कुछ सप्ताह पहले मैंने इस बात की चर्चा की थी कि कैसे दिल्ली की तथाकथित अवैध कॉलोनियों में 'अवैध' औद्योगिक गतिविधियां फल-फूल रही हैं। यह शिव विहार का मामला था, जहां जीन्स को नीले रंग में रंगने के लिए घरों में फैक्टरियां चल रही थीं। इस मामले का दिल्ली उच्च न्यायालय ने संज्ञान लिया था क्योंकि इन इकाइयों से निकलने वाले रसायनों से भूमिगत जल प्रदूषित हो रहा था और इसे कैंसर के मामलों में बढ़ोतरी की वजह बताया जा रहा था।
मैंने हाल ही में इस कॉलोनी का दौरा किया। यह अन्य अवैध कॉलोनियों की तरह ही है। इन कॉलोनियों को शहर के मास्टर प्लान में अवैध इसलिए कहा जाता है क्योंकि इन्हें सरकार से मंजूरी नहीं मिली हुई होती है। मास्टर प्लान में ऐसी कॉलोनियों के लिए न कोई योजना है और न ही उनका वजूद है। अकेले शिव विहार में ही करीब 1 लाख लोग रहते हैं। यह जमीन कागजों में कृषि भूमि है, लेकिन यहां अवैध रूप से मकानों का निर्माण हो गया है। यहां पानी की आपूर्ति नहीं है, इसलिए लोग भूजल पर निर्भर हैं।
यहां भूजल इसलिए पर्याप्त मात्रा में है क्योंकि यह यमुना के बहाव क्षेत्र से बहुत नजदीक है। पानी भरपूर होने के कारण ही यहां रंगने की इकाइयां लगी हैं। यहां कोई आधिकारिक सीवेज कनेक्शन नहीं हैं और घरों का अपशिष्ट जल खुली नालियों में छोड़ा जाता है। ये नालियां बड़े नालों में जाकर मिल जाती हैं और ये बड़े नाले यमुना में जाकर मिल जाते हैं। इस तरह सभी घरेलू और रासायनिक अपशिष्ट पदार्थ नदी में पहुंच जाते हैं।
मेरे दौरे का मकसद 'अवैध' फैक्टरियों की स्थिति का पता लगाना और यह देखना था कि क्या हमें परीक्षण के लिए पानी के और नमूने एकत्रित करने चाहिए। पहले मैंने लिखा था कि मास्टर प्लान के मुताबिक अवैैध कॉलोनियों में औद्योगिक गतिविधियों पर रोक लगा दी गई है। घरों में चलने वाले स्वीकृत उद्योगों की एक सूची है। लेकिन कपड़े को रंगने के लिए रसायनों का इस्तेमाल करना उस सूची में शामिल नहीं है। उच्च न्यायालय ने इन फैक्टरियों पर कार्रवाई की थी। केंद्रीय जांच ब्यूरो को उन अधिकारियों का पता लगाने का निर्देश दिया गया था, जिन्होंने इन्हें परिचालन की मंजूरी दी।
अदालत की यह कार्रवाई कामयाब रही। मैंने पाया कि सभी रंगाई इकाइयां (या घर) बंद हैं। बहुत से घरों के दरवाजों पर सील लगी थीं, जो आधिकारिक रूप से बंद होने का संकेत दे रही थीं। लेकिन जब मैंने नाले को देखा तो यह नीला नजर आ रहा था। हम संकरी गलियों से होकर आगे बढ़े। हम एक बंद दरवाजे के बाहर पहुंच गए। वहां हम मशीनों की आवाज सुन सकते थे और यह देख सकते थे कि नीला रंग नाले में बहकर बाहर आ रहा है।
मैंने पूछा कि मुझे यह बताया गया कि दिल्ली में यह फैक्टरी बंद है, इसलिए यह रंग कहां से आ रहा है? यह उत्तर प्रदेश है। यहां दोनों राज्यों की गलियां मिलती हैं। फैक्टरी का दरवाजा दिल्ली में खुलता था। अब इस इकाई का पिछला दरवाजा खोला जा रहा है, जो उत्तर प्रदेश में खुलता है। दूसरी फैक्टरी की भी यही कहानी थी। मुझे फिर यह बताया गया कि यह गली उत्तर प्रदेश में है, दिल्ली में नहीं।
जब अदालत कार्रवाई करती थी तो ये फैक्टरियां आधिकारिक रूप से बंद हो जाती थीं और फिर महज कुछ घर दूर ली जाती थीं। मगर वे दिल्ली से उत्तर प्रदेश चली जाती थीं। दूसरा राज्य दूसरी अदालत का क्षेत्राधिकार है। लेकिन तथ्य यह है कि ये फैक्टरियां अब भी अपना अपशिष्ट जल उसी नाले में डाल रही हैं, जो यमुना में आकर मिलता है। यह अपशिष्ट जल अब भी भूजल को प्रदूषित कर रहा है और जीवन और स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहा है। इस स्तर पर भी कोई बदलाव नहीं आया है। पर्यावरण नियमन की लागत बढऩे से संपन्न देशों में उत्पादन लागत बढ़ गई है। ये देश अपने पानी और वायु की गुणवत्ता की संभाल करने में सक्षम हैं। इनमें लोगों के स्वास्थ्य से कोई समझौता नहीं किया जा सकता। इसलिए वहां की सरकारों ने प्रदूषण पर कार्रवाई की। वहां यह खत्म हो गया। यह प्रदूषण चीन, इंडोनेशिया, बांग्लादेश या भारत जैसे देशों में पहुंच गया। हमारा प्रतिस्पर्धी लाभ यह था कि हम लागत को कम रख सकते थे क्योंकि श्रम और पर्यावरण अनुपालना की लागत कम थी।
हमारे विश्व में जहां फैक्टरियां गई थीं और प्रदूषण फैलाना शुरू किया था, वहां कार्रवाई शुरू हुई। लेकिन इस बार पर्यावरण को लेकर। उदाहरण के लिए दिल्ली में करीब 10 साल पहले उच्चतम न्यायालय ने प्रदूषण फैलाने वाले सभी उद्योगों पर रोक लगा दी थी। नियामकों ने 'अवैध' उद्योगों पर कार्रवाई की। इसके बाद ये उद्योग वैध क्षेत्रों से शिव विहार जैसे अवैध क्षेत्रों में कूच कर गए। इन क्षेत्रों में प्रदूषण नियामक कार्रवाई नहीं कर सकता है। इसकी वजह साफ है। 'ये फैक्टरियां वजूद में नहीं हैं क्योंकि वे अवैध हैं। अगर हम उन्हें नोटिस देते हैं तो सबसे पहले हमें उन्हें वैध बनाना होगा, जो हम नहीं कर सकते।' लेकिन यह स्थिति प्रदूषण के लिए बहुत खतरनाक है।
इसलिए अब हमें कहां जाना चाहिए? शिव विहार शांति नगर में पहुंच गया है। शांति नगर उत्तर प्रदेश की अवैध कॉलोनी है, जहां अदालत और नियामक की नजर नहीं पड़ती है। मैंने फैक्टरियों में पाया कि गरीब प्रवासी मजदूर दयनीय हालात में काम कर रहे हैं। नंगे हाथों से रसायनों का काम कर रहे हैं। इन पर जहरीले पदार्थों का सबसे अधिक असर पड़ता है। मैंने कॉलोनी में पाया कि हर कोई इसी प्रदूषित भूजल पर निर्भर है। लेकिन वे गरीब हैं। वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि उनके पास और कोई विकल्प नहीं है। हमें इस विनाश के चक्र को बदलना होगा।
(लेखिका सेंटर फॉर साइंस ऐंड एन्वायरनमेंट से जुड़ी हैं।)