सरकारी बैंकों में पूंजी निवेश और उनकी निरंतर नाकामी
देवाशिष बसु / March 13, 2019
मुख्य आर्थिक सलाहकार (सीईए) कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यन ने कुछ दिन पहले कहा कि सरकारी क्षेत्रों के बैंकों के संचालन में सुधार के लिए पी जे नायक समिति की अनुशंसाओं को लागू करना महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि जब तक इन सुधारों को संस्थागत रूप प्रदान नहीं किया जाता है, इस क्षेत्र में जोखिम बरकरार रहेगा। वह अपनी बात विनम्रतापूर्वक रख रहे थे।
मौजूदा भाजपानीत सरकार ने वादा किया था कि वह संचालन को बेहतर बनाएगी और जवाबदेही सुनिश्चित करेगी। इस सरकार के पांच वर्ष के शासन के बाद अब हम कह सकते हैं कि बैंकों के चेयरमैनों की अतीत की या हालिया गड़बडिय़ों, भारतीय रिजर्व बैंक की बैंकिंग निगरानी शाखा या वित्त मंत्रालय की निरंतर मजबूत होती बाबूशाही को लेकर कोई जवाबदेही सुनिश्चित करने का काम नहीं हुआ है। यही कारण है कि ऋण देने में होने वाले भ्रष्टाचार, बड़े पैमाने पर होने वाले नुकसान और बैंकों के पुनर्पूंजीकरण आदि को लेकर कुछ खास नहीं हो सका है। इस बीच भ्रष्ट और नाकारा बैंकों में जनता की अरबों रुपये की राशि निंरतर इस तंत्र को सुचारु रूप से चलाते रहने के लिए इस्तेमाल की जा रही है। देश की आबादी का तकरीबन 25 फीसदी अत्यधिक गरीबी में जीवन बिता रहा है।
सुब्रमण्यन के पहले जो भी सीईए रहे, उनमें हमें इस कदर साफदिली देखने को नहीं मिली। सुब्रमण्यन ने यह भी कहा, 'केंद्र सरकार ने यह राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाई है कि सरकारी बैंक स्वायत्त ढंग से काम कर सकें और उनके वाणिज्यिक निर्णयों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप न हो। परंतु हमें एक कदम पीछे हटकर हकीकत का आकलन भी करना चाहिए। यह सब राजनीतिक इच्छाशक्ति से संभव हुआ लेकिन अभी इसे संस्थागत रूप नहीं प्रदान किया जा सका है।' कोई भी समझदार व्यक्ति जिसे इतिहास की जानकारी हो वह यह जानता है कि अगर किसी चीज को संस्थागत स्वरूप नहीं दिया जाता है तो उसका मोल भी कम होता है। हालांकि सुब्रमण्यन ने एकदम सही मुद्दा उठाया लेकिन वह भी तमाम अन्य शुभेच्छुओं की तरह सरकारी बैंकों से जुड़ा एक अहम मुद्दा उठाने से चूक गए।
सरकारी बैंकों में तीन तरह का भ्रष्टाचार देखने को मिला है। कुटिल कारोबारियों को भारी भरकम ऋण देने का मामला इनमें से एक है और यह उच्चतम स्तर पर राजनीतिक हस्तक्षेप से संभव होता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसे ही फोन बैंकिंग कहते हैं। दूसरा है दिवालिया कंपनियों को लेकर नियामकों, रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय के बीच सहानुभूति का मामला। इन्होंने फंसे हुए कर्ज के निपटान की प्रक्रिया में नियमित रूप से समझौते किए। आरबीआई की सीडीआर, एसडीआर, एस4आर, सीडीआर2 और 5/25 जैसी योजनाएं फंसे हुए कर्ज को निरंतर जारी रखने का जरिया भर थीं।
इससे पहले कि आप यह कहना शुरू कर दें कि फंसे हुए कर्ज के निस्तारण की प्रक्रिया तय हो चुकी है, यह याद रखें कि ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता को लागू करने के साथ-साथ 'प्रॉम्प्ट करेक्टिव एक्शन' की परिभाषा में बदलाव, बैंकों द्वारा किसी ऋण को डिफॉल्ट घोषित करने के समय में बदलाव से लेकर राष्ट्रीय कंपनी लॉ पंचाट द्वारा कई अपवाद आदेशों तक अनेक परिवर्तन भी किए गए हैं। सरकारी बैंकों से दिए जाने वाले ऋण में तीसरी समस्या है शाखाओं से लेकर क्षेत्रीय कार्यालयों तक में छोटे मोटे ऋण जारी करने से लेकर उनको बट्टे खाते में डालने तक में होने वाला भ्रष्टाचार। मोदी सरकार के कार्यकाल में राजनीतिक हस्तक्षेप में जो कमी आई है वह फंसे हुए कर्ज के संबंध में एक बड़ा कदम है लेकिन उससे समस्या हल नहीं होने वाली। बल्कि निरंतर नई पूंजी डालने से समस्या आगे भी जारी रहेगी।
आगे की राह
सरकारी बैंकों को लेकर क्या किया जा सकता है, जबकि हम यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि अकेले पूंजी डालने से इसकी समस्या दूर नहीं होने वाली। एक नजर डालते हैं सुब्रमण्यन के नायक समिति की रिपोर्ट की अनुशंसाओं को लागू करने संबंधी बयान पर। समिति ने अपनी रिपोर्ट मई 2014 में सौंपी थी। उसी वक्त केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार आई थी जिसका नारा था, 'न्यूनतम सरकार अधिकतम शासन।' सरकार का यह भी कहना था कि 'कारोबारी जगत में सरकार के हस्तक्षेप की कोई वजह नहीं।'
नायक समिति ने सरकारी और निजी बैंकों के सफल बैंकरों समेत तमाम विशेषज्ञों से बात की। नायक स्वयं वित्त मंत्रालय में पूर्व संयुक्त सचिव और ऐक्सिस बैंक के प्रमुख रह चुके थे। इसे सरकारी बैंक सुधार के सबसे बेहतरीन खाकों में से एक माना जाता है। समिति ने सीधे सरकारी बैंकों की समस्याओं की जड़ तक पहुंचने का काम किया। उसने कहा, 'सरकारी बैंकों के संचालन की कमी का मसला कई बाहरी बाधाओं की वजह से भी है। इनमें वित्त मंत्रालय और आरबीआई का दोहरा नियमन, बोर्ड का संविधान, निजी क्षेत्र के बैंकों में क्षतिपूर्ति में व्यापक अंतर, सीवीसी और सीबीआई द्वारा बाहर से सतर्कता प्रवर्तन आदि शामिल हैं।'
समिति के मुताबिक समस्या का हल भी एकदम आसान था, 'अगर सरकार इन बैंकों में अपनी हिस्सेदारी 50 फीसदी से कम करती है और साथ ही कुछ अन्य कार्यकारी उपाय अपनाए जाते हैं तो ये तमाम बाहरी बाधाएं गायब हो जाएंगी। यह सरकार के लिए बेहतर होगा क्योंकि वह फिर भी अहम हिस्सेदारी रखेगी और इससे बैंकों के लिए यह माहौल तैयार होगा कि वे कहीं अधिक प्रतिस्पर्धी ढंग से कारोबार कर सकें। यह एक आधारभूत विडंबना है कि फिलहाल सरकार अपने ही निवेश वाले बैंकों को एक तरह से नुकसान पहुंचा रही है।'
यह अजीब बात है कि ऐसी सरकार जो साहस, संचालन, समझ और लचीलेपन के मानकों पर गर्व करती है, उसने ठीक पिछली सरकारों की तर्ज पर सरकारी बैंकों की समस्या खत्म करने की दिशा में आधारभूत कदम उठाने से दूरी बनाए रखी है। यानी भविष्य की सरकारों के अधीन भी सरकारी बैंक भ्रष्टाचार से ग्रस्त ही रहेंगे, राजनेता तब भी उन्हें प्रभावित करेंगे, विकृत पूंजीवाद हावी रहेगा और नियामक विफल होते रहेंगे। आश्चर्य नहीं कि उन्हें बार-बार पूंजी की जरूरत पड़ती रहेगी। दूसरी ओर ऋण की तेजी से बदलती दुनिया में उच्च परिचालन लागत और कमजोर ऋण निर्धारण तथा ऋण की कमजोर निगरानी सरकारी बैंकों की समस्या बने रहेंगे। ये बैंक समय के साथ कम से कम प्रासंगिक होते जाएंगे।
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