पश्चिमी उत्तर प्रदेश में असमंजस की स्थिति! | |
आदिति फडणीस / 04 04, 2019 | | | | |
उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर, बागपत, कैराना और गाजियाबाद में 11 अप्रैल को लोकसभा चुनाव के लिए मतदान होगा। इस क्षेत्र में 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में इस क्षेत्र में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का प्रदर्शन शानदार रहा था। अब सवाल यह है कि क्या पार्टी इस रिकॉर्ड को 2019 में दोहरा पाएगी। बागपत की मिसाल लीजिए। गणितीय आंकड़े कुछ सवालों के जवाब देते हैं।
मुंबई के पूर्व पुलिस आयुक्त, मोदी सरकार में केंद्रीय मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री और जाट नेता सत्यपाल सिंह के नियंत्रण में सभी संसाधन हैं। वर्ष 2014 में उन्होंने समाजवादी पार्टी (सपा) नेता गुलाम मोहम्मद को दो लाख से ज्यादा वोटों के अंतर से बुरी तरह से हराया था। वहीं राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के प्रमुख अजित सिंह को अपनी ही कर्मभूमि पर तीसरे पायदान पर रहने पर मजबूर होना पड़ा। इस बार चौधरी चरण सिंह और अजित सिंह के उत्तराधिकारी युवा जयंत सिंह बागपत से अपनी राजनीतिक किस्मत आजमा रहे हैं और निश्चित तौर पर इस बार भाजपा के लिए इस सीट को अपने खाते में बरकरार रखना बेहद मुश्किल होने जा रहा है।
इसकी वजह जाति है। वर्ष 2014 में सत्यपाल सिंह को करीब चार लाख वोट मिले और उन्होंने 2.30 लाख वोटों के अंतर से जीत दर्ज की। लेकिन अब उनके खिलाफ 2014 में खड़े होने वाले अजित सिंह और गुलाम मोहम्मद के वोटों को जोड़ कर देखते हैं। अजित सिंह को करीब 1,99,000 वोट मिले जबकि मोहम्मद को 2.13 लाख वोट मिले। इन दोनों का कुल वोट सत्यपाल सिंह को मिले कुल वोटों के बराबर ही है। एक पल के लिए हम यह मान भी लें कि अजित सिंह और गुलाम मोहम्मद (जो इस बार चुनाव नहीं लड़ रहे) के समर्थक एक समान नहीं हैं और इनमें कुछ भाजपा को भी समर्थन दे सकते हैं, ऐसे में वाइल्ड कार्ड प्रशांत चौधरी साबित होंगे। 2014 के चुनावों में बागपत ने चौधरी का संज्ञान भी लिया जो गुर्जर नेता हैं और उन्होंने बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा।
गुर्जरों ने गौतम बुद्ध नगर, मेरठ, कैराना, बिजनौर, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, बुलंदशहर और बागपत की संसदीय सीटों पर काफी प्रभाव बनाए रखा। उनका असर है लेकिन बागपत में उनके वोट महज 45,000 तक हैं। उन्हें 1.42 लाख वोट मिले और ऐसा माना जाता है कि उन्हें न केवल गुर्जरों का बल्कि दलितों का भी वोट मिला जो आबादी का करीब 11 फीसदी तक है। इस निर्वाचन क्षेत्र में दो तरह के दलित हैं। वाल्मीकि (कुल दलित आबादी का करीब 20 फीसदी और ज्यादातर भाजपा के समर्थक) और जाटव (दलित आबादी का 80 फीसदी जो केवल मायावती को वोट देते हैं)। अगर सीटों के समायोजन के लिहाज से देखें तो बसपा का कोई उम्मीदवार नहीं है।
ऐसे में गुर्जर और जाटव दलित किसे वोट देंगे? क्या वे जयंत चौधरी के पक्ष में खड़े दिखेंगे? या फिर मोदी की अपील सत्यपाल सिंह के समर्थन में बदल सकती है? यह कहना बेहद मुश्किल है। कैराना की तरह ही बागपत में गुर्जरों के उलटफेर के साथ ही संयुक्त विपक्ष का दबदबा जरूर है।
कैराना में भी बड़े उलटफेर देखे गए जब हुकुम सिंह की मृत्यु के बाद भाजपा ने उनकी बेटी मृगांका को 2018 के चुनावों में उम्मीदवार के तौर पर उतारा। उन्हें इस बार कोई सीट नहीं दी गई है। उन्होंने इस बात को स्पष्ट तौर पर जाहिर किया कि उन्हें इस बात से दुख है। यह सच है कि हुकुम सिंह को इस निर्वाचन क्षेत्र में काफी समर्थन और सम्मान मिला लेकिन उनकी बेटी के साथ ऐसा नहीं है।
मृगांका 2018 का उपचुनाव तबस्सुम हसन से हार गईं जो संयुक्त विपक्ष की उम्मीदवार थीं। लेकिन तब विपक्ष एक साथ था। कांग्रेस ने यहां अपना उम्मीदवार हरिंदर मलिक को बनाया है जिनके लिए सम्मान होने के साथ ही मतदाताओं की सर्वसम्मति भी है। खासतौर पर अल्पसंख्यक मुसलमान मतदाताओं के लिए जिनकी तादाद 16 लाख कुल मतदाताओं की संख्या में करीब 5 लाख है। 2018 के आखिरी चुनाव में तबस्सुम हसन को 51 फीसदी वोट मिले। इसकी वजह यह थी कि उनके खिलाफ सिर्फ भाजपा ही खड़ी थी।
लेकिन कांग्रेस के मलिक इस बार खेल बिगाड़ सकते हैं। मलिक की राजनीतिक क्षेत्र में अच्छी पकड़ है। वह स्थानीय बोली में बात करते हैं और लोगों के बीच उनकी एक जगह है। लेकिन निजी तौर पर उन्होंने अपने एक समर्थक को कहा कि वह एक बलि का बकरा हैं, क्योंकि वह मुसलमानों के समर्थन के बिना चुनाव नहीं जीत सकते और मुसलमान तबस्सुम हसन को वोट देंगे। छोटे कारोबारी इकबाल का कहना है कि भाजपा समर्थक भी तबस्सुम के लिए वोट देंगे। अब ऐसे में भाजपा के लिए कैसी स्थिति है? भाजपा ने मृगांका के अधिकार वाले दावे को खारिज करते हुए उनकी जगह प्रदीप चौधरी को मैदान में उतारा है। औसत भाजपा कार्यकर्ताओं ने गहरी चुप्पी साधी है। लेकिन मतदान मोदी के लिए या मोदी के खिलाफ होगा। भाजपा द्वारा यह सीट हारने की बड़ी संभावनाएं हैं।
मुजफ्फरनगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रमुख इलाका है। यहां चौधरी साब अजित सिंह (इन इलाकों में वह इसी नाम से मशहूर हैं) भाजपा के संजीव बालियान के खिलाफ खड़े हैं। हैरानी की बात यह है कि बालियान अपनी जीत की संभावनाओं को लेकर अनिश्चितता में हैं। वह आसानी से प्रभावित होने वाले लोगों में से नहीं हैं। वह डॉक्टर और वैज्ञानिक हैं। उन्होंने 2014 में 4 लाख वोटों के अंतर से जीत दर्ज की थी। लेकिन मुजफ्फरनगर की मुख्य समस्या गन्ना और इससे जुड़ी है।
लेकिन बात इतनी ही नहीं है। बालियान 2013 में मुजफ्फरनगर दंगे के एक आरोपी हैं। इस क्षेत्र में सांप्रदायिकता की भावना काफी ज्यादा है। पड़ोस के सहारनपुर में इमरान मसूद कांग्रेस के उम्मीदवार हैं जो तेज तर्रार मुस्लिम नेता हैं। सहारनपुर का कोई अप्रत्यक्ष असर भी है। बालियान के लिए इस बार मुकाबला इतना आसान नहीं होगा।
कांग्रेस की उम्मीदवार डॉली शर्मा की वजह से गाजियाबाद की गणना थोड़ी उलट-पुलट नजर आ रही है। हालांकि जनरल वी के सिंह का बूथ स्तर का सुव्यवस्थित समन्वय असफल होने की संभावना कम ही है जिन्हें भाजपा ने इस बार फिर से अपना उम्मीदवार बनाया है। 2014 में नरेंद्र मोदी के बाद उन्होंने ही सबसे ज्यादा वोटों के अंतर से जीत दर्ज की थी। हालांकि वह प्रदर्शन दोहराना फिलहाल मुश्किल लग रहा है लेकिन वह संभवत: अपनी सीट बचा ले जाएंगे। लेकिन जीत के अंतर में कमी आ सकती है। सपा-बसपा-रालोद के उम्मीदवार सुरेश बंसल, वी के सिंह से उनके निर्वाचन क्षेत्र में विकास के सभी दावे पर सवाल करते हैं। लेकिन मुसलमानों में भी विभाजन दिख रहा है। वे कांग्रेस के लिए वोट कर सकते हैं लेकिन मुमकिन है कि बंसल का समर्थन भी कर दें।
2014 में सहारनपुर को छोड़कर भाजपा उम्मीदवारों ने इस क्षेत्र के सभी सातों निर्वाचन क्षेत्रों में अपने प्रतिद्वंद्वियों को दो लाख से ज्यादा वोटों से हराया था। सहारनपुर में भाजपा उम्मीदवार ने 65,000 वोट से जीत दर्ज की। लेकिन सवाल है कि इस बार क्या होगा? जाट नेता और कृषि वैज्ञानिक सोमपाल सिंह जो वी पी सिंह सरकार के कार्यकाल के दौरान केंद्रीय मंत्री थे वह भाजपा की संभावना को लेकर निराशा जताते हैं। ऐसे में निष्कर्ष यही निकलता है कि लोग मोदी को चाहते जरूर हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे भाजपा उम्मीदवार को भी चाहते हैं। यकीनन सारी बाधाएं इसी वजह से हैं।
|