'पीएम किसान और न्याय जैसी योजनाओं को राज्यों पर छोडऩा ही बेहतर' | बीएस बातचीत | | ईशान बख्शी और इंदिवजल धस्माना / March 30, 2019 | | | | |
रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर और 14वें वित्त आयोग के अध्यक्ष वाई वी रेड्डी ने ईशान बख्शी और इंदिवजल धस्माना को दिए साक्षात्कार में कहा कि राजकोषीय समेकन पर राज्यों को और अधिक कदम उठाने के लिए कहा गया है जबकि मुख्य समस्या केंद्र सरकार में है। वह अपनी पुस्तक 'इंडियन फिस्कल फेडरलिज्म' के विमोचन के सिलसिले में दिल्ली में थे। इसे उन्होंने तेलंगाना सरकार के सलाहकार (वित्त) जी आर रेड्डी के साथ मिलकर लिखा है। पेश है मुख्य अंश:
एन के सिंह पैनल ने एफआरबीएम कानून में संशोधन की बात कही है। आपने ने भी अपनी किताब में सार्वजनिक कर्ज पर चर्चा की है। जिस प्रकार की मौजूदा व्यवस्था है उसमें ऐसा लगता है कि यदि आपको कर्ज-जीडीपी अनुपात को कम करना है तो केंद्र पर ज्यादा बोझ पड़ता है। इसके लिए केंद्र सरकार को व्यापक समायोजन करना होगा। क्या आप सोचते हैं कि अगले पांच वर्ष में इस अनुपात को कम कर पाना मुमकिन है?
यदि आप एन के सिंह पैनल की ओर से सुझाए गए उपाय पर गौर करें तो यह असमान है। जहां समस्या मुख्य तौर पर केंद्र सरकार में है राज्यों को जरूरत से अधिक राजकोषीय समेकन करने के लिए कहा गया है। कहीं न कहीं यह विरोधाभासी है।
इस संदर्भ में आप पीएम किसान और न्याय योजना को किस तरह से देखते हैं? क्या आप सोचते हैं कि इसे लागू कर पाना आसान होगा? ये योजनाएं केंद्र सरकार के राजकोषीय मजबूती पर किस तरह से असर डालेंगी?
यदि ये योजनाएं केंद्र सरकार के पास होगी तो इससे राजकोषीय जोखिम अधिक होगा। इसकी वजह है कि केंद्र सरकार के पास इसके लिए ठोस बजट नहीं है। केंद्र सरकार पहले से ही राजकोषीय मोर्चे पर जूझ रही है। वहीं राज्यों के पास रकम की किल्लत नहीं है। राज्यों को इन योजनाओं को केंद्र द्वारा निश्चित बजट की सीमा में रखना होगा जहां उधारी की रकम पहले से तय है।
इसके अलावा इन योजनाओं के लिए स्थानीय समझ की दरकार होती है। क्या आप सोच सकते हैं कि नगालैंड के किसान और मध्य प्रदेश या केरल के किसान की हैसियत एक जैसी होगी। पूरी जानकारी राज्य सरकार के पास होती है। प्रशासनिक व्यवस्था राज्यों को करनी होती है। ऐसे में जाहिर है कि जिम्मेदारी भी राज्यों की होनी चाहिए। इसलिए तुलनात्मक लाभ के साथ-साथ वित्तीय जोखिम दोनों ही संदर्भों में ये योजनाएं राज्यों के पास ही होनी चाहिए। केंद्रीय योजनाओं के तौर पर ये कम तर्कपूर्ण और अधिक वित्तीय जोखिम वाले हैं। मैं इस बात को लेकर कोई निर्णय नहीं दे रहा हूं कि ये योजनाएं अच्छी हैं या बुरी।
लेकिन कुछ राज्यों में किसानों ने आत्महत्या की है...क्या तब भी आप यही कहेंगे कि केंद्र को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए?
केंद्र राज्य सरकारों से पूछ सकती है कि वे इन मामलों में कदम क्यों नहीं उठा रहे हैं। यदि वहां आत्महत्याएं हो रही हैं और राज्य में भयानक स्थिति है, तो क्या आपको नहीं लगता कि वहां की जनता उस राज्य का भविष्य तय करेगी? वहां एक चुनी हुई सरकार है। वहां संविधान है। ऐसा भी नहीं है कि हर राज्य सभी मोर्चों पर असफल हो रहे हैं। केंद्र राज्यों को किसी खास योजना को चलाने के लिए उत्साहित या हतोत्साहित कर सकती है। लेकिन केंद्र सरकार को राज्यों को उन योजनाओं में शामिल नहीं करना चाहिए जो राज्य सूची में आते हैं।
हाल ही में रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने सुझाव दिया था कि वित्त आयोग को स्थायी संस्था बना देना चाहिए। इस पर आपका क्या विचार है?
इस मामले का परीक्षण सरकारिया आयोग ने किया था, जिसमें कहा गया था कि आयोगों को स्थायी नहीं बनाया जाना चाहिए। कई दूसरे लोगों ने भी इसका परीक्षण किया था। 14वें वित्त आयोग ने यह भी सिफारिश की थी कि दो अलग अलग संस्थाएं होनी चाहिए। पहला वित्त आयोग जिसका गठन पांच वर्ष में एक बार किया जाना चाहिए और दूसरा योजना आयोग की तरह सतत निकाय होनी चाहिए जो कि गैर-वित्त आयोग के स्थानांतरण के काम को देखे। अब तक की पूर्व निश्चित राय वित्त आयोग को स्थायी निकाय बनाने के खिलाफ है।
जैसा कि 15वें वित्त आयोग ने कहा है जनसंख्या संदर्भ को 1971 से बदलकर 2011 करने पर आपकी क्या राय है?
14वें वित्त आयोग ने स्पष्ट तौर पर उल्लेख किया था कि प्रत्येक आयोग को अपने कार्यकाल की जनसंख्या के मुताबिक काम करना चाहिए। आप पुरानी जनसंख्या को मद्देनजर रखते हुए यह नहीं कह सकते कि हम कल की जरूरतों का आकलन करने के लिए इसको आधार बनाएंगे। जनसंख्या संदर्भ के लिए 1971 के स्थान पर 2011 का उपयोग करना बेहतर है। लेकिन आदर्श रूप में जनगणना महापंजीयक से 2022 के लिए जनसंख्या अनुमान देने की मांग करनी चाहिए।
लेकिन यदि 2011 की जनसंख्या को आधार बनाया जाता है तो इससे दक्षिण के राज्यों की नुकसान होने की चिंता का समाधान तो नहीं होगा?
प्रत्येक राज्य की ङ्क्षचताओं का समाधान होना चाहिए लेकिन वह तर्कपूर्ण तरीके से हो। 13वें वित्त आयोग तक 1971 की जनसंख्या को आधार बनाया गया था। लेकिन 14 वित्त आयोग में ठीक तरीके से समायोजना के लिए 1971 और 2011 दोनों वर्ष की जनसंख्या को महत्त्व दिया गया। यह बीच की स्थिति है। हम पहले ही 1971 से आगे कुछ दूरी तय कर चुके हैं।
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