समाजवादी पार्टी-बहुजन समाज पार्टी (सपा-बसपा) का गठबंधन क्या वास्तव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को सत्ता से बेदखल करने में कारगर हो सकता है जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व्यंग्यात्मक लहजे में 'महामिलावटी' गठजोड़ कहते हैं? निश्चित तौर पर इसमें अंतर्विरोध स्पष्ट है। भारतीय समाज के सबसे शोषित सामाजिक समूह दलित आखिर यादवों के साथ एक सामान्य मकसद से साथ क्यों खड़े होंगे जबकि यादव समूह ही उनके उत्पीडऩ के लिए जिम्मेदार है? लखनऊ में इसका जवाब देने वालों को कोई खासी दिमागी मशक्कत नहीं करनी पड़ती। दोनों दल एक साथ इसलिए आएंगे क्योंकि एक बड़ा उत्पीड़क नरेंद्र मोदी-योगी आदित्यनाथ सरकार उनके सामने है।
डायनेमिक एक्शन ग्रुप (डीएजी) के एक दलित कार्यकर्ता राम कुमार कहते हैं, 'योगी आदित्यनाथ पांच साल सरकार चलाने के लिए चुने गए थे लेकिन आदित्यनाथ साढ़े चार साल तक ठाकुर बने रहेंगे और बाकी के छह महीने में वह मुख्यमंत्री की भूमिका में दिखेंगे और सभी जातियों के साथ न्याय करने का वादा करेंगे। ऐसे किसी व्यक्ति की क्या विश्वसनीयता है?'
जमीनी स्तर पर आखिर इसका वास्तविकता से क्या संबंध है? आदित्यनाथ की शासन व्यवस्था की तारीफ इस बात को लेकर की जाती है कि उन्होंने पुलिस बल, को सशक्त बना कर कानून व्यवस्था को पटरी पर लाने का काम किया है जबकि दलितों, मुसलमानों और यहां तक की यादव भी खुद को पीडि़त के तौर पर देखते हैं। इसकी शुरुआत अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून, 1989 पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश के साथ शुरू हुई जिसे सामान्य तौर पर उत्पीड़क कानून कहा जाता है।
उच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि जब तक पुलिस रिकॉर्ड में गिरफ्तारी की जरूरत (दोषसिद्ध होने पर सात सालों तक की जेल की सजा हो सकती है) को लेकर पर्याप्त वजह न बताई जाए तब तक इस कानून के तहत किसी दलित पर अत्याचार करने के लिए किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी नहीं की जा सकती है। इस आदेश को कानून को कमजोर बनाने के तौर पर देखा गया और कहा गया कि अगर पुलिस गिरफ्तारी से पहले जांच करती है तब आरोपी व्यक्ति इस अवधि के दौरान आसानी से गांव वापस जा सकता है और शिकायतकर्ता को वहां से दूर कर सकता है।
अदालत ने आदेश दिया कि राज्य इसके लिए एक सरकारी आदेश जारी करे। आदेश की प्रतियों को सभी पुलिस स्टेशन में भेजा जाता है जिसमें शर्त यह होती है कि सवर्ण जाति के दबदबे वाला पुलिस बल वैधानिक रूप से दलितों के खिलाफ उत्पीडऩ के मामले में कोई कार्रवाई नहीं करेगा।
अप्रैल 2018 में पूरे देश भर में दलितों ने हड़ताल किया। इसका प्रभाव बना रह सकता है। रामकुमार कहते हैं, 'सबसे पहले मुलायम सिंह यादव ने पहले सवर्ण जातियों की एकजुटता की हकीकत को सामने लाने की कोशिश की जिससे पूरा मध्यम वर्ग एक साथ आया। मायावती ने भी दलितों के संदर्भ में कुछ ऐसा ही किया। अब नरेंद्र मोदी-योगी आदित्यनाथ सरकार अपनी खोई जमीन को वापस पाने का दावा कर रहे हैं और निचली जातियों को उनकी जगह दिखा रहे हैं। ऐसे में इसको लेकर होने वाली प्रतिक्रिया सभी देखेंगे।'
इसका नतीजा यह है कि सपा और बसपा के बीच राजनीतिक गठजोड़ अब लगभग एक सामाजिक गठजोड़ बन चुका है। पहले आपसी भरोसे की कमी, जातिगत घमंड की वजह से मायावती और अखिलेश यादव एक साथ आने से हिचकते रहे। एनएसएसओ के सर्वेक्षण के मुताबिक देश में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की आबादी 40.94 फीसदी है और अनुसूचित जाति की आबादी 19.59 फीसदी और अनुसूचित जनजाति की आबादी 8.63 फीसदी है जबकि बाकी आबादी की तादाद 30.80 फीसदी है। उत्तर प्रदेश की आबादी भी इसी अनुपात को कमोबेश दर्शाती है।
रामकुमार का कहना है कि ऐसी स्थिति में 80 लोकसभा सीटों में से सपा-बसपा गठजोड़ को 40 सीटें तक मिल सकती हैं जबकि भाजपा को 30 और कांग्रेस को 10 सीटें मिल सकती हैं। वह कहते हैं, 'भाजपा को खुद से यह सवाल करना चाहिए कि इसने ऐसी क्या गलती कर दी कि समाज के ऐसे तबके जो पांच साल पहले तक एक-दूसरे से बात तक नहीं करते थे वे अब एक साथ खड़े हो रहे हैं?'
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