वायुसेना और घरेलू विनिर्माण | संपादकीय / January 17, 2019 | | | | |
भारतीय वायुसेना लंबे समय से विमान निर्माण के बजाय उनका आयात करने को प्राथमिकता देती आई है। वह देश की एकमात्र अनुभवी कंपनी हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स (एचएएल) के साथ हमेशा सौतेला व्यवहार करती आई है। तेजस मार्क 1ए और एचटीटी-40 आधारभूत प्रशिक्षु विमान ताजा उदाहरण हैं जहां वायुसेना ने परियोजनाओं के स्वदेशी विकास को हतोत्साहित किया। उसने विनिर्माण ऑर्डर जारी करने में देरी की। इससे एचएएल की विमान संयोजन की अबाध और सहज प्रक्रिया बाधित हो रही है। वायुसेना देरी और खर्च का बहाना बनाकर एचएएल की आलोचना करती है और आवश्यक जरूरतों को पूरा करने के लिए आयात की वकालत करती है। वायुसेना उन विमानों और सेवाओं के बिल का भुगतान तक एचएएल को नहीं करती है जिनकी आपूर्ति हो चुकी है। इससे रक्षा क्षेत्र की इस सरकारी कंपनी को नकदी की दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है। स्वदेशी विनिर्माताओं की इस अनदेखी और वायुसेना के कमजोर नियोजन के कारण ही उसके बेड़ों में सात तरह के लड़ाकू विमान शामिल हैं। इस वर्ष राफेल के आगमन के बाद इनकी संख्या आठ हो जाएगी। शांति के समय में यह तैयारी एक दु:स्वप्न की तरह है जो युद्घ के समय में अत्यधिक घातक होकर सामने आ सकती है।
इसके विपरीत नौसेना ने आधी सदी पहले ही स्वदेशी को पूरे खुले दिल से अपनाना शुरू कर दिया था और अब उसके पास तकरीबन भारत में बने हुए युद्घपोत हैं। उसने व्यवस्थित ढंग से एक माहौल बनाया है जहां देश में युद्घपोत डिजाइन किए जा रहे हैं और बनाए जा रहे हैं। उसने अपना डिजाइन ब्यूरो, स्वदेशीकरण महानिदेशालय बनाया और यह सुनिश्चित किया कि युद्घपोत बनाने वाले चार डीपीएसयू शिपयार्ड का नेतृत्व एडमिरल रैंक के अधिकारियों के पास हो। नौसेना ने जहां डिजाइन, विकास और विनिर्माण की जिम्मेदारी उठाई है, वहीं वायुसेना एचएएल से दूरी बनाए हुए है। अगर उसे यह यकीन हो जाता है कि एचएएल किफायती ढंग से काम नहीं कर पा रही है तो उसे भी अपने हालिया सेवानिवृत्त एयर मार्शलों को इस संस्थान में लाना चाहिए और यह तय करना चाहिए कि वायुसेना की आवश्यकताएं पूरी हों।
भारत लंबे समय से दुनिया में रक्षा उपकरणों का सबसे बड़ा आयातक बना हुआ है। बहरहाल सऊदी अरब और यूएई जैसे अन्य बड़े आयातकों के उलट भारत के पास एक सुविकसित औद्योगिक आधार है, कुशल कामगार हैं और गुणवत्ता वाले वैज्ञानिकों की अच्छी खासी तादाद है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा वाहन कलपुर्जा निर्माता और बड़ी अंतरिक्ष शक्ति वाला देश है। उसने यह दिखाया है कि वह अवधारणा और योजना तैयार करने के बाद उच्च तकनीक वाले नतीजे हासिल कर सकता है। जैसा कि नौसेना ने दिखाया, यह काम रक्षा के क्षेत्र में भी किया जा सकता है। अगर भारत विमानन क्षेत्र में यूं ही पिछड़ा रहा तो इसकी बड़ी वजह यह है कि वह रक्षा बजट का समुचित इस्तेमाल नहीं कर पाया। वायुसेना को तीनों सेनाओं में सबसे अधिक धन आवंटित किया जाता है। ऐसे में वह इसका समुचित प्रयोग देसी उद्योग विकसित करने में कम कर सकती है। रक्षा मंत्रालय ने कहा है कि देश में डिजाइन, विकसित और विनिर्मित हथियारों की खरीद प्राथमिकता होगी। रक्षा खरीद नीति में कहा गया था कि भारत 2025 तक दुनिया के शीर्ष पांच रक्षा उत्पादकों में से एक हो जाएगा और उस वर्ष तक रक्षा निर्यात 10 गुना बढ़कर 500 करोड़ डॉलर हो जाएगा।
जब तक वायुसेना स्वदेशी निर्माण को लेकर नौसेना का अनुकरण नहीं करती यह सब केवल बातें रह जाएंगी। अमेरिका, चीन, रूस समेत भारत जैसे रक्षा बजट वाला कोई देश घरेलू विनिर्माण की इस कदर अनदेखी नहीं करता जैसी कि हम करते हैं। वायुसेना जिस तरह एचएएल की अनदेखी करती है, उस हालत में बदलाव लाना जरूरी है।
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