भारत में कुछ सांसद 25 लाख लोगों का कर रहे प्रतिनिधित्व | सचिन मामबटा / March 20, 2019 | | | | |
देश की संसद में प्रतिनिधि पर्याप्त नहीं हैं। अक्रोस ग्लोबल लेजिस्लेचर्स के आंकड़ों के मुताबिक भारत उन देशों में शामिल है, जहां हर सांसद सबसे अधिक लोगों का प्रतिनिधित्व करता है। देश में प्रति सांसद लोगों का अनुपात वैश्विक और पड़ोसी देशों के औसत से अधिक है। शोध में यह सामने आया है कि उचित संख्या में जनप्रतिनिधि नहीं होने का नीति-निर्माण पर बड़ा असर पड़ सकता है। एक अध्ययन में दर्शाया गया है कि वैश्विक स्तर पर औसतन एक सांसद 1,46,000 लोगों का प्रतिनिधित्व करता है। यह आंकड़ा भारत में करीब 10 गुना तक अधिक है। देश में हर 15 लाख लोगों पर एक सांसद है। दुनियाभर की राष्ट्रीय संसदों के संगठन- अंतर-संसदीय संघ की 2012 की रिपोर्ट के आंकड़े दर्शाते हैं कि दुनियाभर में भारत में आबादी की तुलना में सांसदों की संख्या सबसे कम है। भारत में एक सांसद 15 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए वह इस मामले में पड़ोसी देशों से भी पीछे है। एशिया-प्रशांत क्षेत्र में प्रत्येक 3,13,000 लोगों पर एक जनप्रतिनिधि है, जो वैश्विक औसत से दोगुना है।
यह मुद्दा एक सांसद बनाने की लागत का भी नहीं होने के आसार हैं। अध्ययनों ने दर्शाया है कि भारत संसद पर सबसे कम खर्च करता है। परचेजिंग पावर पैरिटी के आधार पर प्रति व्यक्ति बजट 0.25 डॉलर है। इस लागत की दुनियाभर के देशों की उसी आधार पर तुलना की जा सकती है। हालांकि देश में कुछ समय सदस्यों की संख्या में कोई बढ़ोतरी नहीं हो सकती। दरअसल संसद ने वर्ष 1971 की जनगणना के आधार पर 2026 तक सदस्य संख्या 545 (543 और दो आंग्ल भारतीय सदस्य नामित) नियत की हुई है। ऐसा इसलिए किया गया ताकि प्रतिनिधित्व कम किए बिना जनसंख्या नियंत्रण के उपायों को क्रियान्वित किया जा सके। इसकी वजह यह है कि सांसदों में बढ़ोतरी आबादी के हिसाब से करनी होगी। कुछ राज्यों (विशेष रूप से दक्षिणी राज्यों) का अपनी आबादी को नियंत्रित करने में अन्य राज्यों के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन रहा है। यह संशोधन इसलिए किया गया क्योंकि यह माना गया कि अगर ज्यादा आबादी वाले राज्यों को ज्यादा सांसद मिले तो बेहतर जनसंख्या नियंत्रण वाले राज्यों को अपनी सफलता की कीमत कम प्रतिनिधित्व के रूप में चुकानी पड़ेगी।
लेकिन भी पर्याप्त प्रतिनिधित्व न होने का मुद्दा बरकरार है। अगर हम लोक सभा को ही देखें तो उत्तर प्रदेश जैसे सबसे अधिक प्रतिनिधित्व वाले राज्यों में एक सांसद 25 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करता है। 100 देशों में प्रतिनिधित्व के अध्ययन में कहा गया है कि कम प्रतिनिधि सदस्य होने का मतलब है कि नीति कुछ लोगों के पक्ष में झुकी हुई है। पब्लिक चॉइस के एक मार्च, 1998 के आलेख के मुताबिक, 'बहुत कम प्रतिनिधित्व से सार्वजनिक फैसले सक्रिय अल्पसंख्यकों के पक्ष में पूर्वग्रह से ग्रसित हो सकते हैं। यह कम प्रतिनिधित्व वाले समूहों को नुकसान है। पर्यवेक्षण यह भी संकेत देते हैं कि जिन देशों में अत्यधिक प्रतिनिधि होते हैं, वहां भ्रष्टाचार का स्तर अधिक हो सकता है।' इस आलेख का शीर्षक 'ऑन दी ऑप्टिमल नंबर ऑफ रीप्रजेंटेटिव्ज' था। इसके लेखक इमानुअल ऑरियोल और रोबर्ट जे गैर-बोबो हैं। इसमें कहा गया है कि ज्यादा सदस्यों से भी समस्याएं पैदा हो सकती हैं। लेकिन यह एक चिंता है, जिसे 2026 तक इंतजार करना पड़ सकता है।
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