नए ईजाद जिंदगी को बनाएंगे आसान | निकिता पुरी / March 05, 2019 | | | | |
एम एस रामैया हॉस्पिटल्स में एक मरीज हृदय संबंधी छोटी सी समस्या के इलाज के लिए आया था लेकिन उसे ब्रैडिकार्डिया की शिकायत हो गई। एक स्वस्थ दिल एक मिनट में 60-100 बार धड़कता है लेकिन उस मरीज का दिल केवल 30 बार ही धड़क रहा था। बेंगलूरु स्थित इस अस्पताल के चिकित्सा प्रमुख एवं प्रोफेसर अनिल कुमार उस मरीज के बारे में कुछ यूं बताते हैं, 'उसके दिल की धड़कन धीमी होने के बाद भी उसे बचा लिया गया। दूसरे वार्ड में मौजूद रेजिडेंट डॉक्टर को ऑडियो अलर्ट के जरिये फौरन बुलाया गया जिन्होंने बिना कोई देर किए उसे तत्काल आईसीयू में भर्ती करा दिया। वहां उस मरीज के दिल में पेसमेकर लगाकर उसकी धड़कन सामान्य कर दी गई।'
स्थानीय स्टार्टअप स्टेसिस द्वारा क्लॉउड-आधारित रोगी निगरानी प्रणाली के जरिये ऑडियो अलर्ट भेजा गया था। स्थानीय स्टार्टअप द्वारा विकसित इस प्रणाली में दिल की धड़कन एवं रक्तचाप जैसे छह प्रमुख लक्षणों पर नजर रखी जाती है। मई 2017 में बिक्री शुरू होने के बाद से देश भर में फैले 31 अस्पतालों के डॉक्टर स्टेसिस प्रणाली का इस्तेमाल कर रहे हैं। डॉ कुमार कहते हैं कि यह सुदूर निगरानी प्रणाली अद्र्ध-बीमार रोगियों पर नजर रखने में खास तौर पर उपयोगी है। 'अद्र्ध-बीमार' रोगियों का आशय उन लोगों से है जो यूं तो सामान्य नजर आते हैं लेकिन उनकी हालत कभी भी जटिल हो सकती है। मसलन, डेंगू के मरीजों में ब्रैडिकार्डिया जैसी स्थिति पैदा हो सकती है।
परंपरागत तौर पर आंशिक रूप से बीमार लोगों को भी आईसीयू में रखा जाता है क्योंकि उन पर लगातार नजर रखने की जरूरत होती है। डॉ कुमार कहते हैं, 'भले ही 99 फीसदी मामलों में इन मरीजों को कुछ नहीं होता है लेकिन हम जोखिम नहीं ले सकते हैं।' ऐसी स्थिति में स्टेसिस जैसे उपकरण की मदद से डॉक्टर अद्र्ध-बीमार मरीजों को सघन निगरानी वार्ड से बाहर रखने के बाद भी उन पर अधिक बेहतर ढंग से नजर रख पाते हैं। इस सुविधा से न केवल अस्पतालों पर दबाव कम होता है बल्कि मरीजों पर अस्पताल का बिल भी कम हुआ है। आईसीयू में एक दिन भी रहने का औसत खर्च 5,000 रुपये तक होता है लेकिन स्टेसिस ने इस खर्च को महज 425 रुपये प्रति दिन पर ला दिया है। इतने कम खर्च में भी स्टेसिस के जरिये डॉक्टर मरीज के लक्षणों पर उसी तरह नजर रख पाते हैं जिस तरह आईसीयू में रखा जाता है।
प्रशिक्षित चिकित्साकर्मियों की कमी और इलाज की बढ़ती लागत से भारत में स्वास्थ्य देखभाल लंबे समय से प्रभावित रहा है। स्वास्थ्य-तकनीक में सक्रिय स्टेसिस जैसे स्टार्टअप और नवाचार को बढ़ावा देने वाले चिकित्सा उद्यमियों की मौजूदगी मरीजों एवं चिकित्सकों दोनों को ही कम लागत में बेहतर गुणवत्ता वाली सुविधाएं देने में मददगार साबित हो रही है।
सरकार का दावा है कि हरेक साल छह करोड़ भारतीय यानी प्रति घंटे करीब 7,000 लोग इलाज पर भारी खर्च के चलते गरीबी के चंगुल में फंस जाते हैं। आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन-आरोग्य योजना के सीईओ इंदु भूषण ने गत दिनों गोवा में एक संगोष्ठी में यह चौंकाने वाला आंकड़ा दिया था। स्वास्थ्य मद में सरकार का खर्च बहुत कम होने से रही-सही कसर भी पूरी हो जाती है। ब्रिक्स देशों में से सबसे कम स्वास्थ्य व्यय भारत का ही है जो सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का महज 1.3 फीसदी है। देश में डॉक्टरों और मरीजों के बीच का बिगड़ा हुआ अनुपात भी समस्या को गंभीर बनाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक प्रति एक हजार आबादी पर एक डॉक्टर होना चाहिए लेकिन भारत में दिल्ली, कर्नाटक, केरल और पंजाब जैसे राज्यों को छोड़कर बाकी जगह यह अनुपात कम है। विचार-समूह 'पहले इंडिया' फाउंडेशन का कहना है कि झारखंड, हरियाणा और छत्तीसगढ़ में औसतन 6,000 लोगों पर एक डॉक्टर है।
प्राइसवाटरहाउसकूपर्स के पार्टनर एवं स्वास्थ्य प्रमुख राना मेहता कहते हैं, 'हमें उम्मीद है कि आयुष्मान भारत योजना के आने से नए अवसर पैदा होंगे। निजी निवेशक भी इस क्षेत्र में अपनी रुचि दिखा रहे हैं। लेकिन उनका ध्यान केवल उन मॉडल पर है जिनका अनुकरण और मापन किया जा सके। भारत में स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच अक्सर इसका खर्च उठा पाने की क्षमता पर निर्भर करती है।'
अगर स्वास्थ्य क्षेत्र में नवोन्मेष के मौजूदा स्तर पर गौर करें तो भारत किफायती स्वास्थ्य देखभाल के मामले में जल्द भी बाकी दुनिया को रास्ता दिखा सकता है। यू एस विशाल राव का कैंसर रोगियों के लिए बनाया गया वॉयस प्रॉस्थेसिस उपकरण 'ओम' इसका एक सबूत है।
बेंगलूरु स्थित एचसीजी हॉस्पिटल में कैंसर रोग विशेषज्ञ डॉ राव के कमरे के बाहर ऐसे कई लोग दिख जाते हैं जो ट्रेनों के जनरल डिब्बों में बैठकर उनसे मिलने आते हैं। गले में कैंसर की वजह से स्वर यंत्र (लैंरिक्स) को जिन मरीजों में निकालना पड़ जाता है, उनके लिए मिलने वाले कृत्रिम स्वर यंत्र की बाजार में कीमत 20,000 रुपये तक होती है। लेकिन डॉ राव का उपकरण ओम महज 70 रुपये में वही काम करता है। आज से दो साल पहले जब उन्होंने पहली बार अपने अस्पताल में इसका इस्तेमाल शुरू किया था तब उसकी कीमत महज 50 रुपये ही रखी गई थी।
हालांकि ओम उपकरण को अभी व्यावसायिक रूप से बाजार में नहीं उतारा गया है लेकिन 120 भारतीय इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। डॉ राव बताते हैं कि भारत सरकार और जैव-प्रौद्योगिकी उद्योग शोध सहयोग परिषद के सौजन्य से 'ओम' को 80 देशों में मुहैया कराने की योजना पर काम चल रहा है। चेक गणराज्य, इजरायल, पाकिस्तान और बांग्लादेश से इस बारे में उनसे संपर्क साधा जा चुका है। राव कहते हैं, इनमें से कुछ जगहों पर तो वॉयस प्रोस्थेटिक्स बेचने वाला एक भी वितरक नहीं है। कई बार वह जानकारी के लिए संपर्क करने वाले डॉक्टरों को मुफ्त में ही ओम उपकरण भेज देते हैं। हालांकि स्वास्थ्य उपकरण बाजार में सामाजिक अहमियत वाले उत्पाद के तौर पर भी ओम के होने पर इसकी लागत बढऩी तय है। इसकी वजह यह है कि उपकरण को स्टरलाइज्ड बॉक्स में पैक करना होगा और उसके साथ इस्तेमाल की विधि वाली पुस्तिका और एक कैप्सूल भी देना होगा। डॉ राव इस समस्या को स्वीकार करते हुए कहते हैं, 'कभी-कभी चिकित्सा क्षेत्र के लिए बनाए गए सख्त नियम नवाचार के लिए अवरोध भी बन जाते हैं।'
इस तरह के नवाचारों में न केवल विदेशी कंपनियों को टक्कर देने की क्षमता है बल्कि वे उन्हें मात भी दे सकते हैं। लेकिन अपने ही देश में अक्सर उन्हें भरोसा नहीं मिलता है। ऐक्सियो बायोसॉल्युशंस के संस्थापक एवं सीईओ लियो मैवली कहते हैं, 'हमें भारत में अधिकारियों से संबंधित मंजूरी वर्ष 2011 में मिल गई थी लेकिन हमारे उत्पाद को मान्यता हासिल करने के लिए हमें वर्ष 2013 तक इंतजार करना पड़ा। वह भी यूरोप में मंजूरी मिलने के बाद हमें मान्यता मिली।'
मैवली का स्टार्टअप ऐक्सियो गंभीर चोट की देखभाल में इस्तेमाल होने वाले बैंडेज बनाता है। यह बैंडेज केकड़ों की कोशिका से निकलने वाले चिटोसेन से बनाया जाता है। ऐक्सियोस्टेट नाम का बैंडेज जख्म पर रखने के साथ ही खून के साथ क्रिया कर 3-5 मिनट में रक्तस्राव रोक देता है। सामान्य तौर पर तीव्र रक्तस्राव रोकने के लिए जख्म को 30-40 मिनट तक जोर से दबाना पड़ता है।
इस स्टार्टअप के बनाए बैंडेज का पहला ग्राहक सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) था। नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़ में तैनात बीएसएफ की इकाई ने पांच साल पहले वह ऑर्डर दिया था। दूरदराज के इलाकों में होने वाली मुठभेड़ों के दौरान घायल होने वाले जवानों के लिए यह बैंडेज काफी उपयोगी साबित हुआ है। दरअसल यहां पर चिकित्सकीय मदद मिलने में देर होती है लिहाजा, बैंडेज लगाकर संक्रमण को रोका जा सकता है।
इस समय देश भर में सुरक्षाबलों की करीब 150 बटालियन इस बैंडेज का इस्तेमाल कर रही हैं। पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) में मौजूद आतंकी ठिकाने ध्वस्त करने के लिए दो साल पहले की गई सर्जिकल स्ट्राइक के दौरान भी ऐक्सियोस्टेट बैंडेज का इस्तेमाल हुआ था। इसके अलावा दिल के ऑपरेशन और दांतों की सर्जरी में भी यह बैंडेज काफी उपयोगी साबित हो रहा है। दुनिया में कुछ कंपनियां ही हैं जो खून रोकने में मददगार बैंडेज बनाती हैं। इनमें से दो कंपनियां तो अमेरिकी सेना के शोध पर आधारित हैं। इन अमेरिकी कंपनियों के बैंडेज का एक पैकेट भारत में करीब 7,500 रुपये का मिलता है लेकिन मैवली का बनाया हुआ पैकेट महज 2,000 रुपये में मिलता है।
फोरस हेल्थ के संस्थापक एवं सीईओ के. चंद्रशेखर कहते हैं, 'रोकथाम से जुड़ी देखभाल में आगे बढऩे के लिए इसका किफायती होना बेहद जरूरी है।' उनकी कंपनी नेत्र रोगों के इलाज में स्वदेशी नवाचार की अगुआ बनी हुई है। इसका बनाया रेटिनल कैमरा '3नेत्र' भारत में अंधापन दूर करने के अभियान में खासा मददगार साबित हो रहा है। आज से आठ साल पहले जब फोरस हेल्थ की नींव रखी जा रही थी, तब भारत में महज 20,000 नेत्र-विशेषज्ञ ही थे। दुनिया में पहली बार सस्ता रेटिनल कैमरा 3नेत्र बनाने वाली यह कंपनी फिलहाल 27 देशों में अपना उत्पाद बेच रही है। अन्य कंपनियों के मुकाबले इस कैमरे का एक-तिहाई कीमत पर मिलना भी एक अहम कारण है। चंद्रशेखर कहते हैं, 'भारत में सैशे के लोकप्रिय होने की वजह यह रही है कि लोग गुणवत्ता-परक उत्पादों को भी कम कीमत में खरीद पाते हैं। आंखों की देखभाल के मामले में भी हम यही देख रहे हैं। हमें इस बात पर गर्व महसूस होता है कि न्यूयॉर्क के किसी आधुनिक अस्पताल में भी हम वही उत्पाद मुहैया करा रहे हैं जो ओडिशा और बिहार के अस्पतालों को देते हैं।'
फोरस ने अब माइक्रोसॉफ्ट के विशाल कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एईआई) नेटवर्क का इस्तेमाल करने के लिए उसके साथ करार किया है। विकासशील देशों में रोगियों की तुलना में नेत्र-विशेषज्ञों का अनुपात कम होने से सही इलाज नहीं मिल पाने की समस्या को दूर करने में यह जोड़ी मददगार हो सकती है।
आज के समय में स्वास्थ्य-तकनीक का क्षेत्र बेहद गतिशील है। खास तौर पर एआई और इंटरनेट ऑफ थिंग्स (आईओटी) में हुई प्रगति ने पूरा परिदृश्य बदल दिया है। स्वास्थ्य देखभाल उद्योग में बीमारी की शुरुआत में ही शिनाख्त होना बेहद जरूरी होता है और यहां पर कृत्रिम बुद्धिमत्ता की भूमिका काफी अहम हो जाती है।
मसलन, बेंगलूरु स्थित स्टार्टअप निर्मयी स्तन कैंसर की जल्द पहचान के लिए एआई और मशीन लर्निंग जैसी तकनीक का सहारा ले रहा है ताकि आंकड़ों की प्रोसेसिंग, विश्लेषण एवं थर्मल तस्वीरों की व्याख्या कर सही नतीजे पर पहुंचा जा सके। इस विकिरण-मुक्त प्रक्रिया में मानवीय निरीक्षण की बहुत कम जरूरत होती है। इसके अलावा यह 40 साल से कम उम्र की महिलाओं में भी स्तन कैंसर की जल्द पहचान में मददगार है।
माइक्रोसॉफ्ट ने इसी तरह एसआरएल डायग्नोस्टिक्स के साथ भी गठजोड़ किया है। यह करार कैंसर के लक्षण वाली कोशिकाओं के 10 लाख से अधिक नमूनों का अध्ययन करने के लिए हुआ है। इस पैथोलॉबी लैब की इस शृंखला का मुख्यालय गुरुग्राम में है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता की मदद से इन नमूनों का विश्लेषण करने से कैंसर का जल्द पता लगाया जा सकता है। हरेक रक्त नमूने का मानवीय रूप से परीक्षण करने वाले पैथोलॉजिस्ट को इससे मदद मिलती है।
हालांकि उच्च प्रतिस्पद्र्धा वाले इस बाजार में बने रहने के लिए कंपनियों, अस्पतालों के नेटवर्क और चिकित्सकों के बीच सहयोग की जरूरत है। लेकिन इस मामले में कई स्टार्टअप पीछे छूट गए हैं। नवाचार कभी भी निर्वात में नहीं घटित होता है। चंद्रशेखर भी कहते हैं, 'महज नवाचारी होने से आपका बनाया उत्पाद बाजार में नहीं चल पाएगा। इसके लिए बाजार में जरूरत भी होनी चाहिए।' स्वास्थ्य क्षेत्र में नवाचार की जरूरत और उसकी आपूर्ति के बीच के फासले को भरने के लिए बेंगलूरु में एक सम्मेलन भी हुआ है। चिकित्सा क्षेत्र के दिग्गजों के अलावा नवाचारी उत्पाद बनाने वाली कंपनियों के प्रतिनिधि भी इसमें शामिल हुए।
'डॉक्स ऐंड हैकर्स' पहल के तहत आयोजित इस सम्मेलन का मकसद चिकित्सा नवाचार का मसौदा तैयार करना था। डॉ राव बताते हैं कि आने वाले महीनों में इस तरह के सम्मेलन देश के अन्य शहरों में भी आयोजित किए जाएंगे।इस तरह की पहल स्वास्थ्य एवं देखभाल में स्टार्टअप गतिविधियों को सही राह पर रखने के लिए जरूरी है। सरकार से आर्थिक मदद पाने वाली एक नई कंपनी को शोधपत्रों के विस्तृत अध्ययन के बाद एक मुकम्मल बायोप्सी उपकरण बनाने का ख्याल आया। डॉ राव कहते हैं, 'दो इंजीनियर और एक उद्यमी इस स्टार्टअप को चला रहे थे। लेकिन उनमें से किसी ने भी डॉक्टरों से कभी भी बात नहीं की थी। आखिरकार वे एक दिन अपने बनाए उपकरण को लेकर अस्पताल पहुंचे लेकिन डॉक्टरों ने उसे आजमाने से भी मना कर दिया। डॉक्टरों ने उस उपकरण को बेहद खतरनाक बताया था।'
इस हिसाब से देखें तो स्टेसिस जैसा उपकरण डॉक्टरों के परीक्षण में सफल होने के बाद अब अमेरिकी बाजार में दस्तक देने की तैयारी कर रहा है। स्टेसिस के बिक्री एवं विपणन उपाध्यक्ष रोहित राव बताते हैं, 'हम अगले साल की पहली तिमाही तक घरेलू स्वास्थ्य देखभाल एजेंसियों के साथ भी गठजोड़ करने की कोशिश करेंगे।' विज्ञान गल्प लेखक विलियम फोर्ड गिब्सन ने एक बार कहा था कि 'भविष्य दस्तक दे चुका है लेकिन इसका समान रूप से वितरण नहीं हुआ है'। स्वास्थ्य देखभाल का परिदृश्य भी मौजूदा समय में जिस स्वरूप में नजर आ रहा है वह गिब्सन के इस आकलन को सही ठहराता है। आज के समय लोकतांत्रिक स्वास्थ्य देखभाल उद्योग का भविष्य सही मायने में डॉक्टरों के साथ-साथ इंजीनियरों पर भी टिका हुआ है।
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