गरीबों को आर्थिक विकास की प्रक्रिया में शामिल करने के लिए दोनों राजनीतिक दल हस्तांतरण प्रस्ताव लेकर आए हैं। इस संदर्भ में राजनीतिक अर्थशास्त्र का परीक्षण कर रहे हैं रथिन रॉय कल्याणकारी अर्थशास्त्र का दूसरा सिद्धांत कहता है कि एक अर्थव्यवस्था के अपने चरम पर होने की स्थिति में समाज की चाहत से अधिक कमाने वाले लोगों पर कर लगाने से मिली राशि कम कमाने वाले लोगों को हस्तांतरित कर कोई भी वांछित आय वितरण हासिल किया जा सकता है। मैं पहले भी कह चुका हूं कि 'सबके लिए बुनियादी आय' (यूबीआई) सुनिश्चित करने से संबंधित प्रस्ताव मूलत: इस सिद्धांत के आगे घुटने टेक देते हैं। कुछ राजनीतिक दलों की तरफ से रखे गए आय हस्तांतरण प्रस्तावों से संबंधित राजनीतिक अर्थव्यवस्था पर इस लेख में चर्चा की जाएगी। राजनीतिक अर्थव्यवस्था का तर्क है कि आय हस्तांतरण न्याय के लिहाज से जरूरी है। जॉन रॉल्स 'निष्पक्षता के रूप में न्याय' और 'वितरणकारी इंसाफ' के बीच विभेद करते हैं। पहली धारणा के मुताबिक, समान स्वतंत्रता और अवसरों की समानता के साथ आर्थिक इंतजाम जुड़े होते हैं। एक उभरती हुई बाजार अर्थव्यवस्था में आर्थिक वृद्धि की प्रक्रिया जितना अधिक समावेशी होगी- यानी जितने अधिक लोग शिरकत करें और आर्थिक वृद्धि लाने में भागीदारी से लाभ उठाएं, 'निष्पक्षता के रूप में न्याय' सुनिश्चित करना उतना ही अधिक होगा। 'वितरणकारी न्याय' का मतलब उत्तराधिकार में कुछ लोगों को मिले लाभ का स्तर दुरुस्त करने से है। अलग बौद्धिक या भौतिक क्षमताएं बढ़ाने और अर्जित पूंजी में फर्क के चलते क्षमता बढ़ाने के लिए किए गए निवेशों से होने वाले लाभों का वितरण असमान हो सकता है। इस स्थिति को सुधारने की जरूरत है। यह सकारात्मक कदम को बढ़ावा देने के साथ ही परिसंपत्ति एवं संपत्ति कराधान पर थॉमस पिकेटी के तर्कों और सबको एक बुनियादी आय सुनिश्चित करने का आधार बनता है। रॉल्स का तर्क है कि राजनीतिक अर्थव्यवस्था के पहले सिद्धांत को दूसरे सिद्धांत पर अहमियत मिलती है। अगर पहला सिद्धांत लागू नहीं होता है तो दूसरे सिद्धांत का अनुपालन बाकी रह जाता है। समावेशन के बगैर हुई वृद्धि पूंजी और उत्तराधिकार तक असमान पहुंच से हासिल लाभों को मुंह चिढ़ाती है। दिलचस्प बात यह है कि रॉल्स इसकी व्याख्या सार्वजनिक वित्त के संदर्भ में करते हैं। मसग्रेव का अनुसरण करते हुए रॉल्स सार्वजनिक वित्त की चार शाखाओं का वर्गीकरण करते हैं जिनमें से हरेक शाखा विभिन्न आयामों में न्याय देने के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। आवंटन शाखा हस्तक्षेप का जिक्र करती है ताकि मूल्य प्रणाली न्याय प्रदान करने के खिलाफ न हो। सापेक्ष कीमतें आय और संवहनीयता दोनों का नियमन करती हैं और दोनों तरह का न्याय सुनिश्चित करने के लिए इनका सुसंगत होना अनिवार्य है। स्थिरीकरण शाखा यह सुनिश्चित करती है कि वृहद-आर्थिक हालात 'निष्पक्षता के रूप में न्याय' स्थापित करें और वितरणकारी अन्याय को और न बढ़ाए। हस्तांतरण शाखा 'निष्पक्षता के रूप में न्याय' के लिए आय का एक न्यूनतम स्तर और सार्वजनिक एवं योग्यता-आधारित उत्पादों तक सबकी पहुंच सुनिश्चित करती है। महज बाजार मशीनरी पर निर्भर रहते हुए इन उत्पादों तक पहुंच नहीं हो सकती है। वहीं वितरण शाखा का ताल्लुक वितरणकारी हिस्सों में न्याय सुनिश्चित करने से है। वृद्धि को अधिकतम करने की इच्छा के पीछे प्रेरणा आर्थिक कॉमनवेल्थ को इस स्तर तक बढ़ाने की है कि आर्थिक हिस्सेदारी का आकार 'निष्पक्षता के रूप में न्याय' के लिए रोक न बन जाए। अगर आर्थिक हिस्सेदारी बढ़ती भी है तो बाजार ऐसा न्याय नहीं सुनिश्चित कर पाएगा। ऐसी स्थिति में एक न्यायपूर्ण सरकार सार्वजनिक वित्त का इस तरह इस्तेमाल करती है कि संसाधनों का आवंटन, सभी के उपभोग वाले उत्पादों की व्यवहार्यता और समग्र वृहद-आर्थिक प्रबंधन 'निष्पक्षता के रूप में न्याय' को बढ़ाए। मानवीय क्षमताओं का विकास एक सामूहिक प्रयास होने से राज्य स्वास्थ्य एवं शिक्षा जैसे सार्वजनिक एवं गुणवत्तापरक उत्पाद मुहैया कराने के लिए सार्वजनिक वित्त का इस्तेमाल करता है। यह समावेशी विकास और इस तरह 'निष्पक्षता के रूप में न्याय' सुनिश्चित करता है। परिसंपत्तियों, व्यवसाय और पूंजी पर लगने वाले करों का इस्तेमाल 'वितरणकारी न्याय' सुनिश्चित करने के लिए हस्तांतरण का वित्तपोषण करने में किया जाता है। असमान पूंजी एवं बौद्धिक प्रतिदानों के चलते कुछ लोगों को मिलने वाले अनुचित लाभों का उन्मूलन कर ऐसा किया जा सकता है। दोनों ही राष्ट्रीय दलों ने इसी रुख पर चलते हाल में हस्तांतरण योजनाओं की बातें की हैं। किसान विभिन्न वजहों से अन्याय का सामना करते हैं जिनकी वजह से वे कृषि उपज में काफी तेजी आने के बावजूद एक टिकाऊ एवं समुचित आय नहीं कमा पाते हैं। साफ है कि कृषि परिदृश्य में 'निष्पक्षता के रूप में न्याय' प्रदान करने में नाकामी रही है। 'निष्पक्षता के रूप में न्याय' के अभाव की भरपाई के लिए आय हस्तांतरण करने से ही समस्या का समाधान नहीं निकलेगा। बिचौलियों का खात्मा, भूमि सुधार और कृषि सेवाओं तक समान पहुंच सुनिश्चित करना दोनों तरह के न्याय के लिए अहम है। आय हस्तांतरण केवल तभी सकारात्मक भूमिका अदा कर सकता है जब बाकी वितरणकारी गतिविधियां भी काम करें। भारत के विकास पथ में गरीबी की समस्या को खासी तवज्जो दी जाती रही है। हालांकि समकालीन दौर में गरीबी के चंगुल में फंसने की आशंका वाली आबादी उन्हीं लोगों की है जो 'निष्पक्षता के रूप में न्याय' से वंचित रह गए हैं। ऐसे में कोई विवाद नहीं हो सकता है कि यह ऐसा मामला है जब भारतीय अर्थव्यवस्था के शीर्ष संकेतक अग्रणी 10 फीसदी लोगों के उपभोग से संबंधित हैं। वंचित गरीबों को किया जाने वाला आय हस्तांतरण वृद्धि प्रक्रिया में निष्पक्षता के रूप में न्याय की कमी की केवल भरपाई कर सकता है, उसकी जगह नहीं ले सकता है। दोनों ही मामलों में 'वितरणकारी न्याय' सुनिश्चित करने के समुचित साधन का इस्तेमाल 'निष्पक्षता के रूप में न्याय' दे पाने की नाकामी की भरपाई के लिए किया जा रहा है। इन प्रस्तावों के बारे में मेरी चिंता के केंद्र में यही है, उनकी व्यवहार्यता या उपयोगिता का सवाल अहम होते हुए भी प्रक्रियागत मसला है। मैं उतना चिंतित नहीं होऊंगा अगर इन आय हस्तांतरण प्रस्तावों के डिजाइन को दी गई तवज्जो के साथ यह सवाल भी उठे कि करीब 30 वर्षों तक तीव्र आर्थिक वृद्धि के बाद भी यह विशाल अर्थव्यवस्था उत्पादक समावेशन के जरिये निष्पक्षता के रूप में न्याय दे पाने में क्यों नाकाम रही है? इसका एकमात्र राजनीतिक जवाब अर्थव्यवस्था की इस नाकामी का नुकसान उठाने वाले लोगों को भरपाई करना है। मेरी राय में तो यह राजनीतिक जवाबदेही का परित्याग करना है। (लेखक नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनैंस ऐंड पॉलिसी के निदेशक हैं। ये उनके निजी विचार हैं)
