ऊर्जा पहुंच का लक्ष्य कितना हुआ हासिल? | अरुणाभ घोष / March 11, 2019 | | | | |
जिस तरह केवल आय के आधार पर गरीबी का आकलन नहीं किया जा सकता है उसी तरह ऊर्जा विपन्नता को भी समझने के कई पैमाने होते हैं। बता रहे हैं अरुणाभ घोष
भारत ने पिछले वर्षों में अपने करोड़ों नागरिकों तक ऊर्जा पहुंचाने के मामले में उल्लेखनीय प्रगति की है। आपूर्ति में आई तेजी ने ऊर्जा पहुंच के मामले में राजनीतिक वादों और नीतिगत क्रियान्वयन के बीच की खाई पाटने का काम किया है। अब हमें नीतिगत क्रियान्वयन और जमीनी हकीकत के बीच का फासला दूर करना है। जब संपोषणीय विकास लक्ष्यों को वर्ष 2015 में अंगीकार किया गया था तो भारत के करीब 4 करोड़ घरों तक बिजली नहीं पहुंची थी और 10 करोड़ से अधिक घरों में खाना बनाने के लिए जलावन वाली लकड़ी और गोबर से बने उपलों का इस्तेमाल होता था। उस समय भारत में ऊर्जा पहुंच से वंचित दुनिया के सर्वाधिक लोग थे।
फिर अचानक ही हालात तेजी से बदलने लगे। अक्टूबर 2017 में शुरू की गई सौभाग्य योजना के तहत करीब 2.5 करोड़ परिवारों को बिजली कनेक्शन दिए जा चुके हैं। उज्ज्वला योजना के तहत भी 6.5 करोड़ परिवारों को भी रसोई गैस (एलपीजी) सिलिंडर मिल चुके हैं। इसका असर यह हुआ है कि एलपीजी सिलिंडरों की पहुंच आज 85 फीसदी से भी अधिक परिवारों तक हो चुकी है जबकि 2015 में यह संख्या 60 फीसदी ही थी। हमें इसके लिए जिम्मेदार व्यक्ति को इसका श्रेय देना चाहिए। लेकिन ऊर्जा पहुंच का मतलब केवल कनेक्शन देना नहीं है। जिस तरह गरीबी का आकलन केवल आय के आधार पर नहीं हो सकता है, उसी तरह ऊर्जा विपन्नता को समझने के कई पैमाने होते हैं। ग्रिड से जुड़ा कनेक्शन किसी काम का नहीं है अगर उन तारों में बिजली न प्रवाहित होती हो। अगर ग्रामीण क्षेत्रों में एलपीजी सिलिंडर समुचित मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं तो घरों में खाना पकाने के लिए परंपरागत ऊर्जा साधनों का इस्तेमाल जारी रहेगा। अगर ऊर्जा सेवाएं लगातार नहीं मिल रही हैं तो लोग दोबारा ऊर्जा विपन्नता की स्थिति में पहुंच जाएंगे।
समय के साथ ऊर्जा पहुंच की न्यूनतम सीमारेखा भी बढ़ जाएगी। एक बिजली बल्ब और पंखा चलाने भर की मांग आगे चलकर रेफ्रिजरेटर और टेलीविजन चलाने लायक बिजली कनेक्शन की मांग में तब्दील हो सकती है। घरों के भीतर चलने वाले छोटे कारोबार (जैसे सिलाई) के लिए भरोसेमंद बिजली आपूर्ति की जरूरत पड़ेगी। बात यह है कि अपेक्षाएं बढऩे के साथ आज पर्याप्त लग रही ऊर्जा कल के लिए कम पड़ जाएगी। काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट ऐंड वाटर (सीईईडब्ल्यू) ने ऊर्जा पहुंच के आकलन के लिए एक बहुआयामी, बहुस्तरीय ढांचा विकसित किया है। खाना पकाने के लिए काउंसिल ने प्राथमिक रसोई ईंधन की उपलब्धता, खाना बनाने वाले स्टोव का स्वास्थ्य पर पडऩे वाले असर, खाना बनाने की गुणवत्ता और सुविधा के अलावा इसका खर्च उठाने की क्षमता जैसे बिंदुओं को ध्यान में रखा।
बिजली पहुंच का मामला भी बहुआयामी है। बिजली कनेक्शनों की भार क्षमता, आपूर्ति की अवधि, बिजली की गुणवत्ता (अधिक वोल्टेज होने पर इलेक्ट्रॉनिक उपकरण खराब हो जाते हैं और कम वोल्टेज होने पर वे चल ही नहीं पाते हैं), विश्वसनीयता (हर महीने होने वाले ब्लैकआउट दिनों की संख्या), वहन-क्षमता और कनेक्शन की कानूनी स्थिति जैसे पहलू होते हैं। हरेक आयाम को एक स्तर दिया गया है। किसी घर का समग्र स्तर निम्नतम स्तर के बरक्स होता है ताकि नीति-निर्माताओं और जमीनी स्तर पर सक्रिय लोगों को सबसे कमजोर कड़ी का पता चल सके। सीईईडब्ल्यू ने इस बहुआयामी ढांचे का इस्तेमाल अपने एक्सेस सर्वे में भी किया है। वर्ष 2015 में कोलंबिया यूनिवर्सिटी और 2018 में नैशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर एवं इनिशिएटिव फॉर सस्टेनेबल एनर्जी पॉलिसी के सहयोग से ये सर्वे किए गए। बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाकों में इस सर्वे को अंजाम दिया गया। सर्वे में 50 लाख से अधिक आंकड़े हैं जो भारत और शायद दुनिया में भी इसे ऊर्जा पहुंच से संबंधित सबसे बड़ा पैनल डेटा बनाते हैं।
उपभोक्ता-केंद्रित दृष्टिकोण से आंशिक समझ ही पैदा होती है। मसलन, झारखंड में 60 फीसदी ग्रामीण परिवार रोशनी के लिए ग्रिड बिजली का इस्तेमाल कर रहे थे वहीं आपूर्ति के औसत घंटे शायद ही कम हुए। उत्तर प्रदेश में रोशनी के लिए बिजली का इस्तेमाल करने वाले घरों की संख्या में तीन-चौथाई वृद्धि देखी गई लेकिन यहां पर मुफ्त में बिजली कनेक्शन दिए जाने पर भी उसे लेने के लिए तैयार नहीं होने वाले लोगों की संख्या सर्वाधिक थी। बिजली कनेक्शन की संख्या और आपूर्ति अवधि के मामले में सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले पश्चिम बंगाल में भी वर्ष 2015 के बाद बिजली आपूर्ति की विश्वसनीयता एवं गुणवत्ता में गिरावट देखी गई है। इसके चलते कई परिवार बिजली उपभोग के मामले में फिर से निचली कतार में पहुंच गए हैं।
खाना बनाने के लिए जरूरी ऊर्जा के मामले में शून्य स्तर से ऊपर बढऩे वाले परिवारों में 42 फीसदी उज्ज्वला योजना के लाभार्थी थे। इसके बावजूद दो-तिहाई परिवार अब भी मुफ्त में मिलने वाले जैव ईंधन, दोबारा सिलिंडर भरवाने के लिए पैसे न होने, रीफिलिंग के लिए दूर जाने की समस्या और परिवारों के भीतर फैसले होने की जटिलता के चलते टियर-1 में फंसे हुए हैं। मसलन, पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाकों के 59 फीसदी परिवारों में महिलाओं ने ही दोबारा सिलिंडर भरवाने के फैसले में अहम भूमिका निभाई है। वहीं मध्य प्रदेश में यह अनुपात महज 16 फीसदी रहा है। केवल गैस कनेक्शन दे देने से यह गारंटी नहीं दी जा सकती है कि महिलाएं खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन का इस्तेमाल करने ही लगेंगी।
उपभोक्ता-केंद्रित नजरिया नीतिगत डिजाइन में भी मदद करता है। एक्केस सर्वे से सामने आया कि 84 फीसदी परिवारों ने केरोसिन सब्सिडी के स्थान पर सौर लालटेन पर सब्सिडी लेने को वरीयता दी। इसी तरह अधिकतर परिवार ग्रामीण क्षेत्रों में एलपीजी पर अधिक सब्सिडी दिए जाने के साथ ही उनके वितरण में भी सुधार होते हुए देखना चाहते हैं। व्यवस्थागत समस्याएं भी नए परिप्रेक्ष्य से देखी जाती हैं। सीईईडब्ल्यू ने आईएसईपी के साथ किए गए एक अन्य सर्वे में यह पाया कि उत्तर प्रदेश के 84 फीसदी ग्रामीण और शहरी बिजली उपभोक्ता बिजली चोरी के लिए अब कटिया मारने के बारे में नहीं सोचते हैं। इसके बजाय बिजली मीटर और बिल बनाने में गड़बडिय़ां होने से भुगतान से जुड़ी शिकायतें आती हैं। उत्तर प्रदेश के केवल 45 फीसदी घरों में ही बिजली मीटर लगे हुए हैं। अगर मासिक बिल नहीं भेजे जाते हैं तो अधिकांश उपभोक्ताओं को यह यकीन ही नहीं होता है कि बिल मीटर की गणना के आधार पर जारी किया गया है। इसका नतीजा बिजली कंपनियों और उपभोक्ताओं के बीच भरोसे की कमी होने लगती है। अगर ग्रामीण क्षेत्रों में भी हर महीने बिजली बिल बनाए जाएं तो वहां के उपभोक्ता भी शहरी उपभोक्ताओं की तरह समय पर बिल भुगतान करने लगेंगे।
ऊर्जा पहुंच एक जुड़ी हुई शृंखला नहीं है। इसलिए हम यह न पूछें कि क्या आपके पास बिजली कनेक्शन है, हां या ना? इसके बजाय यह पूछें क्या आपको सेवा मिल रही है, कैसे? ऊर्जा जरूरतें समय के साथ बढ़ेंगी। घरों तक ऊर्जा पहुंच सुनिश्चित करने की इस जंग में मिली कामयाबी से पता चलता है कि एक बड़ी लड़ाई जीती जा चुकी है। हालांकि परिवारों का अनुभव बेहतर करने और उपभोक्ताओं का भरोसा जीतने में अभी वक्त लगेगा।
(लेखक काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट ऐंड वाटर के सीईओ हैं)
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