दिल्ली के निजी विद्यालयों में नर्सरी में दाखिला प्रक्रिया आरंभ हो चुकी है। मार्च के शुरुआती सप्ताह में यह होड़ समाप्त हो जाएगी। तब तक बच्चों के माता-पिता तनाव में रहेंगे। स्कूली प्रशासन की समितियों का भी यही हाल रहेगा क्योंकि उन्हें विस्तृत अंक आधारित व्यवस्था से दो-चार होना है।
यह सच है कि सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता, सेवा और शुल्क तीनों सरकारी स्कूलों से अलग होते हैं। ऐसे में माता-पिता बच्चों के लिए खुद विद्यालय का चयन करते हैं। यह चयन इस बात पर निर्भर करता है कि वे कितना पैसा खर्च कर सकते हैं। परंतु हर जगह भारी भीड़ देखने को मिलती है। मां-बाप का चयन एकदम साफ है: पहली बात, निजी स्कूल और उसके बाद सरकारी स्कूल। दूसरा, तमाम निजी स्कूलों की भारी मांग है भले ही उनकी फीस, सेवा और गुणवत्ता कैसी भी हो। तीसरी बात, 25 प्रतिशत कोटा आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए है और दाखिला लॉटरी के आधार पर होता है। उन्हें भी सरकारी स्कूल के बजाय निजी स्कूल ही पसंद होते हैं। ज्यादातर लोगों को लगेगा कि नीतिगत प्रतिक्रिया सीधी सपाट है और वह यह कि सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाया जाए।
दिल्ली सरकार ने सरकारी स्कूलों की बुनियादी सुविधाओं और शिक्षण के स्तर में सुधार की दिशा में काफी काम किया है। इसका परिणाम बेहतर शिक्षण नतीजों और शिक्षा सेवाओं की बेहतर गुणवत्ता के रूप में सामने आएगा। परंतु इसमें वक्त लगेगा। दूसरी बात, निजी स्कूलों की तादाद बढ़ाने और उनके बीच सेवा गुणवत्ता को लेकर प्रतिस्पर्धा बढ़ाई जानी चाहिए। सरकार इस मोर्चे पर कामयाब नहीं है। उसने आपूर्ति बढ़ाने पर ध्यान नहीं दिया है और निजी विद्यालयों का उसका नियमन शुल्क तक सीमित है। परंतु इससे पहले हमें शुल्क नियमन पर ध्यान देना होगा।
बीते कुछ वर्ष के दौरान कई राज्यों ने निजी स्कूलों के शुल्क का नियमन करने के उपाय किए हैं। ऐसा तब किया गया जब अभिभावकों ने आरोप लगाया कि स्कूल मनमाने ढंग से शुल्क बढ़ा रहे हैं। कई राज्यों ने एक न्यायाधीश की अध्यक्षता और अफसरशाहों की सदस्यता वाली जिला स्तरीय समिति गठित की हैं जो शुल्क में बढ़ोतरी की सीमा तय करती हैं। एक बार बढ़ा हुआ शुल्क तीन वर्ष तक प्रभावी रहता है। मध्य प्रदेश और पंजाब जैसे प्रांतों में शुल्क वृद्धि को 8 से 10 फीसदी तक निर्धारित किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि निजी स्कूल शैक्षणिक सुधार के लिए पैसे कमा सकते हैं लेकिन मुनाफे के लिए काम नहीं कर सकते। शुल्क का नियमन स्कूल की स्वायत्तता में हस्तक्षेप नहीं है लेकिन कठोर शुल्क व्यवस्था लागू करना जरूर उसकी स्वायत्तता में अनावश्यक दखल होगा।
दिल्ली के निजी स्कूलों में तीन साल से शुल्क नहीं बढ़ाया गया है। कुछ स्कूलों में तो और लंबे समय से। दिल्ली सरकार ने शुल्क वृद्धि पर रोक लगा रखी है। उसने निजी स्कूलों को यह निर्देश भी दिया कि शिक्षकों को सातवें वेतन आयोग के अनुसार वेतन दिया जाए। कई स्कूलों ने शिक्षकों का वेतन बढ़ा दिया लेकिन अब शुल्क वृद्धि रुकने के बाद वे संकट में हैं। कमाई करना तो छोडि़ए, कई स्कूलों की हालत खराब हो गई है। यह कहा जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय ने शुल्क वृद्धि को रोकने को सर्वोच्च न्यायालय ने स्कूलों की स्वायत्तता पर अतार्किक प्रतिबंध बताया है।
निजी स्कूलों का दम न घोंटें
कुछ व्यवस्थित तथ्य इस प्रकार हैं। देश के निजी स्कूलों में से अधिकांश सस्ते हैं और अधिकांश अभिभावक नि:शुल्क सरकारी स्कूलों पर उन्हें तरजीह देते हैं। अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई उनका प्रमुख आकर्षण है। निजी स्कूलों की पढ़ाई और नतीजे सरकारी स्कूलों से बेहतर होते हैं। शिक्षा का अधिकार अधिनियम की जरूरतों के चलते कई सस्ते निजी स्कूल बंद हो गए। अन्य स्कूल इसलिए संघर्ष कर रहे हैं क्योंकि गरीब तबके के 25 फीसदी बच्चों को शुल्क नहीं देना पड़ता। निजी स्कूलों के शिक्षकों को भी सरकारी स्कूलों की तुलना में बहुत कम वेतन मिलता है।
दिल्ली में जिस प्रकार का विसंगतिपूर्ण नियमन लागू किया गया है उसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं। पहली बात तो यही कि ढेर सारे सस्ते स्कूल बंद हो चुके हैं। अन्य स्कूल भी संकट में हैं। स्कूलो के वेतन भत्तों और अन्य चालू खर्च के लिए धन नहीं है वह शुल्क से ही जुटाया जाता है। दूसरी बात, संतुलन कायम करने का इकलौता तरीका यह है कि छात्र-शिक्षक अनुपात में सुधार किया जाए यानी हर कक्षा में छात्रों की तादाद बढ़ाई जाए। इसका नतीजा यह हुआ कि कुछ ही निजी स्कूल मांग की समस्या का सामना कर पा रहे हैं और यह अनुपात बिगडऩे का असर शिक्षा की गुणवत्ता पर भी पड़ रहा है। प्राथमिक विद्यालयों में यह अनुपात सबसे बुरी स्थिति में है। विडंबना देखिए कि सबसे बुरा असर उन अभिभावकों पर पड़ रहा है जो सस्ते विद्यालय की तलाश में हैं। सरकार द्वारा नियमन का यह तरीका सोवियत युग की याद दिलाता है।
निजी स्कूलों को आर्थिक रूप से कमजोर तबके के 25 फीसदी बच्चों का समायोजन करना पड़ता है जो शुल्क नहीं चुकाते। जाहिर है इनका शुल्क भी उन बच्चों के शुल्क से ही वसूला जाना होता है जो आर्थिक रूप से सक्षम होते हैं। निश्चित तौर पर स्कूलों से यह आशा नहीं की जानी चाहिए कि वे पूरी लागत बरदाश्त करेंगे। जाहिर है इस सब्सिडी की भरपाई के लिए शुल्क बढ़ाना होगा। लागत का एक हिस्सा हर वर्ष बढ़ता है। इसमें रखरखाव का व्यय, विभिन्न सामग्री और महंगाई भत्ता शामिल होता है। बुनियादी ढांचे और जमीन की लागत भी हर वर्ष बढ़ती है। इसका सीधा असर नए स्कूलों पर होता है। अगर इन कारकों को शुल्क वृद्धि में शामिल नहीं किया गया तो अतिरिक्त मांग पूरी नहीं हो पाएगी।
एक सहज समाधान यह है कि स्कूलों को हर वर्ष शुल्क में 7 फीसदी बढ़ोतरी की इजाजत दी जाए। अगर कोई स्कूल इससे ज्यादा इजाफा करना चाहता है तो वह मंजूरी के लिए सरकार से संपर्क कर सकता है। स्कूल केवल उत्तर प्रभाव से शुल्क बढ़ा सकते हैं। अगर कहीं तीन वर्ष से शुल्क नहीं बढ़ाया गया है तो वहां सामासिक वृद्धि की जा सकती है। दिल्ली का अनुभव अन्य राज्यों के लिए सबक लिए हुए है। सरकारी स्कूलों में सुधार की दिशा में उसका अनुकरण हो सकता है लेकिन निजी स्कूलों के नियमन में सावधानी बरतनी होगी। शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान देना अधिक आवश्यक है।
सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाने में वक्त लगेगा। इस बीच उन स्कूलों को खत्म न किया जाए जो बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं, भले ही शुल्क लेकर।