इंडसइंड बैंक के प्रबंध निदेशक रमेश सोबती अगले साल मार्च में 70 साल की उम्र पूरा करने के बाद सेवानिवृत्त होने वाले हैं। लेकिन सोबती का कहना है कि अगर भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) उन्हें आगे भी पद पर बने रहने की अनुमति दे तो वह काम जारी रखना पसंद करेंगे। सोबती ने हाल ही में सीएनबीसी टीवी18 को दिए एक साक्षात्कार में कहा कि एचडीएफसी बैंक के उनके समकक्ष भी अपने पद पर बने रहना चाहेंगे। वैसे एचडीएफसी बैंक के प्रबंध निदेशक आदित्य पुरी की इस बारे में राय नहीं पता है लेकिन इसके उलट विचार होने के कोई कारण नहीं हैं।
भले ही सेवानिवृत्ति की आय पूरी करने के बाद भी पद पर बने रहने की सोबती की चाहत पर बहस हो सकती है लेकिन उनकी साफगोई ताजी हवा के झोंके की तरह है। उनकी उम्र और पद वाले तमाम लोग सेवानिवृत्त होने को लेकर हिचकिचाहट दिखाते रहे हैं लेकिन पद पर बने रहने के लिए सभी तरह का बहाने बनाते रहते हैं। एक सक्षम उत्तराधिकारी का नहीं मिल पाना या फिर संक्रमण के दौर से गुजरने का हवाला देते हुए कंपनी के नेतृत्व में निरंतरता को जरूरी ठहराना इसके सामान्य बहाने होते हैं।
कुछ लोग अपनी अपरिहार्यता में इस कदर यकीन रखते हैं कि वे पद छोडऩे से ही मना कर देते हैं। ऐसा होने का यह मतलब भी होता है कि नेतृत्व की दुर्लभ विलक्षणता के बारे में एक जैसी राय रखने वाले समूचे बोर्ड की सेवानिवृत्ति की उम्र लगातार बढ़ा दी जाती है। एक चेयरमैन खूब चर्चा में रहे थे जिन्होंने अपने पद पर बने रहने के लिए बोर्ड निदेशकों की सेवानिवृत्ति उम्र दो बार बढ़ा दी थी लेकिन जब उनकी सेवानिवृत्ति का समय आया तो उन्होंने निदेशकों की उम्रसीमा फिर से घटा दी।
हाल ही में कम-से-कम दो ऐसे हाई प्रोफाइल संभ्रांत लोग ऐसे रहे हैं जो अपने पसंदीदा लोगों को प्रबंध निदेशक नियुक्त करने के बाद गैर कार्यकारी चेयरमैन बन गए। 'द रिटायरमेंट सिंड़ेम' नाम के अध्ययन में इसके लिए अपने पीछे विरासत छोड़कर जाने की तीव्र इच्छा 'एडिफिस कॉम्प्लेक्स' को जिम्मेदार बताया गया। कोई भी यह नहीं कह सकता है कि इन कॉर्पोरेट प्रमुखों ने कुछ खास नहीं किया है। ये सभी अत्यधिक विलक्षण हैं, काम के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व दिया है और अपने संगठनों पर जबरदस्त असर डाला है।
खामी बस यह है कि उन्होंने विदा होना नहीं सीखा जिससे उनके चुने हुए उत्तराधिकारी के लिए काम मुश्किल होता गया। उन सभी लोगों को देखकर वॉल स्ट्रीट जर्नल में प्रकाशित उस कार्टून की याद आती है जिसमें एक व्यक्ति को डेस्क पर झुका हुआ दिखाया गया था। उस कार्टून के साथ यह कैप्शन लगा था, 'वह एक कार्यकारी के रूप में सेवानिवृत्त हुए, सलाहकार बनकर लौटे और अब वह एक विचारमग्न उपस्थिति रखते हैं।' दरअसल लंबे कामकाजी जीवन के बाद सेवानिवृत्ति के बाद की निष्क्रियता किसी के लिए भी समस्या हो सकती है।
इसका वित्तीय जिम्मेदारियों से कोई लेना-देना होना भी जरूरी नहीं है। पद पर बने रहने की तीव्र आकांक्षा की परिणति बड़े स्तर पर ऐसे मामलों में होती है जिनमें लोग नियंत्रण बनाए रखने की मंशा रखते हैं। साफ तौर पर कहें तो किसी भी व्यक्ति के लिए 'आधिकारिक' सेवानिवृत्ति के समय नौकरी से अलग होना शायद सबसे मुश्किल काम होता है- भले ही आप एक प्रबंधन छात्र हों या किसी कंपनी के मुख्य कार्याधिकारी (सीईओ) हों। जैसे, स्टैनफर्ड के शोधकर्ताओं ने एक प्रयोग किया जिसमें 282 प्रबंधन छात्रों को एक नई कलाई घड़ी का विज्ञापन बनाने वाली टीम के प्रबंधक या उनके सहयोगियों की भूमिका निभाने को कहा गया था। इन आंकड़ों से पता चला कि जिस प्रबंधक ने काम को लेकर अधिक संलिप्तता और नियंत्रण महसूस किया उसने उतने ही अनुकूल ढंग से अंतिम विज्ञापन का मूल्यांकन किया।
लोग इसलिए भी पद छोडऩे में कठिनाई महसूस करते हैं कि उन्हें सेवानिवृत्त होने के बाद भावनात्मक अवलंबन की जरूरत होती है। यह विडंबना ही है कि अधिकतर लोग सेवानिवृत्त होने का इंतजार इस आस पर करते रहते हैं कि इससे उन्हें रोजमर्रा की जिम्मेदारियों से मुक्ति मिलेगी। लेकिन इनमें से अधिकतर लोगों ने इस मुक्त जीवन के लिए कोई तैयारी ही नहीं की थी और जल्द ही बोरियत महसूस करने लगे, जिंदगी का कोई मकसद नहीं रहा और खुद को अवांछनीय महसूस करने लगे। जब भी वे रात में सोने के लिए बिस्तर पर जाते हैं तो उन्हें यही सवाल सताता रहता है कि कल सुबह जगने के बाद क्या करूंगा?
कुछ नहीं होने का यह अहसास सेवानिवृत्त होने के बाद सभी करियर-केंद्रित लोगों को होता है। फिल्म 'अबाउट श्मिट' में इसे बखूबी बयां किया गया है। इसकी कहानी एक जीवन बीमा कंपनी के वरिष्ठ पद से सेवानिवृत्त होने वाले वॉरेन श्मिट के बारे में है। फिल्म में श्मिट को अपनी नई जिंदगी के साथ तालमेल बिठाने में काफी मुश्किलें पेश आती हैं। वह अपने युवा उत्तराधिकारी को सलाह एवं मदद देने के लिए चले जाते हैं लेकिन वह उसे शालीनता के साथ नकार देता है।
'अनिच्छुक सेवानिवृत्त' हुए लोगों के लिए एक स्वाभाविक समाधान यह है कि जब तक संभव हो वे अपना काम जारी रखें। असल में, कुछ लोग ऐसा कर भी रहे हैं। अध्ययन से पता चलता है कि पिछले पांच वर्षों में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ी है जो सेवानिवृत्ति के बाद भी काम कर रहे हैं। लेकिन मानव संसाधन विशेषज्ञों का कहना है कि लंबे समय तक बने रहने की कोशिश एक शख्स की अपरिहार्यता के बोझ तले पूरे संगठन के कुचल जाने का जोखिम बढ़ा देती है। विशेषज्ञों का मानना है कि लोगों को उस पुराने ढर्रे से अलग सोचना चाहिए जिसके मुताबिक लोगों को अपनी जिंदगी के सर्वाधिक उत्पादक वर्षों में पूरी कुशलता से किया गया काम सेवानिवृत्ति के बाद भी नहीं करते रहना चाहिए।