दुर्भाग्य से अब यह व्यापक रूप से माना जाने लगा है कि हम भारत सरकार के आंकड़ों पर भरोसा नहीं कर सकते। मैं यहां सकल घरेलू उत्पाद की गणना की 'नई शृंखला' को लेकर बात नहीं कर रहा। ना ही मैं इसी जीडीपी की भरोसे न करने लायक 'बैक सीरीज' की बात कर रहा हूं। मैं ईपीएफओ के आंकड़ों का इस्तेमाल कर रोजगार वृद्धि के किए गए दावों के बारे में भी बात नहीं कर रहा हूं। मैं यहां बजट में पेश सबसे अहम वृहद आर्थिक संकेतकों के बारे में बात कर रहा हूं।
अंंतरिम बजट के आंकड़ों को लेकर यह नहीं कहा जा सकता कि ये हकीकत को ठीक से बयां करते हैं। सरकार ने सभी परंपराओं की उपेक्षा की है और पूर्ण बजट पेश किया है। बजट में यह दावा किया गया है कि भारत लगातार 'राजकोषीय सुदृढ़ता की राह' पर चल रहा है और घाटा जीडीपी का 3 फीसदी रहेगा। इस पर भरोसा करना बहुत मुश्किल है।
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के अंतिम वर्ष समेत 2013 के संकट के बाद शुरुआती कुछ वर्षों में घाटे को कम करने के लिए पूरी ईमानदारी से प्रयास किए गए। लेकिन ऐसा लगता है कि अब वे प्रयास बंद हो गए हैं। इस साल कोई प्रमुख वृहद आर्थिक संकट नहीं होने के बावजूद राजकोषीय घाटे का लक्ष्य फिर हासिल नहीं हो पाया। यह उन वर्षों की याद दिलाता है, जब संप्रग सरकार के वरिष्ठ अधिकारी लगातार ये दावे करते थे कि 8 फीसदी वृद्धि केवल 2-3 तिमाही दूर है।
बजट की बातें उसी तरह अविश्वसनीय हैं। इसका कोई सही जवाब नहीं दिया गया है कि वस्तु एवं सेवा कर की प्राप्तियां बजट अनुमान से 1 लाख करोड़ कम क्यों हैं। ये इस साल करीब 6 फीसदी बढ़ेंगी। ऐसे में हमें बजट का यह दावा क्यों मानना चाहिए कि वे अगले साल करीब 20 फीसदी बढ़ेंगी? अगर वे नहीं बढ़ीं तो बजट के अनुमानों का क्या होगा?
राजकोषीय स्थिति को नियंत्रित रखने का बहुत बड़ा श्रेय प्रधानमंत्री मोदी को दिया गया है। हालांकि अब तक के सबूत यह दर्शाते हैं कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि वह इसका श्रेय लेना चाहते हैं, लेकिन खर्च को नियंत्रित रखने या राजस्व बढ़ाने के अनिच्छुक नजर आते हैं। मोदी सरकार खर्च को नियंत्रित नहीं करना चाहती है, जिसके नतीजतन बजट घाटे का आंकड़ा अवास्तविक अनुमानों के कारण न केवल अविश्वसनीय है, बल्कि पूरी तरह भ्रामक भी है। सरकारी खर्च को सरकार के नियंत्रण में आने वाली अन्य नकदी से वित्त पोषित कर छिपाया जा रहा है।
एयर इंडिया को उबारने के लिए लघु बचत कोष का इस्तेमाल किया जा रहा है। पहले यह काम बजट आवंटन के जरिये किया जाता था। यह सरकार का कर राजस्व नहीं है, जिसे इस्तेमाल किया जाना चाहिए। ये हमारी बचत हैं। उदाहरण के लिए सार्वजनिक भविष्य निधि की धनराशि। इसका इस्तेमाल एयर इंडिया को बचाने जैसी राजनीतिक जरूरतों के लिए किया जा रहा है। लेकिन किसी की बचत का गर्दिश में जा रही उस विमानन कंपनी में निवेश होना बहुत ही बेकार है। इसमें करों से आने वाला पैसा खर्च किया जाना चाहिए। हम संकटग्रस्त किंगफिशर को ऋण देने को लेकर बैंकरों की आलोचना क्यों करते हैं, जब हमारी बचत की संरक्षक सरकार भी एयर इंडिया के मामले में ठीक वही कर रही है।
विनिवेश का भी दुरुपयोग हो रहा है। अब इसका मतलब सरकारी नियंत्रण में कमी और इस तरह सरकारी क्षेत्र में लगी पूंजी की उत्पादकता में बढ़ोतरी नहीं रह गया है। इसके बजाय विनिवेश सार्वजनिक क्षेत्र से सरकार को पूंजी हस्तांतरित करना बन गया है। फिर सरकार इसका इस्तेमाल खर्च के वित्त पोषण में करती है। यह सार्वजनिक संसाधनों का बेजा दुरुपयोग है। इससे लगातार अर्थव्यवस्था में अकुशलता और पूंजी के गलत आवंटन में बढ़ोतरी हो रही है। सार्वजनिक क्षेत्र की जिन कंपनियों को अपना आरक्षित कोष निवेश के लिए इस्तेमाल करना चाहिए, उन्हें वह पैसा सरकार को देने के लिए बाध्य किया जा रहा है। सरकार की प्रमुख नीतियां पूरी करने के लिए सार्वजनिक एजेंसियों को कर्ज लेने के लिए बाध्य किया जा रहा है।
बजट में राजमार्ग मंत्रालय का आवंटन घटा दिया गया है। अगले साल के लिए बजट चालू वित्त वर्ष के संशोधित अनुमान की तुलना में केवल 6 फीसदी बढ़ाया गया है। इसके नतीजतन भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण जैसी एजेंसियां सरकारी ऑर्डरों के लिए उधारी बढ़ा रही हैं। हालांकि बजट के आंकड़ों मे इसे नहीं दिखाया जा रहा है।
एनएचएआई पर 1.5 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है और उसकी आमदनी या नकदी प्रवाह नगण्य है। यह सरकारी गारंटी पर नए कर्ज लेकर अपने पुराने कर्ज चुका रहा है। यह जिन सड़कों पर कर्ज लेता है, वे उसकी नहीं बल्कि सरकार की संपत्ति हैं। आगे एनएचएआई के बाजार से 60,000 करोड़ रुपये और भारतीय खाद्य निगम के 1 लाख करोड़ रुपये जुटाने का अनुमान है। इस उधारी का निर्देश और गारंटी सरकार देती है, लेकिन यह बजट में नहीं दिखती है। इन सबका एक संभावित निष्कर्ष यह है कि मोदी राजकोषीय मितव्ययी होने का श्रेय पाने के हकदार नहीं हैं। असल में वह खर्चीले साबित हुए हैं। अगर निजी निवेश नहीं सुधरा तो इसकी वजह यह है कि सरकार ने बाजार को अपने बॉन्डों से पाट रखा है। सरकार को अपना खर्च करों से चलाना चाहिए।
आपको जीडीपी के आंकड़ों पर हंसी आ सकती है, जिनमें दावा किया गया है कि हम नोटबंदी के वर्ष में सबसे ज्यादा तेजी से बढ़े। लेकिन यदि आप जीडीपी के आंकड़ों में भरोसा रखते हैं तो आपको गौर करना चाहिए कि पिछले साल जीडीपी में भारी गिरावट आई है, जबकि उस दौरान उधारी में बढ़ोतरी हुई है। मोदी का बड़ा दांव नाकाम रहा है। उनका दांव था कि जब सरकारी खर्च को बड़ी बातों और छोटे सुधारों के साथ मिला दिया जाएगा तो निवेश शुरू हो सकता है। उन्होंने सुधरती अर्थव्यवस्था अपने हाथ में ली थी, लेकिन उन्होंने इसे जमीन पर ला दिया।