मध्यस्थता से विवाद समाधान में आड़े आ रहीं कई अड़चन | अदालती आईना | | एम जे एंटनी / January 23, 2019 | | | | |
सरकार, विभिन्न निगम और विधि व्यवसाय से जुड़े लोग पिछले कई दशकों से यह प्रयास करते रहे हैं कि देश को मध्यस्थता केंद्र के रूप में आकर्षक बनाया जा सके। परंतु लंदन, सिंगापुर और अन्य विदेशी केंद्र आज भी विभिन्न अनुबंधों की पहली पसंद बने हुए हैं। इसकी कई वजह हैं। मिसाल के तौर पर अपर्याप्त बुनियादी सुविधाएं, कानूनी अनिश्चितता, अंतहीन देरी और अस्पष्ट न्यायिक प्रक्रिया आदि। लोकसभा ने करीब एक वर्ष पहले नई दिल्ली अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र विधेयक 2018 पारित किया था ताकि कुछ मसले हल हो सकें लेकिन ऐसा लगता नहीं कि निकट भविष्य में इसका प्रवर्तन होगा।
इस बीच सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णयों पर एक दृष्टि डालें तो वर्ष 2015 में मध्यस्थता अधिनियम में कुछ बदलाव के बावजूद मध्यस्थता प्रक्रिया में कुछ गंभीर कमियां उजागर होती हैं। जो अपील उच्चतम न्यायालय तक पहुंचती हैं, उनमें कुछ समस्याओं के लक्षण नजर आते हैं। असहमति का एक प्रमुख बिंदु है मध्यस्थों का चयन। सर्वोच्च न्यायालय ने अफसरशाहों और अधिकारियों को अनिवार्य तौर पर अपने ही मामलों में मध्यस्थ बनाए जाने के खिलाफ कई पत्र लिखे हैं लेकिन यह सिलसिला जारी है। हालांकि संशोधित कानून में दो अनुसूचियां हैं जिनमें कहा गया है कि कुछ खास लोग मध्यस्थ के रूप में काम नहीं करेंगे। यह मुद्दा अक्सर पहली बाधा बनता है। विभिन्न पक्ष मध्यस्थ के चुनाव को लेकर उलझ जाते हैं, इससे उसकी स्वायत्तता और निष्पक्षता को लेकर प्रश्न खड़ा हो जाता है। न्यायालयों ने भी इसे लेकर भ्रम समाप्त नहीं किया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने एसपी सिंगला कंस्ट्रक्शंस और राज्य के मामले में कहा था कि अगर मध्यस्थ किसी एक पक्ष का नियोक्ता है तो यह अपने आप में पूर्वग्रह या उसकी ओर से निष्पक्षता की कमी की वजह नहीं हो सकता। अदालत ने कहा था कि लोक निर्माण विभाग से सेवानिवृत्त एक इंजीनियर विभाग और एक ठेकेदार के बीच के मामले (पीडब्ल्यूडी और जीएफ टोल रोड लिमिटेड) में मध्यस्थता कर सकता है। दूसरी ओर, झारखंड उच्च न्यायालय ने एक मामले में कहा कि एक निजी फर्म को उन अधिकारियों की मर्जी पर छोड़ देना ठीक नहीं है जिनके खिलाफ शिकायत की गई हो। उसने कहा कि इससे पूरी प्रक्रिया की विश्वसनीयता और निष्पक्षता बाधित होती है (साहिल प्रोजेक्ट्स और पूर्वी रेलवे)।
हमारे यहां ऐसे लोग भी नहीं हैं जिन्हें मध्यस्थता में विशेषज्ञता हासिल हो। ऐसे में ले देकर सेवानिवृत्त न्यायाधीश ही बचते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा था कि ऐसे न्यायाधीशों की नियुक्ति न केवल महंगी पड़ती है बल्कि उनमें मामले को लंबा खींचने की प्रवृत्ति भी होती है। एक सत्र तो अगली बैठक की तारीख तय करने में ही निकल जाता है। कुछ सप्ताह पहले राजस्थान उच्च न्यायालय ने एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश को इसलिए अयोग्य घोषित कर दिया क्योंकि उन्होंने एक मामले के लिए 75 लाख रुपये मांगे थे।
विभिन्न पक्षों का आचरण, खासतौर पर कानूनी मामलों से जुड़े भारी भरकम फंड दबाए सरकारी संस्थानों के आचरण को लेकर कई टिप्पणियां की जाती रही हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय ने भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) द्वारा अधिनियम के उद्देश्य की पूर्ति न करने के कारण उस पर भारी जुर्माना लगाया था। एनएचएआई से जुड़े एक अन्य मामले में अदालत ने लिखा, 'हमें प्रतीत होता है कि यह अदालत सरकारी कंपनियों द्वारा मध्यस्थता निर्णयों के खिलाफ चुनौतियों से भरा हुआ है। इन मामलों में मध्यस्थ के निष्कर्षों की पुन: जांच की मांग की गई है। ऐसे मामले अधिनियम के उद्देश्य को ही परास्त करते हैं।'
मध्यस्थता के मामलों में सरकारी संस्थानों द्वारा एक दूसरे से उलझना नया नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने इन्हें रोकने का प्रयास किया है लेकिन वह नाकाम रहा है। सरकार ने ऐसे मामलों में सरकारी धन के उपयोग की निगरानी के लिए एक समिति बनाई थी लेकिन उसके खात्मे के बाद ऐसे मामलों पर किसी तरह की कोई रोकटोक नहीं है। मध्यस्थता के मामलों में देरी से प्रक्रिया का नाम भी खराब होता है। एक मामले में एस्सेल इन्फ्रा प्रोजेक्ट लिमिटेड देरी से हताश थी, उसने इसे तेज करने में सर्वोच्च न्यायालय की सहायता मांगी। परंतु उसने केवल ऐसे सुझाव दिए जो अनिवार्य नहीं थे। अदालत ने हुंडई और ओएनजीसी के बीच के दो दशक पुराने मामले में एक नए निर्णयकर्ता की नियुक्ति कर दी।
कानून की तकनीकी बातें भी प्रक्रिया को निलंबित कर सकती हैं। मध्यस्थता के स्थान और सीट की व्याख्या को लेकर उपजे विवाद के बाद मामला सर्वोच्च न्यायालय के एक बड़े पीठ के पास भेजना पड़ा। हममें से अधिकांश लोग यह यकीन करते हैं कि अनुबंध तैयार करने वाले शीर्ष अधिवक्ता उनमें कोई खामी नहीं छोड़ेंगे। परंतु न्यायाधीशों को कई समझौतों के मामले में मध्यस्थता का प्रावधान खोजना पड़ा है। उन्हें यह मौखिक आश्वासन और विभिन्न पक्षों के बीच के संवाद और बिना हस्ताक्षर वाले दस्तावेजों में भी मिला है।
ये सारे उदाहरण बताते हैं कि मध्यस्थता के मामलों में इतनी समस्या क्यों आ रही है। ऐसी तमाम दिक्कतें हैं। प्रस्तावित विधेयक ने सैद्धांतिक पहलुओं को छुआ है लेकिन अगर यह पारित भी हो गया तो भी यह क्रियान्वयन के स्तर पर मौजूद समस्याओं को हल नहीं कर पाएगा।
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