जारी रहेगी फंसे हुए कर्ज से लड़ाई | तमाल बंद्योपाध्याय / April 03, 2019 | | | | |
न्यायिक अवमानना का जोखिम उठाते हुए भी मैं यह कहना चाहूंगा कि सर्वोच्च न्यायालय ने मंगलवार को जो आदेश दिया उसे देश के केंद्रीय बैंक पर सर्जिकल स्ट्राइक कहा जा सकता है। अदालत का निर्णय रिजर्व बैंक की फंसे हुए कर्ज के खिलाफ लड़ाई को एक झटका है। अदालत ने आरबीआई के 12 फरवरी, 2018 के उस परिपत्र को खारिज कर दिया जिसमें बैंकों से कहा गया था कि वे बिजली, चीनी, नौवहन क्षेत्र की डिफॉल्ट करने वाली कंपनियों को ऋणशोधन प्रक्रिया से गुजारें।
अगस्त 2018 में बिजली क्षेत्र की कंपनियां और औद्योगिक समूह इस परिपत्र की संवैधानिक वैधता को लेकर सर्वोच्च न्यायालय गए थे। न्यायालय ने किन आधारों पर आरबीआई के निर्देश को खारिज किया? विकसित देशों में भी अक्सर न्यायालय सरकार या नियामकों के नीतिगत निर्णयों में हस्तक्षेप नहीं करते। परंतु वह किसी नियम के क्रियान्वयन में प्रक्रिया के उल्लंघन के मामले में अवश्य हस्तक्षेप कर सकता है। वहीं अगर उसे लगे कि कोई नियम संवैधानिक प्रावधान के खिलाफ है तो भी वह कदम उठा सकता है।
इस मामले में न्यायमूर्ति रोहिंटन फली नरीमन और न्यायमूर्ति विनीत सरन के पीठ ने पाया कि परिपत्र से मई 2017 में संशोधित बैंकिंग अधिनियम की धारा 35एए का उल्लंघन हुआ था। अधिनियम के तहत किसी एक डिफॉल्ट मामले में निर्देश दिया जा सकता था लेकिन इस मामले में नियामक ने ढेर सारे डिफॉल्ट के मामलों को इकठ्ठा किया था। बिजली कंपनियों का आरोप था कि आरबीआई ने सबको एक ही तराजू में तौल दिया जबकि उसे यह देखना चाहिए था कि कंपनियां अपना कर्ज क्यों नहीं चुका पा रही हैं। उन्होंने मांग और आपूर्ति की दलील भी रखी। आरबीआई ने कहा कि इन कंपनियों को पर्याप्त समय दिया गया लेकिन वे मुद्दे को हल नहीं कर पाईं।
अगस्त 2018 में आरबीआई को पहले चरण में जीत मिली जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि वह बिजली कंपनियों को कोई राहत नहीं दे सकता। उसने सुझाव दिया कि सरकार रिजर्व बैंक अधिनियम की धारा 7 का प्रयोग करके निर्देश जारी कर सकती है। सरकार ने ऐसा करने की बात भी कही थी। इस निर्णय के बाद तीन दर्ज कंपनियों ने सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया, जिसने सभी मामलों को चेन्नई और दिल्ली के उच्च न्यायालयों में भेज दिया। उसने इन कंपनियों के खिलाफ ऋणशोधन की प्रक्रिया पर रोक भी लगा दी। आरबीआई की वेबसाइट पर उक्त परिपत्र 12 फरवरी की मध्यरात्रि प्रकाशित किया गया। अगले दिन यानी 13 फरवरी को अवकाश था और बाजार बंद थे। आरबीआई ने यह सुनिश्चित करना चाहा था कि बाजार पर इसका बुरा असर न पड़े।
निश्चित तौर पर सरकार का रुख इन कंपनियों के प्रति नरम था। उसने केंद्रीय बैंक को भी नरमी बरतने के लिए मनाने का पूरा प्रयास किया। यहां तक कि उसने आरबीआई अधिनियम की धारा 7 का प्रयोग करने की बात भी कही थी। परंतु केंद्रीय बैंक अपने मानक शिथिल करने को तैयार नहीं हुआ।
कई लोग कहते हैं कि पूर्व आरबीआई गवर्नर ऊर्जित पटेल और सरकार के बीच इस विवाद की शुरुआत इसी परिपत्र से हुई और आखिरकार दिसंबर 2018 में पटेल की आरबीआई से विदाई हो गई। परिपत्र में बैंकों तथा अन्य लेनदारों से कहा गया था कि वे या तो 2,000 करोड़ रुपये या उससे अधिक के फंसे खातों की निस्तारण योजना पेश करें या फिर उनके विरुद्घ ऋणोशोधन प्रक्रिया शुरू की जाएगी। निस्तारण के लिए 180 दिन का समय दिया गया जिसमें प्रक्रिया शुरू न होने पर संपत्ति जब्त कर ऋणशोधन की प्रक्रिया शुरू करनी थी।
यह परिपत्र का केवल एक हिस्सा था। उसके कई अन्य पहलू भी थे। उदाहरण के लिए संकटग्रस्त परिसंपत्तियों के निस्तारण के तमाम अन्य ढांचे मसलन कॉर्पोरेट डेट रिस्ट्रक्चरिंग (सीडीआर), स्ट्रैटेजिक डेट रिस्ट्रक्चरिंग (एसडीआर) और संकटग्रस्त परिसंपत्तियों का स्थायी पुनर्गठन (एस4ए) आदि को वापस ले लिया गया और ऋणदाताओं के संयुक्त मंच को खत्म कर दिया गया था। मुझे नहीं लगता कि इस फैसले के बाद वह दोबारा शुरू होगा।
फंसे कर्ज का 180 दिन के भीतर निस्तारण न होने की स्थिति में उसे आईबीसी के हवाले करके आरबीआई यह चाहता था कि अगर कोई कर्जदार बैंक ऋण न चुका पाए तो वह डिफॉल्टर हो जाए। वह 'तनावग्रस्त' शब्द का इस्तेमाल बंद करना चाहता था क्योंकि उसका इस्तेमाल प्राय: बैंक अपरिहार्य परिस्थिति को टालने के लिए करते थे।
यकीनन टालने वाला काम किया गया। कई मामलों में नया कर्ज भी दिया गया ताकि पुराना कर्ज चुकाया जा सके। बैंक अपनी बैलेंस शीट को बचाना चाहते थे। इसके अलावा कई को कर्जदारों के साथ रिश्ते की कीमत चुकानी पड़ी। जून 2015 में एसडीआर ने बैंकों को यह अधिकार दिया कि वे संकटग्रस्त कंपनियों में अपने कर्ज का एक हिस्सा बहुलांश हिस्सेदारी में बदल सकें। यह काम नहीं आया क्योंकि प्रवर्तकों ने पुनर्गठन में देरी की और नए निवेशक नहीं लाए। इससे पहले फरवरी 2014 में आरबीआई ने संकटग्रस्त कंपनियों के प्रबंधन में बदलाव की इजाजत दी ताकि पहले नुकसान अंशधारक वहन करें। सीडीआर के जरिये ऐसा किया गया लेकिन नाकामी हाथ लगी। एस4ए योजना ने बैंकों को यह इजाजत दी कि वे संकटग्रस्त कंपनियों में अपने आधे कर्ज को शेयर या शेयरनुमा प्रतिभूति में बदलें।
आरबीआई ने फंसे हुए कर्ज के खिलाफ एक्यूआर यानी ऐसेट क्वालिटी रिव्यू के जरिये फंसे हुए कर्ज के खिलाफ जंग छेड़ी। इसके तहत आरबीआई ने तमाम बैंकों के बहीखातों में फंसे कर्ज की पहचान की। बैकों को कहा गया कि मार्च 2017 तक फंसा कर्ज चिह्निïत करें। वर्ष 2017 में एक अध्यादेश लाकर बैंकिंग नियमन अधिनियम 1949 में संशोधन किया गया। केंद्रीय बैंक को यह अधिकार दिया गया कि वह बैंकों पर फंसे कर्ज से निपटने का दबाव बनाएं। आरबीआई को यह अधिकार मिला कि वह बैंकों से देनदारी चूकने वालों के खिलाफ आईबीसी में प्रक्रिया शुरू कर सके। ऐसा कारोबारी जगत को यह दर्शाने के लिए आवश्यक था कि सरकार इस कदम के साथ है। इसके बाद आरबीआई के दबाव में बैंकों ने 2017 में 39 खातों के खिलाफ दिवालिया प्रक्रिया शुरू की। 12 फरवरी का परिपत्र, जो अब खारिज कर दिया गया है, वह 2017 के 39 मामलों पर लागू नहीं होता।
यकीनन यह निर्णय आरबीआई की फंसे कर्ज से जंग के लिए झटका है लेकिन यह अस्थायी ही है। इन मामलों की निस्तारण प्रक्रिया में देरी होगी और वे बैंक निराश होंगे जो पहले ही आवश्यकता से अधिक फंसा कर्ज उजागर कर चुके हैं। परंतु सवाल यह है कि क्या वे उन कर्जदारों को नया कर्ज देना पसंद करेंगे जो अदालत जाकर पैसे की वसूली की राह रोकना चाहते हैं।
क्या आरबीआई को डिफॉल्टरों से निपटने की नई व्यवस्था पर काम करना होगा? शायद नहीं। उसके पास संशोधन से पहले से यह अधिकार है कि वह बैकों को निर्देशित कर सके। अब उसे बस बैंकों से अलग-अलग यह कहना होगा कि वे फंसे कर्ज की वसूली के लिए काम करें। जरूरी नहीं कि हर डिफॉल्ट से आईबीसी में ही निपटा जाए।
स्वच्छता अभियान के बाद बैंकरों और कॉर्पोरेट जगत दोनों का रुख बदला हुआ है। प्रवर्तक अब अपने कारोबार को गंभीरता से ले रहे हैं। क्या इस फैसले से कुछ बदलेगा? मुझे नहीं लगता। एक मजबूत बैंकिंग तंत्र आवश्यक है वरना हमारी विकास गाथा कमजोर पड़ जाएगी।
(लेखक बिज़नेस स्टैंडर्ड के सलाहकार संपादक, लेखक और जन स्मॉल फाइनैंस बैंक लि. के वरिष्ठ परामर्शदाता हैं)
|