रहा है।' माधवी फाम्र्स की स्थापना कनाडा की एक्वापोनिक्स क्षेत्र की बड़ी कंपनी वाटर फाम्र्स की तकनीकी मदद से हुई है। माधवी फाम्र्स 60,000 वर्गफुट क्षेत्र में फैला हुआ है और इसकी गिनती देश के सबसे बड़े एक्वापोनिक्स फार्मों में होती है। विजयकुमार का कहना है कि एक सफल एक्वापोनिक्स फार्म में केवल वही सब्जियां उगाई जाती हैं जो आसानी से उपलब्ध नहीं हैं। इन सब्जियों का इस्तेमाल करने वाला तबका नया है और वह अधिक भुगतान करने में भी सक्षम है। इन सब्जियों की कीमतें इसलिए अधिक होती हैं कि ऐसा फार्म बनाने में ही बड़ा निवेश हो जाता है। उनका कहना है कि इसके लिए पौधे की ऐसी नस्लें चुनने की जरूरत होती है, जो आसानी से खुले खेतों में नहीं उगाई जा सकती हैं और आयातित होने वाली हरी सब्जियों की कई किस्मों का स्थानीय विकल्प हो सकती हैं। विजयकुमार कहते हैं, 'छोटे और सीमांत किसानों के लिए व्यावसायिक एक्वापोनिक्स व्यावहारिक नहीं हैं। इस पर बड़ी लागत आती है और आप ऐसी तकनीक के इस्तेमाल से फसलें नहीं उगा सकते, जो ना रोज काटी जा सकती हैं और न जिसका भंडारण किया जा सकता है।' यही वजह है कि पिछले 18 महीने के दौरान माधवी फाम्र्स ने खासकर शहरी खरीदारों के बीच ग्राहकों का एक समूह खड़ा किया है और यह लेटिस, स्विस चार्ड और केल को पांच सितारा होटलों और स्थापित खुदरा चेन जैसे बिग बास्केट, बिग बाजार और हेल्दी बुद्धा को बेचता है। रेड ओटर और माधवी देश में दो सबसे बड़े व्यावसायिक एक्वापोनिक्स फार्म होने का दावा करते हैं, इनके अलावा कई दूसरे फार्म भी हैं, जो ऐसी ही एक मिलती-जुलती तकनीक जैसे 'हाइड्रोपोनिक्स' का इस्तेमाल फसलें उगाने के लिए करते हैं। विजयकुमार का कहना है कि हाइड्रोपोनिक्स और एक्वापोनिक्स दोनों में मृदा का इस्तेमाल नहीं होता है,लेकिन हाइड्रोपोनिक्स तकनीक संश्लेषित और अजैविक उत्पाद देती है, जबकि एक्वापोनिक्स उत्पाद शत-प्रतिशत जैविक और प्राकृतिक होते हैं। उन्होंने कहा, 'उपभोक्ता और बाजार कभी-कभी इस मुख्य अंतर से वाकिफ नहीं होते हैं। एक्वापोनिक्स की सबसे अच्छी बात यह है कि यह प्रकृति एवं पारिस्थितिकीतंत्र के अनुकूल और ऊर्जा बचत करने वाली होती है और काफी कम कार्बन का उत्सर्जन करती है।' खबरों के अनुसार शिमला के केंद्रीय आलू शोध संस्थान में हाइड्रोपॉनिक्स तकनीक से आलू उगाने का प्रयोग किया किया जा रहा है। एक्वापोनिक्स एक तकनीक के तौर पर शुष्क क्षेत्रों के लिए सबसे अनुकूल है, जहां जल संरक्षण को उच्च प्राथमिकता दी जाती है। हालांकि व्यावसायिक रूप से सफल होने तक भारत में यह तकनीक आगे बढऩे में थोड़ा समय लेगी।
